इंदिरा का आपातकाल और सेक्युलरिज्म

शिवानन्द द्विवेदी

जून महीने की 25 तारीख को भारतीय लोकतंत्र के काला दिवस के रूप में आज भी याद किया जाता है। यही वो तारीख है जब एक नए-नवेले o-INDIRA-GANDHI_EMERGENCY-1975-facebook (1)लोकतंत्र को पारिवारिक तानाशाही की सियासत ने कलंकित किया था। 25 जून  को आधी रात में जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी देश में आपातकाल थोप रहीं थी तब हमारा लोकतंत्र महज ढाई दशक पुराना हुआ था। आपातकाल के दौरान न सिर्फ लोकतंत्र की हत्या हुई थी बल्कि संविधान के मूल अर्थात उसकी प्रस्तावना को भी तार-तार करने की हर कोशिश को असंवैधानिक ढंग से अंजाम दिया गया था। संविधान के अनुच्छेद 39 से 42 तक उस समय की तानाशाह सरकार ने मनमाने संशोधन किये। इसी दौरान संविधान की प्रस्तावना में ‘सेक्युलरिज्म’ शब्द भी जोड़ा गया।  इस पूरे मसले को जानने के लिए यह देखना जरूरी होगा कि आखिर संविधान की प्रस्तावना में ये शब्द जुड़े कैसे और इनको जोड़ने की प्रक्रिया क्या रही। दरअसल जब 26 जनवरी, 1950 को भारत का संविधान लागू हुआ था, उस दौरान प्रस्तावना में लिखा था, ‘हम भारत के लोग भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्व संपन्न लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए तथा उसके समस्त नागरिकों को़ आत्मर्पित करते हैं!’ लेकिन संविधान लागू होने के ढाई दशक बाद जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने देश पर अपनी तानशाही का आपातकाल थोपा था और देश के सभी गैर-इंदिरा समर्थक नेता जबरन जेल में ठूंस दिए गए थे, तभी सन् 1976 में इंदिरा गांधी ने संविधान की मूल प्रस्तावना में असंवैधानिक ढंग से छेड़-छाड़ करते हुए ‘सेक्युलर’ व ‘समाजवादी’ सहित तीन शब्दों को जोड़ दिया। दरअसल भारत के संविधान की प्रस्तावना में हुई यह छेड़-छाड़ न तो जनता की मांग थी और न ही देश की जरूरत ही थी। यह अवैध संशोधन पूरी तरह से तानाशाह इंदिरा गांधी की जिद और सियासी स्वार्थ की परिणति था। बड़ा सवाल यह है कि जब देश आजाद हुआ और संविधान सभा ने संविधान की प्रारूप समिति के अध्यक्ष डा. भीमराव अम्बेडकर एवं राजेन्द्र प्रसाद सरीखे लोगों के नेतृत्व में संविधान निर्माण शुरू किया, तब भी उन्हें इन शब्दों की जरूरत प्रस्तावना में महसूस नहीं हुई थी। हालांकि तब नेहरू व जिन्ना की सियासी जिद ने देश को मजहब के नाम पर बांट जरुर दिया था, बावजूद इसके भारत के सामाजिक चरित्र व संस्कृति को ‘सेक्युलर’ शब्द की जरूरत नही पड़ी थी। ..तो क्या ऐसा कहा जाय कि वे संविधान निर्माता ‘गैर-सेक्युलर’ थे? क्या 26 जनवरी, 1950 से लेकर 1976 तक भारत एक ‘गैर-सेक्युलर स्टेट’ था, जो इन शब्दों को जोड़ देने मात्र से ‘सेक्युलर’ हो गया? आखिर इस संशोधन का निहितार्थ क्या था? सभी जानते हैं कि आपातकाल के दौर में इंदिरा गांधी ने लोकतंत्र का गला घोंटते हुए संविधान के 42वें संशोधन के तौर पर ‘सेकुलरिज्म’ एवं ‘समाजवाद’ शब्दों को संविधान की प्रस्तावना में जोड़ दिया था। दरअसल वह इंदिरा गांधी की तानाशाही का दौर था। चूंकि हर तानाशाह का उद्देश्य होता है कि वह विरोध के स्वरों को दबा दे एवं आम जनमानस से अपने बारे में अच्छा दृष्टिकोण प्राप्त करे, इसलिए इंदिरा गांधी का उद्देश्य भी यही था। अगर देखा जाय तो 42वें संशोधन में संविधान की प्रस्तावना में इन दो शब्दों को जोड़ने के अलावा भी बहुत बड़ा हिस्सा बदल दिया गया था। ऐसे समय में जब विपक्ष नहीं हो, कोई बहस न हुई हो, तो संविधान की प्रस्तावना को बदल देना पूरे संविधान के साथ खिलवाड़ कहा जाएगा। हालांकि जब जनता पार्टी की सरकार बनी तो उसने 45वें संशोधन से आपातकाल के दौरान हुए कई संशोधनों को बदल दिया, लेकिन प्रस्तावना में हुए संशोधन को नहीं बदला। उन्हें इसे भी बदल देना चाहिए था! वैसे इन दो शब्दों को इंदिरा गांधी ने अनावश्यक ही जोड़ा था, इनकी कोई जरूरत नहीं थी। हमारे संविधान में समानता व सर्वधर्म समभाव पहले से है। इस पर संविधान निर्माण के दौरान भी चर्चा हुई, लेकिन इसकी जरूरत नहीं महसूस की गयी थी।

