भारत के इतिहास में यह पहला ऐसा दौर है जब वैश्विक संगठनों, वैश्विक मंचों और बहुराष्ट्रीय घटनाक्रमों में भारत मात्र मूकदर्शक नहीं बल्कि इनका सक्रिय भागीदार है। भारत ने यह भी साफ कर दिया कि पश्चिमी देशों के पिछलग्गू बनने के बजाय हम अपने राष्ट्रीय हितों की चिंता करेंगे। यूक्रेन-रूस युद्ध में पश्चिमी देशों के दबाव के बावजूद भारत ने संयुक्त राष्ट्र संघ में रूस के विरुद्ध मतदान नहीं किया। इतना ही नहीं, भारत ने पश्चिमी देशों के दोहरे आचरण को भी उजागर किया।
केंद्र में नरेंद्र मोदी सरकार ने अपने आठ वर्ष पूरे कर लिए हैं। नरेंद्र मोदी के इस आठ वर्षीय कार्यकाल के दौरान जिन क्षेत्रों में महत्वपूर्ण बदलाव आए हैं, उनमें विदेश नीति प्रमुख है। नरेंद्र मोदी की विदेश नीति पर कोई भी राय रखने से पहले इस बात पर विचार करना जरूरी है कि मई 2014 में केंद्र में भाजपा की सरकार बनने से पहले दस वर्षों तक यूपीए सरकार में और कुल मिलाकर आजादी के बाद हमारी विदेश नीति की दिशा और दशा क्या रही है।
सबसे पहले पूर्ववर्ती यूपीए सरकार का कार्यकाल देखते हैं। यूपीए सरकार के पहले कार्यकाल में अमेरिकी परमाणु सहयोग की शुरुआत हुई और भारत-अमेरिका परमाणु संधि पर हस्ताक्षर किए गए। विदेश नीति में इस एकमात्र उल्लेखनीय कार्य के अलावा यूपीए सरकार के दस वर्ष के कार्यकाल में ऐसी कोई उम्मीद नहीं बंधती जिससे लगे कि भारत की तत्कालीन विदेश नीति से देश की सुरक्षा और अर्थव्यवस्था को मजबूती मिली।
स्वतंत्रता के बाद से ही भारत अपने दो पड़ोसी देशों चीन और पाकिस्तान से सुरक्षा संबंधी चुनौतियां झेल रहा है। चीन और पाकिस्तान दोनों का ही हमारी सीमाओं पर आक्रामक रुख है, वहीं पाकिस्तान राज्य प्रायोजित आतंकवाद से भी भारत में अशांति पैदा करता रहा है। मोदी सरकार की वर्तमान विदेश नीति पर टिप्पणी करने से पहले यह जानना जरूरी है कि चीन के विस्तारवाद और पाकिस्तान के आतंकवाद के प्रति मनमोहन सरकार का क्या रवैया रहा?
2008 में मुंबई ने पाकिस्तान प्रायोजित हिंसा की विभीषिका झेली। इस सिलसिलेवार हमले में 178 लोग मारे गए और 308 लोग घायल हो गए। 2013 में पाकिस्तान की कुख्यात ‘बैट’ टीम ने भारत की जमीन में घुसपैठ करके भारतीय सैनिकों की हत्या की और नृशंसता की सीमाएं लांघते हुए पाकिस्तानी सैनिक उनका सिर तक काटकर साथ ले गए। इन सब मामलों में तत्कालीन सरकार ने डोजियर सौंपने और ‘कड़ी निंदा’ करने के अलावा ऐसा कुछ भी नहीं किया जिससे देश की सुरक्षा के प्रति सरकार की गंभीरता झलके।
चीन के मामले में, यूपीए के दस वर्षों के कार्यकाल के दौरान चीन एक तरफ हमारी सीमाओं पर लगातार आक्रामक बना रहा, वहीं इससे हमारा व्यापार घाटा भी 2014 तक 37 बिलियन अमेरिकी डालर तक पहुंच गया जबकि 2005 में हमारा व्यापार संतुलन भारत के लिए लाभ की स्थिति में था। इन सब के बावजूद भारत का चीन के प्रति रवैया समर्पण का था। हालात यहां तक थे कि 2007 में चीन की नाराजगी की वजह से कांग्रेस सरकार ने अमेरिका और जापान के साथ मालाबार नौसेना अभ्यास में भारत की भागीदारी सीमित कर दी। अक्तूबर 2015 में भाजपा सरकार ने इस नौसेना अभ्यास को फिर से बहु-पक्षीय बनाया।
