बढ़ता इस्लामिक कट्टरपंथ कहीं बांग्लादेश को दूसरा पाकिस्तान न बना दे!

इसे समय की विडंबना ही कहेंगे कि जिस बांग्लादेश को आज से साढ़े चार दशक पहले भारत ने पाकिस्तान से स्वतंत्र कराकर उसपर खुद अधिकार जमाने की बजाय उसे अपना अस्तित्व कायम करने का अवसर दिया था, उसी बांग्लादेश में आज भारत की बहुसंख्यक आबादी अर्थात हिन्दुओं के धार्मिक स्थलों और उपासना प्रतीकों को क्षति पहुंचाना धीरे-धीरे आम होता जा रहा है। हम बात कर रहे हैं बांग्लादेश में स्थित हिन्दू मंदिरों में की गई तोड़-फोड़ की। पिछले दिनों बांग्लादेश के नेत्रिकोना इलाके में कुछ अज्ञात लोगों ने एक मंदिर पर हमला करके न केवल मंदिर बल्कि देवी-देवताओं की मूर्तियों को भी तोड़-फोड़ दिया। ढाका ट्रिब्यून की खबर के मुताबिक गांव के लोग सुबह जब मंदिर गए तो मंदिर परिसर के प्रवेश के बाद उन्होंने मंदिर का दरवाजा खुला पाया। मंदिर का स्ट्रक्चर टूटा हुआ पड़ा था, जबकि तीन टूटी मूर्तियां मंदिर से 600 मीटर दूर पड़ी थीं। लोगों ने दो मूर्तियां देखी, जिनमें से एक देवी काली की और दूसरी प्रतिमा भगवान शंकर की थी। घटना के तत्काल बाद पुलिस को सूचित किया गया, जिसके बाद जांच शुरु हो गयी है। इसके अलावा बांग्लादेश के पबना जिले में भी देवी काली की तीन मूर्तियों के नष्ट किए जाने और मंदिरों में तोड़-फोड़ की बात सामने आई है।

1988 में बांग्लादेश के सैन्य शासक एच एम इरशाद जब सत्तारूढ़ हुए तो उन्होंने धर्मनिरपेक्षता की बात को धता बताते हुए संविधान संशोधन के जरिये इस्लाम को बांग्लादेश का राजकीय धर्म घोषित कर दिया। इसके विरोध में तब लगभग पंद्रह लोगों ने अदालत की शरण ली थी और इसे ख़त्म करने के लिए याचिका दाखिल की गई, मगर अदालतों में बैठे लोग भी तो उसी इस्लामिक समुदाय के  थे, अतः वो याचिका लंबित हो गई और करते-धरते इसी साल मार्च में उस याचिका को अदालत ने खारिज भी कर दिया। इस तरह धर्मनिरपेक्ष देश के रूप में स्थापित हुआ बांग्लादेश सन १९८८ से एक इस्लामिक राष्ट्र बना हुआ है। हालांकि वहाँ की सरकारें अब भी धर्मनिरपेक्षता की बात करती रहती हैं, लेकिन वास्तविकता यही है कि धर्मनिरपेक्षता अब न तो बांग्लादेश के संविधान में है और न ही वहाँ के बहुसंख्यक समुदाय के व्यवहार में ही उसके दर्शन होते हैं।

बांग्लादेश में हिन्दू मंदिरों पर यह कोई पहला हमला नहीं है, बल्कि इससे पहले भी हाल के दिनों में ऐसे कई हमले हुए हैं। अभी पिछले महीने ही बांग्लादेश के ब्राह्मणबरिया जिले के नासिरनगर में समुदाय विशेष के कुछ उपद्रवियों ने न केवल मंदिरों पर बल्कि हिन्दू समुदाय के लोगों पर भी हमला किया था। एक स्थानीय पत्रकार की मानें तो इस दौरान लगभग दस मंदिरों को आग के हवाले कर दिया गया। इस उपद्रव का कारण सिर्फ इतना सामने आया कि बांग्लादेश के एक हिन्दू युवक ने फेसबुक पर कुछ इस्लाम विरोधी लिख दिया था, अब इसने बांग्लादेश के बहुसंख्यक मुस्लिम समुदाय का पारा इतना गर्म कर दिया कि वो हिन्दू मंदिरों और लोगों को  क्षति पहुंचाकर ही शांत हुआ। यह सही है कि किसी भी धर्म या मज़हब के विरोध में कोई भी आपत्तिजनक टिप्पणी नहीं होनी चाहिए, लेकिन अगर कोई ऐसा कर भी देता है तो उस पर मौजूदा क़ानून के हिसाब से कार्रवाई करने की बजाय इस तरह धार्मिक स्थलों को नष्ट करना और उस समुदाय के लोगों पर हमले करना, एक लोकतान्त्रिक देश में कत्तई स्वीकार्य नहीं हो सकता।

