राजीव सचान
विश्व इतिहास ऐसे शातिर शासकों से भरा पड़ा है जिन्होंने धन, पद या अन्य किसी लोभ में अपने ही लोगों से छल किया। शासकों के साथ-साथ उनके तमाम सिपहसालार-दरबारी भी ऐसे मिलते हैं जिन्होंने अपने किसी स्वार्थ के लिए कपटपूर्ण कृत्य किया और उसका दोष किसी और के मत्थे मढ़ दिया। मीर जाफर और जयचंद सरीखे पात्र जितने इतिहास में हैं उतने ही किस्से-कहानियों और फिल्मों में। बॉलीवुड-हॉलीवुड फिल्मों के घाघ खलनायकों का स्मरण करें तो वे तमाम चेहरे कौंध जाएंगे जिन्होंने फिल्मी पर्दे पर छल-कपट की हैरान करने वाली तस्वीर पेश की। क्या ऐसी ही तस्वीर हाल के हमारे शासकों ने भी पेश की? यह वह सवाल है जो पिछले कुछ दिनों से लोगों के मन में घुमड़ रहा है। यह सवाल तब सतह पर आया जब इशरत जहां मामले में कुछ खुलासे गृहमंत्रलय के पूर्व अधिकारियों की ओर से किए गए। पूर्व गृहसचिव जीके पिल्लई एवं कुछ अन्य अधिकारियों के साथ इंटेलीजेंस ब्यूरो के अफसर राजेंद्र कुमार की मानें तो गृहमंत्रलय के शीर्ष स्तर से इशरत को आतंकी के बजाय बेचारी-निदरेष युवती करार देने की मुहिम छेड़ी गई। इसकी शुरुआत तत्कालीन गृहमंत्री चिदंबरम की ओर से उस हलफनामा को वापस लेने से हुई जिसमें इशरत को आतंकी बताया गया था। पहले हलफनामे के स्थान पर पेश किए गए दूसरे हलफनामें में इशरत को कॉलेज जाने वाली आम युवती बताया गया। यह काम खुद तत्कालीन गृहमंत्री चिदंबरम ने किया। जब इस बारे में उनसे सवाल किए गए तो उन्होंने जवाब दिया कि मैंने तो बस कुछ संपादकीय बदलाव किए थे। क्या मात्र संपादकीय बदलाव से किसी आतंकी को भोली-भाली युवती में तब्दील किया जा सकता है? इशरत जहां प्रकरण में एक बड़ी हद तक यही साबित हो रहा है कि वह लश्कर की आतंकी थी। शायद इसीलिए चौतरफा घिरे चिदंबरम अब यह कह रहे हैं कि असली मुद्दा यह है कि मुठभेड़ फर्जी थी या नहीं? नए तथ्य सामने आने के बाद से इशरत हितैषी टोली भी यह सवाल कर रही है कि अगर वह आतंकी थी भी तो क्या उसे फर्जी मुठभेड़ में मारा जाना सही था? यह सवाल सही है, लेकिन कम से कम कांग्रेसजन यह सवाल पूछने के अधिकारी नहीं, क्योंकि वे कहीं अच्छी तरह जानते हैं कि बेअंत सिंह के शासनकाल में पंजाब में आतंकवाद पर कैसे काबू पाया गया? अगर इशरत को फर्जी मुठभेड़ में मारा भी गया तो भी इस सवाल का जवाब तो चाहिए ही कि वह आतंकी थी या नहीं? इस सवाल का जवाब इसलिए मिलना चाहिए, क्योंकि इशरत के आतंकी होने के तथ्य को छिपाने से आतंकी संगठन लश्कर के हितों की पूर्ति हुई।
इशरत जहां मामले में कांग्रेस पूरी तरह से बेनकाब हो चुकी है। राष्ट्रीय सुरक्षा की परवाह किये बगैर आतंकियों के साथ खड़ा होकर तख्ती व झंडी लहराने वाला सेक्युलर कबीला भी बेपर्दा हो चुका है। बेपर्दा हो चुकी हैं वो सारी कवायदें जो कांग्रेस सहित विरोधी खेमे द्वारा भाजपा व भाजपा के नेताओं को झूठे आरोपों में फंसाने के लिए की गयीं थी। सेक्युलर कबीले के लिए अब सिर्फ इतना ही कहा जा सकता है कि, तन से चादर सरकती जाए आहिस्ता आहिस्ता, कैसे जियें तेरे ज़ुल्फ़ के सर होने तक: मॉडरेटर
