शिवानन्द द्विवेदी
वर्ष 2015, जुलाई महीने के अंतिम सप्ताह में दो बड़ी घटनाएँ हुईं। देश के पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम का निधन २७ जुलाई को हुआ और उसके ठीक तीन दिन बाद मुंबई हमले के दोषी आतंकी याकूब मेनन को फांसी हुई। आज एक साल बाद देश फिर उसी मुहाने पर खड़ा है। पाकिस्तान के मशहूर समाजसेवी अब्दुल ईदी सत्तार का हाल ही में निधन हुआ है और काश्मीर में हिजबुल के कमांडर बुरहान वानी को सेना ने एक मुठभेड़ में मार गिराया है। एक साल के अन्दर हुईं इन दो घटनाओं की तुलना इसलिए करनी पड़ रही है क्योंकि इन दोनों घटनाओं में काफी समानताएं भी हैं। पहली समानता ये कि उस समय भी एक कालखंड में दो मुसलमान मरे थे और आज भी दो मुसलमान ही मरे हैं। उस दौरान भी पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम की तुलना में आतंकी याकूब को इस देश के तथाकथित सेक्युलर ब्रिगेड ने ज्यादा तरजीह दिया और आज भी भारत की बेटी गीता को जिन्दगी देने वाले सत्तार की तुलना में आतंकी बुरहान के नाम पर देश का सेक्युलर खेमा आंसू बहा रहा है। भीड़ याकूब के जनाजे में भी जुटी थी और भीड़ आतंकी बुरहान के जनाजे में भी जमकर जुटी। आतंकियों की तुलना में कलाम साहब को भी कम तरजीह दी गयी और आज सत्तार को बुरहान की तुलना में बहुत कम जगह मिली है।
25 अक्टूबर 1944 को डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी द्वारा वी.डी सावरकर को लिखे गये एक पत्र का उद्धरण यहाँ जरुरी है। पत्र से स्पष्ट पता चलता है कि डॉ मुखर्जी ने रामनाथ गोयनका के साथ मिलकर एक ‘द नेशनलिस्ट’ नाम से एक अंग्रेजी दैनिक अख़बार निकालने और उसमे सावरकर से लेख आदि भेजने की बात कही थी। इस पत्र का उद्धरण इसलिए दिया क्योंकि वर्तमान में राष्ट्र की एकता के खिलाफ खड़े होने वालों के लिए सहानुभूति रखने वाले तमाम मीडिया समूहों में से एक वह मीडिया समूह भी है जिसकी नींव रामनाथ गोयनका ने रखी थी। रामनाथ गोयनका 1944 में राष्ट्र की अखंडता के लिए समर्पित हिन्दू महासभा के नेता डॉ मुखर्जी के साथ मिलकर राष्ट्रवादी विचारधारा का अंग्रेजी दैनिक ‘द नेशनलिस्ट’ निकाल रहे थे और आज उन्हीं के द्वारा स्थापित मीडिया समूह सर्वोच्च न्यायलय के फैसले पर फांसी की सजा पाए आतंकी के लिए लिख रहा है, ‘एंड दे हैंग्ड याकूब’!