दरअसल भारतीय संविधान में यह संशोधन ही शक्ति का बेजा इस्तेमाल करके एवं लोकतंत्र को हाशिये पर रखकर किया गया था। चूंकि अपनी खिसकती राजनीतिक जमीन एवं देश की राजनीति में उठ चुके कांग्रेस-विरोधी स्वरों का भान इंदिरा गांधी को हो चुका था, उन्हें इस बात का आभास भी हो चुका था कि अब देश में कांग्रेस की राजनीतिक विचारधारा के सामानांतर एक प्रतिवादी विचारधारा का विकास हो रहा है, लिहाजा उन्होंने अपने राजनीतिक हितों के भविष्य को सुरक्षित करने के लिए इन दोनों ही शब्दों को आपातकाल के उस विपरीत दौर में भी संविधान में शामिल करा दिया। तत्कालीन राजनीतिक परिस्थिति के लिहाज से देखा जाये तो इंदिरा गांधी द्वारा किये गये इन संशोधनों की आड़ में कहीं न कहीं कांग्रेस आज तक ‘सेकुलरिज्म’ की राजनीति करती आई है। ऐसा नहीं है कि 42वें संशोधन के तहत महज यही एक बदलाव हुआ। इसके अलावा भी केंद्र की तानाशाही से जुड़े कई संशोधन एवं न्यायपालिका की शक्तियों में हस्तक्षेप की कोशिश भी तब इंदिरा गांधी सरकार द्वारा की गयी थी। मसलन अनुच्छेद 352 के तहत आपातकाल लगाने के प्रावधानों में भी बदलाव किया गया था। हालांकि आपातकाल के बाद आई जनता पार्टी सरकार ने तमाम संशोधनों को निरस्त कर दिया।  इस शब्द की आड़ में एक बड़ा भ्रम फैलाया गया है कि चूंकि संविधान में ‘सेक्युलर’ शब्द का जिक्र है, लिहाजा भारत के हर नागरिक को सेकुलर होना चाहिए। जबकि यह पूरी तरह से गलत अवधारणा है। सीधी सी बात है कि व्यक्ति न तो सेक्युलर होता है और न ही भारत का संविधान किसी व्यक्ति के लिए सेक्युलर होने की शर्त रखता है।

‘सेक्युलरिज्म ‘ का सीधा संबंध राज्य एवं उस राज्य के संविधान से है। संविधान व राज्य सेकुलर हो सकते हैं, अथवा नहीं हो सकते हैं। मसलन भारत एक पंथनिरपेक्ष राज्य है, जबकि पाकिस्तान एक इस्लामिक राज्य है। राज्य एवं उसका कानून धर्म व मजहब आधारित भेद अपने नागरिकों के लिए न करे, यही ‘राज्य का सेकुलरिज्म’ है। मगर कोई व्यक्ति सेकुलर हो सकता है, यह तर्क समझ से परे है! इसमें कोई शक नही कि भारत आदिकाल से सर्वधर्म सदभाव व सबका सम्मान करने वाला राष्ट्र है। चूंकि एक राष्ट्र के तौर पर इसकी संस्कृति हिन्दू संस्कृति रही है अत: इसे हिन्दू राष्ट्र कहा जाना गलत नहीं है। लेकिन जब भी बात हिन्दू राष्ट्र की होती है, तब-तब ‘सेक्युलरिज्म’ के कथित पैरोकार इस भ्रम को हवा देने लगते हैं कि ‘हिन्दू राष्ट्र’ की वकालत संविधान की प्रस्तावना के खिलाफ है। जबकि सचाई यह है कि राष्ट्र और राज्य दोनों अलग-अलग अर्भें वाली संज्ञाएं हैं। राज्य जहां संविधान संचालित होता है वहीं राष्ट्र का निर्माण उस भूभाग की संस्कृति से होता है। इतिहास की पृष्ठभूमि पर जाकर भी यदि भारत के संदर्भ में देखें तो राज्य का अस्तित्व समय के साथ-साथ बदलता रहा है, जबकि एक राष्ट्र के तौर पर यह हजारों सालों से हिन्दू संस्कृति का राष्ट्र रहा है। यह कहना गलत नहीं होगा कि भारत का हिन्दू संस्कृति का राष्ट्र होना इसके सफल ‘सेक्युलर स्टेट’ होने की बड़ी वजह है। वरना दुनिया में तमाम इस्लामिक राष्ट्रों में ‘स्टेट’ की स्थिति कैसी है, यह किसी से छुपा नहीं है। चूंकि भारत की हिन्दू संस्कृति के चरित्र में ही एक सर्वधर्म समभाव वाले राज्य की संभावना आदिकाल से रही है, लिहाजा संविधान की प्रस्तावना में ‘सेकुलर’ शब्द और जोड़ने का औचित्य नहीं था। यह संशोधन अपने राजनीतिक हितों की पूर्ति के उद्देश्यों से ही अर्जित किया गया था।

(लेखक डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी शोध अधिष्ठान में रिसर्च फेलो हैं)