बिजली कटौती पर सोशल मीडिया पर विरोध प्रकट करना क्या है, यह अभिव्यक्ति ही तो है। आखिर पुलिस ने किस अधिकार से लोगों को गिरफ्तार कर लिया। यदि ऐसे ही गिरफ्तारी होने लगी तो कल से सारे कारागार, सारी जेलें कम पड़ जाएंगी क्योंकि सोशल मीडिया पर तो दिन-रात पक्ष-विपक्ष की बहसें खुलेआम चलती ही रहती हैं। इससे कोई प्रभावित नहीं होता। हजारों-लाखों लोग इसमें शामिल रहते हैं, पुलिस आखिर किस-किसको पकड़ने जाएगी।
वैसे तो कभी-कभार बिजली गुल होना आम बात है। गर्मी में लोड शेडिंग की जाती है और चूंकि इन दिनों देश में प्री-मानसून गतिविधियां चल रही हैं, ऐसे में मेंटेनेंस कार्य के लिए बिजली गुल होना समझ में आता है लेकिन क्या कहियेगा जब बिजली गुल होना एक संकट बन जाए। अवाम इस पर सार्वजनिक मंचों पर आक्रोश व्यक्त करने लगे। बात यहीं खत्म नहीं होती, मामला तब असाधारण रूप ले लेता है जब इस संकट की बात करने वालों पर राजद्रोह लगा दिया जाता है।
यह सब सुनने में अजीब लग सकता है लेकिन यह मध्य भारत की वह तल्ख हकीकत है जो अचानक राष्ट्रीय सुर्खी बन गई। हुआ यूं कि छत्तीसगढ़ में बिजली कटौती का सिलसिला इतना बढ़ गया कि लोग इससे तंग आ गए। तंग आने पर जनता ने वही किया जो कर सकती थी। अभिव्यक्ति। आक्रोश की, असहमति की। लेकिन छत्तीसगढ़ के कानून एवं प्रशासन को यह इतना नागवार गुजरा कि उन्होंने इसे राजद्रोह का गुनाह करार दे दिया। नतीजा, घर बैठे लोगों को उठा लिया गया।
छत्तीसगढ़ के राजनांदगांव और महासमुंद जिलों में गिरफ्तारियां तक हो गईं। राजनांदगांव जिले के डोंगरगढ़ थाना क्षेत्र के ग्राम मुसरा निवासी मांगेलाल अग्रवाल ने बिजली कटौती के संबंध में सोशल मीडिया पर एक वीडियो पोस्ट किया था। उसे आधार बनाकर पुलिस ने उन्हें विद्वेष फैलाने और राजद्रोह का मामला दर्ज कर गिरफ्तार कर लिया था।
दूसरे मामले में महासमुंद के दिलीप शर्मा ने एक पोर्टल पर 50 गांवों में 48 घंटे बिजली बंद होने होने की खबर चला दी थी। बिजली कंपनी के डीई की शिकायत पर पुलिस ने उन्हें रात 11 बजे घर से बनियान-टॉवेल में उठा लिया था। पुलिस ने मिथ्या भ्रामक विषयवस्तु को जनमानस में प्रसारित करके जनाक्रोश फैलाने की कोशिश करने का मामला दर्ज किया।
हो सकता है कि दिलीप शर्मा की खबर में तथ्यात्मक गड़बड़ी रही हो, मगर इतने के लिए उन्हें राजद्रोह लगाकर गिरफ्तार कर लेना एक लोकतान्त्रिक शासन व्यवस्था में कतई उचित नहीं है। आश्चर्य है कि भाजपा शासित राज्यों में जरा-जरा सी बात पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता नापने लगने वाली गैंग इस मामले पर एकदम खामोशी ओढ़े रही।
हालांकि सब तरफ किरकिरी होने के बाद उक्त दोनों गिरफ्तारी पर सीएम भूपेश बघेल ने डीजीपी से स्वयं बात की। मामले का संज्ञान लिया। गिरफ्तार लोगों को कोर्ट से जमानत भी मिल गई है और अब उन पर से राजद्रोह की धारा भी हटा ली गई। कहा जा सकता है कि मामला तेजी से बिगड़ता देख डैमेज कंट्रोल की कोशिश की गयी, लेकिन बहस तो छिड़ ही गई है और अब राष्ट्रीय सुर्खी बन गई है। शुक्रवार के दिन यह मसला दिन भर खबरों में छाया रहा।
सवाल यह है कि आखिर पुलिस अपने स्तर पर कैसे राजद्रोह का मामला दर्ज कर सकती है जब तक कि इस संबंध में उच्च निर्देश प्राप्त ना हुए हों। यदि निर्देश नहीं थे तो पुलिस ने स्वयं किस आधार पर इतना बड़ा केस दर्ज कर लिया। क्या इसे पुलिस की मनमानी या अज्ञानता अथवा बघेल सरकार की पुलिस का बेलगाम रवैया नहीं कहा जाएगा।