याकूब की फांसी की रात इस देश के तथाकथित मानवाधिकार वादी बुद्धिजीवी और मीडिया का सेक्युलर खेमा उस आतंकी को बचाने के लिए रात भर जागता रहा, लेकिन अंतत: उसे उसके किये की सजा भुगतनी पड़ी। जब देश अपने प्रिय अब्दुल कलाम के गम में गमगीन था तो उसी समय अंग्रेजी का एक बड़ा अखबार 31 जुलाई याकूब की फांसी के बाद हेडिंग लगाता है, ‘….एंड दे हैंग्ड याकूब’। उस अखबार के सम्पादक से यह सवाल पूछा जाना चाहिए कि इस हेडलाइन में ‘दे’ कौन है, देश का क़ानून अथवा सुप्रीम कोर्ट ? आज बुरहान के मामले में भी इस अखबार का रुख वैसा ही नजर आया। उक्त अखबार के फेसबुक पेज पर 9 तारीख को पूरे दिन बुरहान के जनाजे की तस्वीर को कवर पेज बनाकर मानो उसे श्रद्धांजलि दी गयी हो। तमाम बड़े पत्रकार आतंकी बुरहान के लिए ट्वीटर पर आंसू बहाते नजर आये। कुछ चैनल आतंकी बुरहान के नाम के आगे ‘आतंकवादी’ शब्द प्रयोग करने से बचते रहे। ऐसे में बड़ा सवाल यह उठता है कि हमारे सेना के जवान बेहद दुर्गम परिस्थितियों में जहाँ देश की सुरक्षा के लिए रोज मुश्किल हालातों का सामना करते है वहीँ ये चंद तथाकथित बुद्धिजीवी आतंकियों के समर्थन में खड़े हो जाते हैं! ऐसा क्यों ?
मानवाधिकार के नाम पर राष्ट्र के विभाजन का एजेंडा चलाने वालों का समर्थन कतई नहीं किया जा सकता है। यह बहस अब होनी चाहिए और हो भी रही है कि क्या आतंकवादी का भी मानवाधिकार होता है या नहीं ? जो स्वभाव और चरित्र में मानव ही नहीं हो, उसका मानवाधिकार कैसा ? इसमें कोई शक नहीं कि देश में लेखकों, बुद्धिजीवियों, पत्रकारों अर्थात मीडिया का यह दायित्व है कि वो जनहित में आवाज उठाये, सरकारों की गलत नीतियों का विरोध करे, लेकिन इसका अर्थ यह कतई नहीं है कि किसी विचारधारा के समर्थन अथवा किसी विचारधारा के विरोध में आप राष्ट्र की अस्मिता को ताक पर रखकर आतंकियों के समर्थन में उतर जाएँ। राष्ट्र को एक रखने की अवधारणा तो मीडिया के दायित्वों में से एक है। 25 अक्टूबर 1944 को डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी द्वारा वी.डी सावरकर को लिखे गये एक पत्र का उद्धरण यहाँ जरुरी है। पत्र से स्पष्ट पता चलता है कि डॉ मुखर्जी ने रामनाथ गोयनका के साथ मिलकर एक ‘द नेशनलिस्ट’ नाम से एक अंग्रेजी दैनिक अख़बार निकालने और उसमे सावरकर से लेख आदि भेजने की बात कही थी। इस पत्र का उद्धरण इसलिए दिया क्योंकि वर्तमान में राष्ट्र की एकता के खिलाफ खड़े होने वालों के लिए सहानुभूति रखने वाले तमाम मीडीया समूहों में से एक वह मीडिया समूह भी है जिसकी नींव रामनाथ गोयनका ने रखी थी। रामनाथ गोयनका 1944 में राष्ट्र की अखंडता के लिए समर्पित हिन्दू महासभा के नेता डॉ मुखर्जी के साथ मिलकर राष्ट्रवादी विचारधारा का अंग्रेजी दैनिक ‘द नेशनलिस्ट’ निकाल रहे थे और आज उन्हीं के द्वारा स्थापित मीडिया समूह सर्वोच्च न्यायलय के फैसले पर फांसी की सजा पाए आतंकी के लिए लिख रहा है, ‘एंड दे हैंग्ड याकूब’! हालांकि आतंकियों के समर्थन में खड़े होने वाली कतार में बड़ी संख्या उन लोगों की है जो तुलनात्मक अतिवाद के साथ खुद को मोदी सरकार का सबसे बड़ा