सन १९७१ में जब बांग्लादेश का गठन हुआ था, तो उसने स्वयं को पाकिस्तान से अलग एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र घोषित किया था। संवैधानिक रूप से वह धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र के रूप में रहा। लेकिन, वहाँ जनसंख्या में मुस्लिम समुदाय का आधिक्य था, जिसे शायद धर्मनिरपेक्षता का ये बाना कभी पसंद नहीं आया। परिणामतः 1988 में बांग्लादेश के सैन्य शासक एच एम इरशाद जब सत्तारूढ़ हुए तो उन्होंने धर्मनिरपेक्षता की बात को धता बताते हुए संविधान संशोधन के जरिये इस्लाम को बांग्लादेश का राजकीय धर्म घोषित कर दिया। इसके विरोध में तब लगभग पंद्रह लोगों ने अदालत की शरण ली थी और इसे ख़त्म करने के लिए याचिका दाखिल की गई, मगर अदालतों में बैठे लोग भी तो उसी इस्लामिक समुदाय के  थे, अतः वो याचिका लंबित हो गई और करते-धरते इस साल मार्च में उस याचिका को अदालत ने खारिज भी कर दिया। इस तरह धर्मनिरपेक्ष देश के रूप में स्थापित हुआ बांग्लादेश सन १९८८ से एक इस्लामिक राष्ट्र बना हुआ है। हालांकि वहाँ की सरकारें अब भी धर्मनिरपेक्षता की बात करती रहती हैं, लेकिन वास्तविकता यही है कि धर्मनिरपेक्षता अब न तो बांग्लादेश के संविधान में बची है और न ही वहाँ के बहुसंख्यक समुदाय के व्यवहार में ही उसके दर्शन होते हैं। अब वहाँ धीरे-धीरे सबकुछ उस इस्लामिक कट्टरपंथ जैसा रूप लेता जा रहा है, जिसमें इस्लाम के अतिरिक्त और किसी भी मज़हब और विचारधारा के लिए कोई जगह नहीं रह जाती। ढाका विश्वविद्यालय के रिटायर्ड प्रोफेसर अजय राय कहते हैं, ‘..और तो और लड़कियों के साथ बदसलूकी होती है। सिंदूर और बिंदी लगाने पर फिकरे कसे जाते हैं। अल्पसंख्यकों की जमीन पर कब्जा कर लेने की समस्या लगातार बनी रहती है, क्योंकि वे कमजोर हैं और सरकार और प्रशासन का भी साथ उन्हें नहीं मिलता।’

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बांग्लादेश में हिन्दू मंदिरों पर इस्लामिक कट्टरपंथियों द्वारा हमले होना अब आम हो गया