आइए, इस पृष्ठभूमि में 2014 से नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में केंद्र में कार्यरत भाजपा सरकार के कामों पर गौर किया जाए। 2014 में शपथ ग्रहण के दौरान नवाज शरीफ को निमंत्रण भेजा गया और 2015 में काबुल से लौटते समय मोदी अचानक पाकिस्तान पहुँच गए तो यह और कुछ नहीं, शांतिपूर्ण संबंधों के लिए किए जाए वाले कूटनीतिक प्रयास थे। हालांकि इन कूटनीतिक प्रयासों की विफलता के बाद मोदी सरकार ने साफ कर दिया कि देश की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए यदि यह सरकार बातचीत कर सकती है तो ईंट का जवाब पत्थर से भी दे सकती है।
2016 के स्वतंत्रता दिवस संबोधन में ब्लूचिस्तान स्वतंत्रता संघर्ष का उल्लेख करके पहली बार वैचारिक रूप से पाकिस्तान के कब्जे वाली जमीन पर अपना दखल जताया गया। फिर इसी वर्ष सितंबर में उड़ी में आतंकवादी हमले में 19 सैनिकों की मृत्यु के बाद इस देश के किसी प्रधानमंत्री ने पहली बार ‘कड़ी निंदा’ करने के बजाय देश को आश्वस्त किया कि इस हमले के जिम्मेदार लोग बख्शे नहीं जाएंगे।
अंततः आतंकवादी अड्डों पर सर्जिकल स्ट्राइक से पड़ोसी देश को चेताया गया कि भारत की नई सरकार देश पर हमले की स्थिति में कड़ा जवाब देगी। फिर फरवरी 2019 में पुलवामा हमले के बाद की गई एयर स्ट्राइक से भारत ने साफ कर दिया कि उड़ी के बाद हुई सर्जिकल स्ट्राइक अपवाद नहीं बल्कि नए भारत की सोची-समझी रणनीति है।
चीन के मामले में मोदी सरकार ने पहले दिन से ही सीमाओं पर आधारभूत संरचना के विकास और व्यापार घाटा घटाना रणनीतिक जरूरत के रूप में समझा है। पहले सिक्किम और फिर डोकलाम में चीन के हमलावर रुख के बाद भारत पहली बार अपनी जगह पर मजबूती से खड़ा था। इस सरकार ने यह समझ लिया है कि चीन की असली ताकत उसकी सेना नहीं बल्कि अर्थव्यवस्था है। चीन की विस्तारवादी नीतियों की प्रतिक्रिया में वर्तमान केंद्र सरकार ने अमेरिका, जापान, आस्ट्रेलिया और भारत की सदस्यता वाले क्वाड समूह को सैन्य और आर्थिक दोनों क्षेत्रों में सहयोग का केंद्रबिंदु बनाया है।
विश्व के कुल सकल घरेलू उत्पाद में से 40% की हिस्सेदारी रखने वाले देशों में समझ बनी है कि हिंद-प्रशांत क्षेत्र में चीन द्वारा आधिपत्य जमाने के प्रयासों से निपटने का एकमात्र रास्ता यही है कि उसे सैन्य के साथ-साथ आर्थिक स्तर पर भी अलग-थलग किया जाए। इसलिए हिंद-प्रशांत आर्थिक ब्लॉक में 13 देशों को शामिल किया गया है ताकि आपूर्ति श्रृंखला, आर्थिक गतिविधियों, स्वच्छ ऊर्जा और कर सुधार एवं भ्रष्टाचार उन्मूलन में विभिन्न देशों में ऐसी सहयोगात्मक व्यवस्था स्थापित की जाए जिससे चीन बाहर हो।