इशरत जहां मामले में मुंह की खाने के बाद कांग्रेस जब अपना चेहरा बचाने की कोशिश कर रही थी तभी यह तथ्य सामने आया कि लेफ्टिनेंट कर्नल प्रसाद श्रीकांत पुरोहित का समझौता टेन में धमाके से कोई लेना-देना नहीं। यह स्पष्ट किया है राष्ट्रीय जांच एजेंसी के प्रमुख शरद कुमार ने, जो हाल में अमेरिका से लौट कर आए हैं। उनकी अमेरिका यात्र का मकसद समझौता धमाके में लश्कर आतंकी आरिफ कस्मानी की भागीदारी का पता लगाना था। 1अमेरिकी एजेंसियों का शुरू से यह मानना है कि इस टेन में विस्फोट के पीछे लश्कर के गुर्गो का हाथ था। प्रारंभ में भारतीय एजेंसियों का भी ऐसा ही मानना था, लेकिन 2008 में मालेगांव में हुए विस्फोट में लेफ्टिनेंट कर्नल पुरोहित की गिरफ्तारी के बाद महाराष्ट्र के आतंकवाद निरोधक दस्ते ने बताया कि समझौता धमाके में भी पुरोहित का हाथ था। इसी के साथ हिन्दूभगवा आतंकवाद का जुमला उछला और फिर कांग्रेसी नेता यह साबित करने में लग गए कि देश में सिमी, इंडियन मुजाहिदीन और लश्कर एवं जैश से ज्यादा खतरा हिन्दूअतिवादी गुटों से है। इस तरह की बात राहुल गांधी ने भी कही थी। एनआइए प्रमुख शरद कुमार के बयान के बाद कैप्टन नितिन दत्तात्रेय जोशी ने स्पष्ट किया है कि महाराष्ट्र एटीएस ने उनसे यह जबरन कहलवाया था कि उन्होंने पुरोहित के घर वह आरडीएक्स देखा था जिसका इस्तेमाल कथित तौर पर समझौता टेन में धमाके के लिए हुआ। जोशी ने महाराष्ट्र एटीएस की जोर-जबरदस्ती के खिलाफ 2010 में मानवाधिकार आयोग में शिकायत की थी, लेकिन किसी के कान पर जूं नहीं रेंगी। एक समय ऐसा ही दुखड़ा इशरत मामले में कथित संपादकीय सुधार वाला हलफनामा दाखिल करने के लिए बाध्य और इस क्रम में प्रताड़ित हुए गृहमंत्रलय के अधिकारी आरवीएस मणि ने भी रोया था, लेकिन उनकी शिकायत भी अनसुनी ही रह गई। दरअसल जब सच को दबाने की कपटपूर्ण साजिश उच्च स्तर पर रची जाती है तो ऐसा ही होता है। 1हिन्दूअतिवादी गुटों की सक्रियता और मालेगांव, मक्का मस्जिद, अजमेर दरगाह में हुए धमाकों में उनका हाथ होने की आशंका से इंकार नहीं, लेकिन यह भी स्पष्ट हो रहा है कि इशरत को बेगुनाह बताने और समझौता कांड का ठीकरा लेफ्टिनेंट कर्नल प्रसाद पुरोहित के सिर फोड़ने के लिए कोई साजिश शासन के उच्च स्तर पर रची गई। प्रसाद पुरोहित 2008 से जेल में बंद हैं और किसी भी मामले में उनके खिलाफ आरोप पत्र दाखिल नहीं किया जा सका है। देश को इस सवाल का जवाब मिलना ही चाहिए कि क्या हिन्दूआतंकवाद जुमले को मजबूती देने के लिए पुरोहित पर समझौता ट्रेन में धमाके का आरोप मढ़ा गया? इस आरोप से सबसे ज्यादा राहत पाकिस्तान को मिली। उसे यह कहने का मौका मिला, देखिए किस तरह भारत में हिन्दूआतंकवाद पनप रहा है और सेना के अफसर तक इसमें लिप्त हैं। इशरत और पुरोहित के मामले देश से छल करने, उसे नीचा दिखाने और देश विरोधी ताकतों को बल प्रदान करने वाले आपराधिक कृत्य की शर्मनाक मिसाल पेश कर रहे हैं। इन मामलों पर तू तू-मैं मैं करने से कोई लाभ नहीं। इनकी गहन जांच होनी चाहिए। अगर मोदी सरकार इस दिशा में आगे नहीं बढ़ती तो फिर संसद के भीतर-बाहर चिदंबरम, सुशील कुमार शिंदे वगैरह की घेरेबंदी का कोई मतलब नहीं।
(लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडिटर हैं। यह लेख दैनिक जागरण से लिया गया है।)