राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का मानना है कि भारतीय चिंतन के आधार पर प्रतिपादित विचार ‘एकात्म मानवदर्शन’ ही दुनिया को सभी प्रकार के संकटों का समाधान दे सकता है। संघ की अखिल भारतीय कार्यकारी मंडल ने हैदराबाद की बैठक में इस आशय का प्रस्ताव रखा है। संघ का मानना है कि आज विश्व में बढ़ रही आर्थिक विषमता, पर्यावरण-असंतुलन और आतंकवाद मानवता के लिए गंभीर चुनौती का कारण बन रहे हैं। अनियंत्रित पूँजीवाद और वर्ग-संघर्ष की साम्यवादी विचारधाराओं को अपनाने के कारण ही विश्वभर में बेरोजगारी, गरीबी और कुपोषण की समस्याएं सुलझ नहीं सकी हैं। विविध देशों में बढ़ते आर्थिक संकट और विश्व के दो-तिहाई से अधिक उत्पादन पर चंद देशों की बहुराष्ट्रीय कंपनियों का आधिपत्य आदि समस्याएं अत्यन्त चिंताजनक हैं। एकात्म मानवदर्शन के अनुसरण से संसार के इन संकटों का समाधान सहजता से संभव है। संघ ने अपने प्रस्ताव में कहा है कि चर-अचर सहित समग्र सृष्टि के प्रति लोक-मंगल की प्रेरक एकात्म दृष्टि के साथ सम्पूर्ण जगत के पोषण का भाव ही ‘एकात्म मानवदर्शन’ आधार है।
एकात्म मानव-दर्शन में परस्पर निर्भरता की बात कही गई। सबको एक-दूसरे के साथ एकात्म मानकर विचार किया गया। व्यक्ति, परिवार, समाज, प्रदेश, देश, दुनिया और ब्रह्माण्ड सब एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं, सबको एक तत्व जोड़ता है, सब परस्पर निर्भर हैं। इसलिए जब व्यक्ति एकात्म मानवदर्शन को आत्मसात कर व्यवहार करेगा, तब वह किसी को भी चोट नहीं पहुँचाएगा, बल्कि अधिक से अधिक रचनात्मक कार्यों में संलग्र रहेगा। इसलिए संघ का यह कहना उचित ही है कि पारिवारिक विघटन, मानसिक तनाव, अवसाद, प्रकृति का शोषण, प्राकृतिक आपदा, प्रदूषण, जल संकट और जीव प्रजातियों के विलोपन जैसे गंभीर संकटों का समाधान एकात्म मानवदर्शन में निहित है।
संघ का यह कथन इसलिए उचित प्रतीत होता है, क्योंकि साम्यवादी विचार को दुनिया आजमा चुकी है। यह विचार समाज के संकटों को समाप्त तो नहीं कर सका, बल्कि इसके कारण समस्याएं बढ़ ही गईं। इसका परिणाम यह हुआ कि जहाँ भी प्रारंभ में साम्यवादी विचार का प्रभावशाली हुआ था, उन सभी स्थानों पर वह आज की स्थिति में अप्रासंगिक हो चुका है। कमोबेश यही हाल पूँजीवादी विचारधारा का है। पूँजीवादी व्यवस्था भी मानव समाज के हित में नहीं है। पूँजीवादी विचार ने भी सामाजिक असंतोष, अन्याय और असमानता को बढ़ाया ही है। दरअसल, यह दोनों ही विचारधाराएँ अपूर्ण चिंतन पर आधारित हैं। यह विचारधाराएँ मनुष्य, समाज और सृष्टि को बाँटकर देखती हैं। समग्र दृष्टिकोण के अभाव में यह विचारधाराएँ असफल साबित हुई हैं। यह विचारधाराएँ यह भी समझने में असफल रही हैं कि मनुष्य केवल ‘सामाजिक प्राणी (सोशल एनिमल)’ नहीं है। व्यक्ति की भौतिक आवश्यकताओं को केंद्र में रखकर विचार करने के कारण यह विचारधाराएँ सम्पूर्णता की ओर नहीं बढ़ सकीं। बल्कि भौतिकता के आधार पर बनी जीवनदृष्टि के कारण परिवार का विघटन शुरू हुआ। समाज-सरोकार पीछे छूट गए। अपनी भौतिक आवश्यकताओं के लिए प्रकृति का दोहन किया जाने लगा। मनुष्य आत्मकेंद्रित हो गया और मात्र अपने सुख की चिंता का अभ्यस्त हो गया।
