इंदिरा गांधी ने अचानक नहीं लगाया था आपातकाल, ये उनकी सोची-समझी चाल थी!

आपातकाल लगाने की योजना एक सोची समझी चाल थी, इसका खुलासा पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री सिद्धार्थ शंकर रे के पत्र में आपातकाल लगाने से छह महीने पहले ही हो गया था। यह चिट्ठी तभी के कानून मंत्री ए. आर. गोखले और कांग्रेस के कई नेताओं के देखरेख में ड्राफ्ट की गई थी। इंदिरा गाँधी ने अपने एक साक्षात्कार में ज़िक्र भी किया था कि इस देश को ‘शॉक ट्रीटमेंट’ की ज़रुरत है। शायद तब उनके दिमाग में आपातकाल की बात आ चुकी थी।

आज से लगभग साढ़े चार दशक पहले हिंदुस्तान के इतिहास में ऐसा कुछ हुआ था, जिसने आज़ादी के लिए शहीद हुए परवानों के लहू को शर्मसार कर दिया। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी ने अपनी सत्ता बरकरार रखने के लिए 25-26 जून, 1975 की दरम्यानी रात को देश में आपातकाल लगा दिया।

विरोधियों को जेल के अन्दर ठूंसा गया, अख़बार बंद करवा दिए गए। लाखों लोगों को 21 महीने तक नजरबन्द रहना पड़ा ताकि इंदिरा गांधी सरकार द्वारा चलाये जा रहे तसद्दुद का खामियाजा न भुगतना पड़े। आपातकाल 21 मार्च 1977 को ख़त्म हुआ, लेकिन इसने सदा-सदा के लिए भारतीय लोकतंत्र के इतिहास को कलंकित कर दिया।

इंदिरा गांधी के आपातकाल लागू करने के आदेश को परवानगी देने का ‘नेक’ काम किया था तत्कालीन राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद ने। लेकिन, हकीक़त यह भी थी कि फखरुद्दीन अली अहमद इस आदेश पर हस्ताक्षर करते उसके पहले इंदिरा ने आपातकाल का एलान कर दिया था।

पाकिस्तान के साथ 1971 की लड़ाई के बाद के हालात वैसे भी अच्छे नहीं थे;  बेरोज़गारी चरम पर थी, छात्र आन्दोलन चरम पर था, देश के कई हिस्से में सूखा था और राजनीतिक विरोध लगातार बढ़ता जा रहा था। इन सब से उपजे जनाक्रोश को थामने के लिए ही आपातकाल लागू कर इंदिरा तानाशाही पर उतर पड़ी थीं।

साभार : Indiatv

आखिर इंदिरा ने क्यों लगाया था आपातकाल?

1971 में हुए लोक सभा चुनाव में भारी धांधली के बाद चुनाव परिणामों को चुनौती दी गई। जांच के बाद इंदिरा के विरोधी राजनारायण के पक्ष में 12 जून 1975 को इलाहबाद कोर्ट ने ऐतिहासिक फैसला दिया। इन आरोपों के बाद इंदिरा को सांसद पद से इस्तीफा दे देना था, लेकिन इंदिरा ने इलाहबाद कोर्ट के आदेश को मानने से इनकार कर दिया।

इंदिरा गाँधी ने इस फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी, जिसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने इंदिरा के सांसद बने रहने को तो मंजूरी दी, लेकिन इस ताकीद के साथ कि वह मीटिंग की अगुवाई न करें। मगर, कांग्रेस पार्टी ने कोर्ट के आदेश को नहीं माना और कहा कि इंदिरा का नेतृत्व पार्टी और देश के लिए अपरिहार्य है।

दूसरी तरफ, जेपी द्वारा सम्पूर्ण क्रांति का बिगुल फूंक दिया गया। उनकी बड़े पैमाने पर लोगों के बीच पैठ थी। जेपी का असर किसी ख़ास इलाके तक सीमित न होकर सार्वदेशिक था। वह लगातार देश भ्रमण कर रहे थे और इंदिरा के खिलाफ भड़क रहे गुस्से को हवा देने का काम रहे थे। वास्तव में जेपी ने अपने आन्दोलन के जरिये इंदिरा के खिलाफ पनप रहे गुस्से को एक सूत्र में पिरो दिया। ये एक बड़ा कारण बना आपातकाल लागू करने का।