देश में भी सरकार ने मेक इन इंडिया, उत्पादन लिंक्ड प्रोत्साहन योजना, चीन में बने इलेक्ट्रिक वाहनों पर 60-100% कस्टम ड्यूटी और सेमी-कंडक्टर उत्पादन को प्रोत्साहित करने जैसे ऐसे कई कदम उठाए हैं ताकि देश आत्मनिर्भर बने और चीन पर हमारी निर्भरता कम हो।
यदि पिछले आठ वर्षों में मोदी सरकार की विदेश नीति को चीन और पाकिस्तान के चश्मे के बजाय वैश्विक स्तर पर देखा जाए तो भारत के इतिहास में यह पहला ऐसा दौर है जब वैश्विक संगठनों, वैश्विक मंचों और बहुराष्ट्रीय घटनाक्रमों में भारत मात्र मूकदर्शक नहीं बल्कि इनका सक्रिय भागीदार है। भारत ने यह भी साफ कर दिया कि पश्चिमी देशों के पिछलग्गू बनने के बजाय हम अपने राष्ट्रीय हितों की चिंता करेंगे। यूक्रेन-रूस युद्ध में पश्चिमी देशों के दबाव के बावजूद भारत ने संयुक्त राष्ट्र संघ में रूस के विरुद्ध मतदान नहीं किया। इतना ही नहीं, भारत ने पश्चिमी देशों के दोहरे आचरण को भी उजागर किया।
जब रूस से तेल खरीदने के लिए भारत की आलोचना की गई तो विदेश मंत्री एस जयशंकर ने साफ कर दिया कि भारत पूरे महीने में रूस से जितना तेल खरीदता है, उतना तेल यूरोप आधे दिन में खरीद लेता है। भारत ने साफ कर दिया कि जिन देशों के पास तेल के भरपूर भंडार हैं, वे हमें यह नहीं सिखाएं कि हम तेल कहां से खरीदें। मानवाधिकारों और धार्मिक स्वतंत्रता के नाम पर अमेरिका में और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भारत विरोधी कुप्रचार करने वाले थिंक टैंकों को भी आईना दिखाया गया।
प्रधानमंत्री मोदी के इजरायल दौरे ने भारत के लिए इजरायल के महत्व को रेखांकित किया। मोदी 2017 में इजरायल की यात्रा करने वाले भारत के पहले प्रधानमंत्री बने। सरकार ने विदेश संबंधों में पहली बार इजरायल को वह महत्व दिया जिसका वह हकदार है। आज तक भारत की सरकारों का इजरायल के प्रति रवैया देश के हितों के बजाय घरेलू राजनीतिक गणनाओं पर टिका रहा है। विदेश नीति को मुस्लिम वोट बैंक के हाथों बंधक रखकर हम इजरायल की अनदेखी करते रहे हैं।
मोदी सरकार ने स्पष्ट किया कि मुस्लिम देशों या फिलस्तीन से मित्रता का अर्थ यह नहीं है कि हम इजरायल की अनदेखी करें। प्रधानमंत्री मोदी की इस यात्रा से वस्तुतः 1948 में देश के रूप में इजरायल के अस्तित्व में आने के बाद से ही भारत की विदेश नीति में व्याप्त दुविधा का अंत हुआ है। हमारे संकट में सदैव हमारे साथ खड़े रहे अपने मित्र देश को हमने वह सम्मान दिया जिसका वह हकदार है।
अंततः नरेंद्र मोदी के इन आठ वर्षों और वाजपेयी सरकार के छह वर्षों के कार्यकाल सहित स्वतंत्रता के बाद इस देश की 67 वर्षों की विदेश नीति में बदला क्या है। बदलाव देश की सोच में है। हम आक्रमण झेलकर चुप रहने के बजाय अब प्रत्याक्रमण में गर्व महसूस करते हैं। पहली बार हमारी विदेश नीति वैचारिक खेमों की घेरेबंदी और संशय से निकलकर हमारे आर्थिक-सामरिक उद्देश्यों की पूर्ति का प्रभावी साधन बनी है।
(लेखिका डीआरडीओ में कार्यरत रह चुकी हैं। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन एवं अनुवाद में सक्रिय हैं। प्रस्तुत विचार उनके निजी हैं।)