कौन लोग हैं, जिनको त्रिलोचन के भाजपा कार्यकर्ता होने से असुरक्षा महसूस हो रही थी। क्या इस युवक का भाजपा के लिए काम करना कोई बड़ा अपराध था ? कोई भी कार्यकर्ता किसी भी दल के लिए स्वेच्छा से कार्य करता है, तो क्या वह कोई गुनाह करता है ? अफसोस केवल इस बात का नहीं है कि त्रिलोचन को इस तरह बुजदिलाना तरीके से मारा गया, अफसोस इस बात का भी है कि रोहित वेमुला के नाम पर घड़ियाली आंसू बहाने वाले और मार्च निकालने वाले तथाकथित बुद्धिजीवी, विपक्षी, सेकुलर आदि अब अचानक गायब हो गए हैं।
पश्चिम बंगाल में इन दिनों राजनीतिक अराजकता चरम पर है। यह अराजकता इसलिए है, क्योंकि वहाँ बीते दिनों दो भाजपा कार्यकर्ताओं की दुर्दांत हत्या हुई, लेकिन आश्चर्य की बात है कि इन दोनों हत्याओं पर बुद्धिजीवियों का दिल नहीं पसीजा है। शायद इसकी वजह ये है कि ये दोनों कार्यकर्ता भाजपा के थे। पहली हत्या एक जून को पश्चिम बंगाल के पुरुलिया में हुई। कार्यकर्ता का नाम त्रिलोचन महतो था। नफरत की राजनीति के चलते की गई इस हत्या का मामला अभी ठंडा नहीं पड़ा था कि उसके बाद एक और भाजपा कार्यकर्ता दुलाल महतो की दुर्दांत हत्या की खबर सामने आ गई।
अपनी पार्टी के दो कार्यकर्ताओं, जो कि दलित समुदाय से आते थे, की सिलसिलेवार हत्या के बाद भाजपा हरकत में आई। पार्टी ने टीएमसी पर इन हत्याओं के पीछे साजिश का आरोप लगाया। भाजपा नेता कैलाश विजयवर्गीय ने दुलाल के पोस्टमार्टम के वीडियोग्राफी की भी मांग की है। हालांकि बढ़ते दबाव के बाद खानापूर्ति के लिए पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने उक्त दोनों मामलों की सीआईडी जांच के फौरी आदेश दे दिए हैं, लेकिन टीएमसी ने अपना बचाव करते हुए इतना जरूर कह दिया है कि इस मौत का कारण आंतरिक दलगत कलह रही होगी।
इससे पहले जिस त्रिलोचन महतो नाम के कार्यकर्ता की हत्या की गई थी, उसका तरीका बहुत वहशियाना और राजनीतिक द्वेष से ओतप्रोत था। त्रिलोचन की हत्या करके उनकी लाश एक पेड़ पर टांग दी गई थी और पीठ के पीछे लिखा गया था कि, “भाजपा के लिए काम करने का यही अंजाम होगा।” उसकी लाश इस हालत में लटकी देखकर अफरा-तफरी मच गई। उसे कुछ नकाबधारी बदमाश अगवा करके ले गए थे, उसके बाद उसकी लाश ही नज़र आई।
अब सवाल यह उठता है कि ऐसा लिखने वाले आखिर कौन लोग हो सकते हैं, जिनको त्रिलोचन के भाजपा कार्यकर्ता होने से असुरक्षा महसूस हो रही थी। क्या इस युवक का भाजपा के लिए काम करना कोई बड़ा अपराध था ? कोई भी कार्यकर्ता किसी भी दल के लिए स्वेच्छा से कार्य करता है, तो क्या वह कोई गुनाह करता है ? अफसोस केवल इस बात का नहीं है कि त्रिलोचन को इस तरह बुजदिलाना तरीके से मारा गया, अफसोस इस बात का भी है कि रोहित वेमुला के नाम पर घड़ियाली आंसू बहाने वाले और मार्च निकालने वाले तथाकथित बुद्धिजीवी, विपक्षी, सेकुलर आदि अब अचानक गायब हो गए हैं।
यहां तक तो फिर भी ठीक है, लेकिन एक पत्थरबाज के लिए भी मानवता की दुहाई देने वाले मानव अधिकार आयोग की ओर से अभी तक त्रिलोचन और दुलाल की हत्या को लेकर कोई प्रतिक्रिया नहीं आई है। सवाल तो यह भी है कि क्या संवेदनाएं, इंसाफ की लड़ाई, विरोध-प्रदर्शन आदि कवायदें क्या दल और जाति देखकर की जाती हैं ? रोहित वेमुला की जाति को लेकर कांग्रेस और सेकुलर बिरादरी ने खूब मुद्दा बनाया था, लेकिन क्या इन लोगों को यहां यह बात दिखाई नहीं पड़ी कि त्रिलोचन भी एक दलित वर्ग का मेहनती एवं उत्साही कार्यकर्ता था।
आखिर एक युवा कार्यकर्ता से कौन सी ताकतें बुरी तरह घबरा गईं जो उसे कायराना तरीके से अपने रास्ते से हटा दिया। क्या ऐसा करके हत्यारों को ये लगता है कि वे बंगाल में खौफ का माहौल निर्मित करने में सफल हो जाएंगे। हालांकि यह बात सच है कि बंगाल में हिंदुओं की दशा बहुत खराब है। वहां की ममता बनर्जी की सरकार पर अक्सर हिन्दू विरोधी होने और हिंदुओं के दमन का आरोप लगता रहा है।
बंगाल में हाल ही में संपन्न हुए पंचायत चुनाव में त्रिलोचन ने बेहद सक्रियता से काम किया था। सवाल ये भी है कि क्या एक सक्रिय कार्यकर्ता होना इतना बड़ा खतरा हो गया है कि उसकी जीवन लीला ही समाप्त कर दी जाए। ये कैसी लोकतांत्रिक स्वतंत्रता है ? संविधान में तो सभी संप्रदायों को अपने अनुसार धार्मिक पद्धति, पूजा-पाठ का अधिकार दिया गया है; वहीं राजनीतिक दलों को अपने प्रचार की स्वतंत्रता भी दी गई है, फिर यह कैसी स्वतंत्रता है कि किसी युवा को केवल इसलिए मार दिया गया, क्योंकि वह केंद्र सरकार में आरूढ़ दल का सक्रिय कार्यकर्ता था।
यदि त्रिलोचन की पीठ पर स्पष्ट रूप से वह नफरत भरी इबारत ना लिखी होती तो भी यह बेहद घृणित वारदात थी, इबारत लिखने के बाद तो यह स्वत: प्रमाणित हो गई। भाजपा के जिला अध्यक्ष वीएस चक्रवर्ती ने कहा है कि यह काम टीएमसी के गुंडों का है। हालांकि पुलिस अभी मामले की जांच कर रही है। लेकिन उक्त दो हत्याओं से जो सवाल उठे हैं, वे ज्वलंत हैं। ममता बनर्जी के राज में ऐसी राजनीतिक हत्याएं उनकी क़ानून व्यवस्था पर भी गंभीर प्रश्न खड़े करती हैं। उन्हें इन हत्याओं के कारण उठ रहे सवालों का जवाब देना चाहिए।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)