यह सब देखकर सहसा ही आपातकाल की याद हो आती है जिसमें असहमति के लिए कोई स्थान ही नहीं था। सरकार के प्रति विरोधी विचार प्रकट करना ही गुनाह हो गया था। इस वाकये की टाइमिंग भी कुछ ऐसी है कि दस दिन बाद ही उस आपातकाल नामक काले अध्याय की बरसी आने वाली है। क्या अब ऐसा मान लेना चाहिये कि कांग्रेस किसी भी कालखंड में अभिव्यक्ति की आजादी को बर्दाश्त नहीं कर सकती।
चूंकि मामला अभिव्यक्ति से जुड़ा है इसलिए भाजपा ने भी मोर्चा खोल दिया है। छत्तीसगढ़ के भाजपा प्रदेश अध्यक्ष विक्रम उसेंडी ने राज्य सरकार को आड़े हाथों लेते हुए कहा है कि यह राजनीतिक प्रतिशोध है। जब से कांग्रेस सत्ता में आई है, अपनी नाकामी को छिपाने के लिए आरोप लगाना शुरू कर देती है।
बिजली कटौती पर सोशल मीडिया पर विरोध प्रकट करना क्या है, यह अभिव्यक्ति ही तो है। आखिर पुलिस ने किस अधिकार से लोगों को गिरफ्तार कर लिया। यदि ऐसे ही गिरफ्तारी होने लगी तो कल से सारे कारागार, सारी जेलें कम पड़ जाएंगी क्योंकि सोशल मीडिया पर तो दिन-रात पक्ष-विपक्ष की बहसें खुलेआम चलती ही रहती हैं। इससे कोई प्रभावित नहीं होता। हजारों-लाखों लोग इसमें शामिल रहते हैं, पुलिस आखिर किस-किसको पकड़ने जाएगी। छत्तीसगढ़ पुलिस ने तो इस मामले में जल्दबाजी दिखाकर खुद को कठघरे में खड़ा कर लिया।
छत्तीसगढ़ के अलावा मध्यप्रदेश में भी यही हालात हैं। दिसंबर में इन दोनों राज्यों में कांग्रेस की सरकार बनते ही बिजली की लुकाछिपी का दौर शुरू हो गया। शुरू में तो लोगों ने इसे संयोग मानकर सोशल मीडिया पर चुटकुलों से दिल बहलाया। बाद में जब अप्रैल में गर्मी बढ़ी तो कटौती भी बढ़ने लगी। मध्यप्रदेश में तो अब ये हालात हैं कि हाहाकार सा मच गया है। दो दर्जन से अधिक जिले बिजली कटौती की मार झेल रहे हैं।
हालांकि मप्र के मुख्यमंत्री कमलनाथ कई बार बोल चुके हैं कि कटौती शासन की ओर से नहीं की जा रही है एवं यह एक साजिश है। यही हालात छत्तीसगढ़ में भी हैं। उक्त राजद्रोह मामले की जड़ में भी ऐसी ही कथित साजिश का हवाला दिया जा रहा है। मगर इनमें से कोई सरकार अपनी नाकामी मानने को तैयार नहीं है।
दोनों राज्यों की सरकारें यह साबित करने में लगी हैं कि कटौती नहीं की जा रही है, जबकि लोग कटौती से परेशान हैं। अपनी साख बचाने के लिए अब छत्तीसगढ़ सरकार अधिकारियों पर कार्यवाही भी कर रही है। बघेल ने तो नौ अधिकारी सस्पैंड भी कर दिए हैं।
वहीं छत्तीसगढ़ के कांग्रेस के नेताओं के बयानों में विरोधाभास सामने आ रहा है। कोई कहता है साजिश है, तो कोई कहता है भाजपा समर्थित अधिकारी ऐसा कर रहे हैं। यहां के मंत्री टीएस सिंहदेव इसे मेंटेनेंस का नाम दे रहे हैं। लोग यह भी कह रहे कि भाजपा शासन के दौरान कटौती की ये समस्या नहीं होती थी।
बहरहाल, यह साफ तौर पर देखा जा सकता है कि बिजली कटौती ने भूपेश बघेल और कमलनाथ की नाक में दम करके रख दिया है। बात यह नहीं है कि यह राजनीतिक द्वंद है या नहीं, बात केवल इतनी है कि इससे प्रदेश की जनता परेशान हो रही है। बहरहाल, इन सरकारों को याद रखना चाहिए कि लोकतंत्र में जनता की बारी भले पांच साल में एकबार आती है, मगर वो एक बार में ही पूरी बाजी पलट देती है।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)