वक्तव्य-पूर्व (प्रोलॉग)– एक कथा है। नेपोलियन की। वह एक बार अपने कार्यालय आया, और खूंटी पर अपना कोट टांगना चाहा। खूंटी उसके कद से थोड़ी ऊंची थी। उसके सहायक ने कहा, लाइए सर…मैं टांग देता हूं, आपसे लंबा हूं।’ नेपोलियन ने उसे मुड़कर देखा, मुस्कुराया और कहा- ‘हां, तुम मुझसे लंबे हो, पर ऊंचे नहीं हो।’
आज जब प्रधानमंत्री नरेंद्रभाई दामोदरदास मोदी भाजपा कार्यालय में अपने कार्यकर्ताओं से और उनके बहाने पूरे देश से मुखातिब थे, तो आखिर में जिस तरह उन्होंने ‘वंदे मातरम्’ के नारे लगाए, उससे मैं अपने कॉलेज के दिनों में चला गया। उस समय हम ‘विद्यार्थी परिषद’ वाले इसी तरह भावनात्मक तौर पर जुड़ कर नारे लगाते थे। मुझे नहीं पता कि प्रधानमंत्री ‘परिषद’ से कभी किसी भी तरह जुड़े रहे कि नहीं, लेकिन एक प्रचारक से प्रधानमंत्री के तौर पर उस व्यक्ति की पूरी ज़िंदगी एक सिनेमाई रील की तरह घूम गयी। कितनी मेहनत, कितना अध्यवसाय, कितनी लगन और कितनी जिजीविषा से संघर्षरत रहा होगा यह आदमी, जो आज प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठा है।
यूपी चुनाव के नतीजों पर काफी बहस हो चुकी है, अब धूल बैठनी शुरू हुई है। हमेशा की तरह वाममार्गी बुद्धिजीवियों ने खुले दिल से मोदी की जीत स्वीकार करने की जगह कई तरह के झूठे प्रपंच और बहाने रचने शुरू कर दिए हैं, आंकड़ों का छल-द्वार तैयार किया जा रहा है और हरेक तरह का कुतर्क ढाला जा रहा है- अगले आक्रमण के लिए। मार्क्स के ये मानसपुत्र अब भी नहीं समझ पाते कि इनका जनता से संपर्क या संवाद ही टूट गया है। एसी कमरों में बैठकर ये भले ही कितना भी कुतर्क कर लें, लेकिन भारत की आम जनता अब बुरी तरह इनसे ऊब और चिढ़ गयी है।
उत्तर प्रदेश में यह चमत्कार कैसे हुआ? मोदी और शाह की करिश्माई जोड़ी और उनकी अथक मेहनत। सपा के गुंडाराज और मायावती के दूषित टिकट बंटवारे (उसके बाद लगातार मुसलमानों से खुद को ही वोट देते रहने की अपील ने भी आग में घी डाला)। मुस्लिम तुष्टीकरण के ख़तरनाक नतीज़े तो सत्ताधारी पार्टी को भुगतने ही थे। कैराना के विस्थापन, अख़लाक को करोड़ों के मुआवजे, सर्जिकल स्ट्राइक के ‘सबूत मांगने’ और हज हाउस से लेकर सैफुल्लाह के एनकाउंटर तक, जनता ने देखा कि किस तरह सपा सरकार ख़तरनाक फैसले ले रही है। हिसाब तो होना ही था।
ये तथाकथित बुद्धिजीवी, जो इवीएम की गड़बड़ी से लेकर मुसलमानों के वोट देने तक पर निशाना साध रहे हैं, यह भूल जाते हैं कि महीनों पहले बिहार चुनाव के समय भी वही इवीएम था, वही गठजोड़ था, वही निशाना था। बिहार में नीतीश कुमार ने अगर अपने सिद्धांतों को तिलांजलि देकर और सनातन लालू/जंगलराज विरोध को भुलाकर राजद से गठजोड़ न किया होता, तो बिहार में भाजपा को उत्तर प्रदेश से भी बड़ी जीत मिली होती। यूपी में सपा और बसपा के बीच यह संभव न हो सका, क्योंकि मायावती अपने व्यक्तिगत अपमान को भूली नहीं थीं। सपा वालों का खुद को लेकर आकलन गलत साबित हुआ। मायावती की अपने काडर, सत्ता और ज़मीन से दूरी ने रही-सही कसर पूरी कर दी। अब जो भी कहनेवाले कहते रहें, यूपी की जनता ने तो अपना फैसला दे दिया।
तथाकथित बुद्धिजीवी बदलाव स्वीकारने को तैयार नहीं। यह मानने को राजी ही नहीं कि जनता ने उनको बुरी तरह से नकार दिया है। जनता अब किसी का वोट-बैंक मात्र बन कर रहना नहीं चाहती। उसे काम चाहिए, रोजगार चाहिए, विकास चाहिए। ये बुद्धिजीवी बस एक व्यक्ति के अंधे विरोध में इतने अंधे हो जाते हैं कि इनको यह भी नहीं दिखता कि अपने ही अगले वाक्य में वे खुद अपनी ही पिछली बात को काट दे रहे हैं।