पर समस्या यही तक सीमित नहीं है, यह कट्टरपंथ अब बांग्लादेश में इतना विकराल रूप ले चुका है कि धर्मनिरपेक्षता की बात करने वाले लेखकों, ब्लॉगरों की हत्याएं की जाने लगी हैं। ये स्थिति और अधिक चिंता उत्पन्न करती हैं। अप्रैल, 2016 में बांग्लादेश में एक के बाद एक तीन हत्याएं हुईं हैं। अप्रैल में चार हफ्तों के भीतर एक सेक्यूलर ब्लॉगर, समलैंगिकों की पत्रिका के संपादक और राजशाही यूनिवर्सिटी के एक प्रोफ़ेसर की हत्या हुई।  और ऐसे लेखकों, ब्लागरों की सुरक्षा को सुनिश्चित करने की बजाय बांग्लादेश की पुलिस द्वारा उन्हें सीमा में रहने की नसीहत दी जा रही है। बीते अगस्त में बांग्लादेश पुलिस के एक बहुसंख्यक समुदाय से समबन्धित महानिदेशक की तरफ से कहा गया था कि धर्मनिरपेक्ष ब्लागर, लेखक, चिन्तक लिखते समय अपनी सीमा में रहें और धार्मिक भावनाओं को आहत करने जैसा कुछ न लिखें। अब जिस देश में पुलिस ही इस सोच से चल रही हो, वहाँ के लिए धर्मनिरपेक्षता, उदारता और सामाजिक समरसता जैसी चीजों की बात करना बेमानी ही प्रतीत होता है।

दरअसल बांग्लादेश ने पाकिस्तान के जिस तरह के जुल्मो-सितम से त्रस्त होकर अपनी मुक्ति की मांग शुरू की थी, वो यही था कि पश्चिमी पाकिस्तान तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान यानी आज के बांग्लादेश की   अस्मिता पर खुद का जबरन नियंत्रण करने की कोशिश करने लगा था। परिणामतः बगावत हुई और फिर भारत के सहयोग से बांग्लादेश अस्तित्व में आया। लेकिन, आज बांग्लादेश में भी तो धीरे-धीरे वही स्थिति पैदा होती जा रही है, बस लोग अलग हैं। आज बांग्लादेश का बहुसंख्यक समुदाय अल्पसंख्यकों पर अपना नियंत्रण स्थापित करने का कुप्रयास करता नज़र आ रहा है, जिसको रोकने के लिए बांग्लादेशी हुकूमत द्वारा कुछ भी ठोस किया जाता नहीं दिख रहा। बांग्लादेशी हुकूमत को याद रखना चाहिए कि भारत ने बांग्लादेश के मुक्ति आन्दोलन में उसका साथ दिया था, ऐसे में अब अगर बांग्लादेश में इसी तरह अल्पसंख्यकों का दमन होता रहा तो भारत एकदम चुप नहीं बैठेगा। भारत को तो अभी भी चुप्पी नहीं रखनी चाहिए, बल्कि कड़ाई के साथ बांग्लादेश पर इस बात के लिए दबाव बनाना चाहिए कि वो अपने देश में अल्पसंख्यकों की सुरक्षा सुनिश्चित करे। 

बांग्लादेश पाकिस्तानी विचारधारा और दमन का विरोध करके अस्तित्व में आया था, लेकिन वहाँ अल्पसंख्यकों की ये स्थिति धीरे-धीरे उसे भी पाकिस्तान बनाने की तरफ बढ़ रही है। बांग्लादेश समझे कि कट्टरपंथ कभी भी किसी देश के हित में नहीं हो सकता, जो इसे अपनाता है, देर-सबेर ये उसीके गले की फांस बन जाता है। पाकिस्तान का उदाहरण इस मामले में सामने है। अतः उचित होगा कि बांग्लादेश की सरकार सबसे पहले बांग्लादेश को संवैधानिक रूप से उसके शुरूआती धर्मनिरपेक्ष रूप में लाये। तदुपरांत जमीनी स्तर पर भी क़ानून व्यवस्था को इस तरह से चाक-चौबंद किया जाय कि बहुसंख्यक समुदाय अल्पसंख्यकों को किसी प्रकार की कोई क्षति न पहुंचा सके। इस स्तर पर उसे अगर भारत से किस तरह के सहयोग की जरूरत हो तो उसे वो भी कहना चाहिए। मगर, कुल मिलाकर कहने का अर्थ यही है कि बांग्लादेश को अपने यहाँ पनप रहे इस मजहबी कट्टरपंथ की पौंध को समय रहते जड़ से उखाड़ देना होगा, अन्यथा कोई आश्चर्य नहीं होगा अगर वो एक दूसरा पाकिस्तान बन जाय।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)