जिस समय न केवल दुनिया में बल्कि भारत में भी इन विचारधाराओं का वर्चस्व था, खासकर साम्यवादी विचारधारा का, तब संघ के द्वितीय संघचालक माधव सदाशिव राव गोलवलकर ने पंडित दीनदयाल उपाध्याय को यह जिम्मेदारी सौंपी थी कि वह प्रकृति के अनुकूल विचारदर्शन प्रस्तुत करें। इसके बाद ही पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने एकात्म मानवदर्शन जैसा सम्पूर्ण विचारदर्शन दुनिया के समक्ष प्रस्तुत किया। एकात्म मानवदर्शन में परस्पर निर्भरता की बात कही गई। सबको एक-दूसरे के साथ एकात्म मानकर विचार किया गया। व्यक्ति, परिवार, समाज, प्रदेश, देश, दुनिया और ब्रह्माण्ड सब एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं, सबको एक तत्व जोड़ता है, सब परस्पर निर्भर हैं। इसलिए जब व्यक्ति एकात्म मानवदर्शन को आत्मसात कर व्यवहार करेगा, तब वह किसी को भी चोट नहीं पहुँचाएगा, बल्कि अधिक से अधिक रचनात्मक कार्यों में संलग्र रहेगा। इसलिए संघ का यह कहना उचित ही है कि पारिवारिक विघटन, मानसिक तनाव, अवसाद, प्रकृति का शोषण, प्राकृतिक आपदा, प्रदूषण, जल संकट और जीव प्रजातियों के विलोपन जैसे गंभीर संकटों का समाधान एकात्म मानवदर्शन में निहित है। एकात्म मानवदर्शन का पालन करने से इन सब समस्याओं के समाधान अलग से खोजने की जरूरत नहीं पड़ेगी।
आतंकवाद के गंभीर खतरे का हल भी संघ एकात्म मानवदर्शन में देखता है। आरएसएस का कहना है कि आज संपूर्ण विश्व में मजहबी कट्टरता एवं अतिवादी राजनैतिक विचारधाराओं से प्रेरित आतंकवाद विकराल रूप धारण कर चुका है। इसका निवारण एकात्म मानव दर्शन में है। व्यक्ति, परिवार, समाज, विश्व, समग्र जीव-सृष्टि व परमेष्ठी अर्थात् संपूर्ण ब्रह्माण्ड के बीच अंगांगी भाव से ही सभी व्यक्तियों, समुदायों एवं राष्ट्रों में संघर्ष और अनुचित स्पर्धा को समाप्त कर शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व के साथ सतत विकास सुनिश्चित किया जा सकता है। एकात्म मानवदर्शन का पूरा जोर सह-अस्तित्व पर ही तो है। प्रकृति के अनुकूल जीवन विश्व में शांति स्थापना का मार्ग प्रशस्त करता है। जब हम यह मानकर अपनी जीवनदृष्टि विकसित करते हैं कि दूसरे व्यक्ति के हित के साथ मेरा भी हित जुड़ा है, दूसरे व्यक्ति का सुख में मेरा सुख है, उसके दु:ख में मेरा भी दु:ख है, तब सभी प्रकार के संघर्षों के प्रश्न समाप्त हो जाते हैं और हम एक-दूसरे का सहयोग करते हुए जीवन जीते हैं।
आरएसएस का यह प्रस्ताव बड़े महत्त्वपूर्ण समय पर आया है। एक ओर दुनिया इन वैश्विक समस्याओं का स्थायी और ठोस समाधान तलाश रही है, हालांकि उसे अभी तक सफलता नहीं मिली है। आज स्थिति ऐसी बन गई है कि इन समस्याओं के समाधान के लिए समूचा विश्व भारत की ओर बड़ी अपेक्षाओं के साथ देख रहा है। उस वक्त में दुनिया के सामने एकात्म मानवदर्शन को प्रस्तुत करना अच्छा प्रयास है। वहीं, एकात्म मानवदर्शन पर वैश्विक चर्चा के लिए यह समय इसलिए भी अधिक प्रासंगिक है, क्योंकि यह वर्ष पंडित दीनदयालजी उपाध्याय की जन्मशताब्दी एवं उनके द्वारा शाश्वत भारतीय चिंतन के युगानुकूल प्रतिपादन ‘एकात्म मानवदर्शन’ का 51वां वर्ष है। यही कारण है कि संघ इस एकात्म मानवदर्शन के क्रियान्वयन और उसकी स्वीकार्यता के लिए इस समय को सुअवसर मानकर प्रयास कर रहा है।
(लेखक माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)