ओम थानवी जैसे वरिष्ठ पत्रकार इस जीत को एक ही वाक्य में ‘राष्ट्रवाद और मुस्लिम घृणा के पैरोकारों’ का उत्साह बढानेवाला बताते हैं। ज़रा इन विद्वान से यह पूछा जाए कि राष्ट्रवाद को मुस्लिम घृणा का पर्याय बताने का उनका निहितार्थ क्या है? क्या वे सारे मुसलमानों को एक सिरे से राष्ट्रविरोधी बता रहे हैं या फिर सारे हिंदुओं को मुस्लिमों से घृणा करनेवाला। ऐसे बुद्धि-निधानों की पिनक यहीं नहीं उतरती, बल्कि आगे चलकर वे इस जीत की तुलना 1984 के राजीव गांधी वाले चुनाव से भी नहीं करते। इन विद्यावारिधि को कौन समझाए कि 84 में सिखों का कत्ल-ए-आम हुआ था, 2017 में नहीं।
दिल बड़ा करने की ज़रूरत है, छद्म बुद्धिजीवियों, जैसा हमारे प्रधानमंत्री का है। ज़रा आज का उनका भाषण देखो- सरकार उनकी भी है, जो हमारे साथ थे, उनकी भी, जो हमारे सामने है। प्रधानमंत्री अपने कार्यकर्ताओं को विनम्रता की सलाह दे रहे हैं- फलों से लदा पेड़ झुक जाता है। वह आदमी 2022 का अपना सपना बताता है, चुनाव मात्र तक सीमित न रहकर देश के लिए सपना देखता है और आप वंचक लोग? आपने इस एक अकेले आदमी को क्या-क्या नहीं कहा, कितनी गालियां, कितने अपशब्द नहीं कहे और अब, जब पूरा राष्ट्र इस व्यक्ति के पीछे खड़ा हो रहा है, तो कुतर्कियों की तरह इवीएम को ही गलत बता रहे हो।
उत्तर प्रदेश में यह चमत्कार कैसे हुआ? मोदी और शाह की करिश्माई जोड़ी और उनकी अथक मेहनत। भाजपा के रंग में रंगे हज़ारों नए वाहन प्रदेश भर में छा गए। हालांकि, यही काफी नहीं था। सपा के गुंडाराज और मायावती के दूषित टिकट बंटवारे (उसके बाद लगातार मुसलमानों से खुद को ही वोट देते रहने की अपील ने भी आग में घी डाला)। मुस्लिम तुष्टीकरण के ख़तरनाक नतीज़े तो सत्ताधारी पार्टी को भुगतने ही थे। कैराना के विस्थापन, अख़लाक को करोड़ों के मुआवजे, सर्जिकल स्ट्राइक के ‘सबूत मांगने’ और हज हाउस से लेकर सैफुल्लाह के एनकाउंटर तक, जनता ने देखा कि किस तरह सपा सरकार ख़तरनाक फैसले ले रही है। हिसाब तो होना ही था।
‘सबका साथ सबका विकास’ जैसे नारों और जातिवाद व परिवारवाद उन्मूलन के वादों के दो पाट ही थे, जिनके बीच भाजपा की इस बंपर जीत का महीन आटा पीस दिया गया। अखिलेश यादव के खिसियाने बोल हों, या फिर मायावती के इवीएम को ही दोषी ठहराने का हास्यास्पद आरोप, ये भूल जाते हैं कि जनता के मन में अपने खिलाफ ज़हर इन्होंने खुद ही बोया था। चाहे वह रोहित वेमुला जैसे फर्जी मुद्दे हों, मुज़फ्फरनगर दंगों के बाद समुदाय विशेष की राहत में अनदेखी हो, मुलायम के बार-बार मुस्लिम तुष्टीकरण के बयान हों, सपा की आंतरिक कलह हो या नोटबंदी को जबरन मुद्दा बनाने की कोशिश, सबने भाजपा को मजबूती ही दी। नोटबंदी पर जनता ने अपनी थोड़ी परेशानी को स्वीकारते हुए यह भव्य जनादेश भाजपा को दिया है।
तुर्रा यह हुआ कि सपा ने कांग्रेस से गठबंधन कर लिया और अपनी 100 सीटें तो पहले ही गंवा दी। जिन अखिलेश ने पारिवारिक झगड़े के माध्यम से अपनी ‘छवि’ चमकाने की कोशिश की, जनता उनका सच समझ चुकी थी। आधे-अधूरे एक्सप्रेसवे और मेट्रो के नाम पर लाखों करोड़ों की लूट से लेकर उत्तर प्रदेश सेवा आयोग को जाति-विशेष का बना देने तक, अखिलेश कहीं भी प्रदेश को लूटने से पीछे नहीं रहे। नोएडा का यादव सिंह हो या अपनी पार्टी के शिवपाल, सभी तो उनकी गोद में खेलते ही रहे। आखिरी दो महीनों की नौटंकी के बाद जनता आपको 70 सीटों से अधिक देती भी तो क्या, अखिलेश?
बहरहाल, मोदी और राष्ट्रवाद के अंध-विरोधियों। कुछ सीख लो, इस आदमी से। आपने 2002 से ही इस आदमी का कितनी बार ट्रायल किया? कितना कुछ नहीं कहा इससे, लेकिन यह अपना काम करता चला गया। आज, यह देश के शीर्ष सिंहासन पर है, फिर भी विनम्र है। अपनी हार को स्वीकारता है, जीत के बाद अगले सफर पर निकल पड़ता है।
झुकना सीखो, हार को स्वीकारना सीखो, हे छद्म बुद्धिजीवियों।
(लेखक पेशे से पत्रकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)