विरोधी अथवा सबसे बड़ा मानवाधिकारवादी साबित करने की कोशिश में हैं। देश की राजनीतिक परिस्थितियां कुछ ऐसी बन गयीं हैं कि ‘मोदी इज मुद्दा और मुद्दा इज मोदी’ हो गया है। राजनीतिक एवं समाजिक स्तर पर हर छोटे-बड़े घटनाक्रम को मोदी से जोड़ने की बुरी लत देश के बुद्धिजीवियों को लग गयी है। हर घटना के बहाने मोदी विरोध की नीति को लागू करने एवं इस एजेंडे को आगे बढाने का कोई मौका ‘मोदी विरोधी खेमा’ छोड़ना नहीं चाहता, बेशक इसके लिए उन्हें बुरहान जैसे आतंकी का ही समर्थन क्यों न करना पड़े। सबसे बड़ा मोदी विरोधी और मुस्लिम तुष्टिकरण का पैरोकार बनने की इस होड़ ने कुछ लोगों को इस स्तर का अंधविरोधी बना दिया है कि उनके लिए पहला और अंतिम कर्तव्य मोदी का विरोध करना भर है। वे चाहते हैं कि यह साबित होता रहे है कि मोदी की सरकार में अस्थिरता है, मुसलमान सुरक्षित नहीं हैं, मानवाधिकार बचा नहीं है। चूँकि जबतक नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री नहीं बने थे तब तक इन बुद्धिजीवियों द्वारा यही सब डर दिखाया जाता था। अब जब मोदी को प्रधानमंत्री बने दो साल हो गये और सब कुछ सामान्य चलने लगे, जनता आज भी मोदी को सबसे लोकप्रिय नेता मान रही है, ऐसे में इनकी चिंता अपने चुनाव पूर्व के दावों को सही साबित करने को लेकर है। राजनीतिक तौर पर अथवा विचारधारा के स्तर पर इस देश में न तो कोई कम्युनिस्ट बचा है और न ही कोई सोशलिस्ट बचा है और न ही कांग्रेसी ही बचा है। दो ही विचारधाराएँ देश में चल रही हैं, पहली मोदी समर्थन की और दूसरी मोदी विरोध की। मोदी समर्थन की विचारधारा स्थायी है क्योंकि इस विचार के लोग मोदी के साथ हैं लेकिन दूसरी विचारधारा की स्थिति ‘बेपेंदी के लोटे’ जैसी हो गयी है। वे बिहार में लालू के साथ हैं, दिल्ली में किसी और के साथ, बंगाल में किसी और के साथ और काश्मीर में आतंकी बुरहान के साथ खड़े हैं। लिहाजा दूसरे खेमे की अपनी कोई विचारधारा नहीं बची है सिवाय हर शर्त पर मोदी विरोध करने की। आतंकियों के समर्थन से लेकर असहिष्णुता तक सारी कवायदें इसी एजेंडा का हिस्सा है। वरना जो बुरहान वानी घोषित तौर पर हिजबुल मुज्जहिद्दीन का कमांडर था, उसके लिए सहानुभूति रखने की क्या वजह हो सकती है ?
हालांकि जब भी इस देश में सही और गलत का चुनाव करने का मौका आता है, तब तब इस देश का सेक्युलर खेमा उस ओर जाकर खड़ा हो जाता है जो देश की एकता और अखंडता के लिए खतरा है। यही इस देश के तथाकथित बुद्धिजीवियों का बुनियादी चरित्र है। मुठभेड़ में मारे गये आतंकी के जनाजे में शामिल भीड़ को देखकर हमें चिंता नहीं है, क्योंकि ये सबको पता है कि काश्मीर अभी भी अलगाववादी राजनीति का दंश झेल रहा है। लेकिन चिंता इस बात की है कि निजी हितों के जिद में देश का यह सेक्युलर खेमा और किस हद तक जाएगा और कहाँ जाकर ठहरेगा ? फिलहाल तो राष्ट्रविरोधी अतिवादियों के बीच खुली प्रतिस्पर्धा चल रही है, तुम बड़े या मै की!
(लेखक डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी रिसर्च फाउन्डेशन में रिसर्च फेलो हैं एवं नेशनलिस्ट ऑनलाइन . कॉम के सम्पादक हैं )