साभार : गूगल

गिरफ्तारियों का दौर  

इंदिरा ने संविधान का खुलकर दुरूपयोग किया। आर्टिकल 352 लगाकर इंदिरा ने अपने सभी विरोधियों को कारागार में डलवा दिया। आपातकाल के बाद, जयप्रकाश नारायण, अशोक मेहता, अटल बिहारी वाजपेयी, विजयराजे सिंधिया, मोरारजी देसाई, जे कृपलानी,  जॉर्ज फर्नाडीज, एलके आडवाणी और प्रकाश सिंह बादल जैसे दर्जनों महत्वपूर्ण नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया।

ज़बरन नसबंदी का खौफ

आपातकाल के दौरान उन हजारों लोगों की जबरन नसबंदी भी करवाई गई, जिनकी शादियाँ भी नहीं हुई थी, इस कदम के पीछे इंदिरा के छोटे बेटे संजय गाँधी का हाथ था, जो उस समय सरकार में तो नहीं थे, लेकिन सरकारी फैसलों को प्रभावित करने की उनमें अपार क्षमता थी। ऐसे में, तब लोगों के खौफ की सिर्फ कल्पना ही की जा सकती है।

इंदिरा गाँधी और संजय गाँधी [साभार : Indiatv]

मीडिया के खामोश लफ्ज़

आज जितने लोग मीडिया की आज़ादी की बात करते हैं, अगर वह उस  आपातकाल की तस्वीर देख लें तो उनकी सोच बदल जाएगी। लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहे जाने वाले अख़बारों, रेडियो और मैगज़ीन में सरकार के गुणगान छपते थे।

जब फाइनेंसियल एक्सप्रेस अख़बार ने रबिन्द्र नाथ टैगोर की एक कविता “where the mind is without fear and the head is held high” छापी तो तभी के सूचना एवं प्रसारण मंत्री आई के गुजराल को हटा दिया गया और इंदिरा ने अपने भरोसेमंद नेता विद्याचरण शुक्ल को यह विभाग दे दिया। यह विद्याचरण शुक्ल उस वक्त के चाटुकार नेताओं में से एक थे, जिन्होंने आपातकाल को खुलकर समर्थन दिया।

इंदिरा ने संविधान संशोधन करवाकर अपने आप को चुनावी धांधलियों से बरी करवा लिया।  इंदिरा ने उन तमाम राज्यों में राष्ट्रपति शासन लगा रखा था, जहाँ कांग्रेस की सरकार नहीं थी। लोगों में इंदिरा के खिलाफ खतरनाक गुस्सा था। नतीजा हुआ कि जब 1977 में दोबारा चुनाव हुआ तो इंदिरा बुरी तरह से हार गईं और मोरारजी देसाई की जनता पार्टी की सरकार बनी। यह अलग बात है कि सरकार ज्यादा दिन नहीं चल सकी, लेकिन इसके बाद कांग्रेस के खिलाफ विरोधी दलों ने लामबंद होना शुरू कर दिया।

आज अगर कांग्रेस-मुक्त भारत की चर्चा होती है, तो उसके पीछे कहीं न कहीं कांग्रेस के ये पिछले कुकर्म ही हैं। आपातकाल लगाने की योजना एक सोची समझी चाल थी, इसका खुलासा पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री सिद्धार्थ शंकर रे के पत्र में आपातकाल लगाने से छह महीने पहले ही हो गया था। यह चिट्ठी तभी के कानून मत्री ए. आर. गोखले और कांग्रेस के कई नेताओं के देखरेख में ड्राफ्ट की गई थी। इंदिरा गाँधी ने अपने एक साक्षात्कार में ज़िक्र भी किया था कि इस देश को ‘शॉक ट्रीटमेंट’ की ज़रुरत है।

शायद तब उनकी नज़र में आपातकाल ही वो शॉक ट्रीटमेंट था; हालांकि इसका शॉक देश ने तो जो भुगता सो भुगता ही, खुद इंदिरा और उनकी कांग्रेस को भी इसकी कम कीमत नहीं चुकानी पड़ी। जो कांग्रेस एकछत्र राज करती थी, उसके खिलाफ मजबूत विपक्ष की बुनियाद पड़नी शुरू हो गयी। इतिहास एक खुली किताब की तरह है; हमें आपातकाल के पन्नों को पलट कर देखने की ज़रूरत है ताकि हम उनलोगों के सपनों के साकार कर सकें जिन्होंने देश की आज़ादी से लेकर आपातकाल तक हमारी और आपकी आज़ादी महफूज़ रखने के लिए अपनी जान दांव पर लगा दी।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)