मुस्लिम महिलाओं के हितों के लिए जरूरी है शरियाई व्यवस्थाओं का खात्मा

लॉ कमीशन ऑफ इंडिया ने देश की जनता से कॉमन सिविल कोड या यूनिफार्म सिविल कोड (सामान नागरिक संहिता ) पर सभी से 16 सवाल किये हैं। जिनका मकसद है सरकार संविधान में दिए दिशा निर्देशों पर चलते हुए देश में सभी नागरिकों के लिए एक सामान आचार संहिता लागू की जा सके।  गौरतलब है कि मौलिक अधिकारों के तहत संविधान ने इस बात की गैरेंटी ली  है कि इनके हनन होने पर सीधे सर्वोच्च न्यायालय का दरवाज़ा खटखटा सकते हैं। इसी के तहत लॉ कमीशन ने महिलाओं को समान नागरिकता और तीन तलाक के मुद्दे को भी इन सवालों की फेहरिस्त में रखा है।

तीन बार तलाक कहने की रिवायत किसी भी मुस्लिम शादीशुदा औरत की ज़िन्दगी को दोज़ख बनाने के लिए काफी है। ऐसे में, मुस्लिम पर्सनल लॉ के मुताबिक तलाक को तीन तरीकों से लिया जा सकता है – तलाक़-ए-ताफवीज़, खुला और फस्ख। बहरहाल, तलाक के बाद यदि कोई औरत अपने पति के साथ दोबारा रहना चाहती है तो वो केवल हलाला के बाद ही रह सकती है। तलाक़ के बाद बिना  हलाला के साथ रहना गैरइस्लामिक माना जाता है।  अब ज़रा हलाला पर रौशनी डालें तो हलाला खाज में वो कोढ़ है जो घिनौने से भी बदतर है। जिसे मौलवी किसी भी हालत में ख़त्म नहीं होने देना चाहते हैं। क्योंकि  तीन तलाक़ के पीछे इसका एक बड़ा खेल है। मान लें कि गुस्सा शांत होने पर पति पत्नी साथ रहना चाहते हैं तो शरिया उन्हें कभी साथ नहीं आने देता। इसके लिए पहले पत्नी को दूसरा निकाह करना होगा और निकाह के बाद दूसरे शौहर के साथ शारीरिक संबंध बनाने होते हैं। उनके बाद वो तलाक़ देता है और उसके पश्चात ही पति–पत्नी दोनों साथ रह सकते हैं। गौरतलब बात ये है कि उस वैकल्पिक मर्द की भूमिका अक्सर मौलवी/क़ाज़ी ही निभाते हैं।

मुस्लिम पर्सनल लॉ कोई कानून नहीं है कि जिसे चुनौती नहीं दी जा सकती है, ये कुरआन से लिया गया है, ये इस्लाम धर्म से सम्बंधित एक सांस्कृतिक मुद्दा है।  क्योंकि बोर्ड ने कहा है कि तलाक़, शादी और देखरेख अलग अलग धर्मों में अलग हैं। ऐसे में कोर्ट धर्म के अधिकारों को लेकर फैसले नहीं ले सकता है। तीन तलाक़ का हक सिर्फ मर्द को  है क्योंकि वो सही निर्णय ले सकता है और औरतें बेहद भावुक होती हैं, ऐसे में इतना बड़ा फैसला वे खुद नहीं ले सकती हैं। यानी साधारण शब्दों में इस्लामिक कायदों के अनुसार या तो औरतें इमोशनल फूल हैं या फिर निरी बेवक़ूफ़ हैं।

असल में इस विवाद की शुरुआत पिछले साल हुई जब देहरादून की ३५ साल की शायरा बानो को उनके पति ने छिट्ठी के ज़रिये तलाकनाम लिखकर भेज दिया था। उसके बाद शायरा ने सुप्रीम कोर्ट में गुहार लगायी की इस प्रकार के तलाक को गैर कानूनी घोषित किया जाए।   और साथ ही निकाह – हलाला जैसी कुरीतियों पर भी पाबंदी लगाईं जाए। इन सभी मामलातों को लेकर शायरा बानों ने संविधान की धारा 14, 15, 21 और 25 के तहत एक नागरिक के अधिकारों का हनन करार दिया है। इसी मामले में थोड़ा-सा आगे जाएँ तो शाहबानो का मामला भी याद करना चाहिये जहाँ १९८५-८६ के दौरान एक ६२ वर्षीया महिला और पांच बच्चों की माँ को उसके पति ने तीन तलाक के माध्यम से तलाक देकर अकेला छोड़ दिया था। ऐसे में शाहबानो ने  सर्वोच्च न्यायलय से न्याय की मांग की। वहीँ न्यायालय ने धारा १२५ के तहत निर्णय लिया जो हर किसी पर लागू होता है। फिर चाहे वो किसी भी धर्म, जाति अथवा संप्रदाय से क्यों न हो।  लेकिन रुढ़िवादी मुस्लिम समुदाय को न्यायालय का फैसला गवारा नहीं ठहरा और इसे बेवजह का हस्तक्षेप माना। जहाँ एम. जे. अकबर और सैयद शाहबुद्दीन ने ‘आल इंडिया पर्सनल लॉ बोर्ड” नामक संस्था बनायीं और सभी प्रमुख शहरों में आन्दोलन की धमकी दे डाली। नतीजतन राजीव गाँधी सरकार द्वारा शरिया कानून के सामने घुटने टेकते हुए संसद में एक क़ानून पारित कर बोर्ड की सभी मांगें मान ली गयीं और इसे ‘ धर्मनिरपेक्षता’ के उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया गया।

हालाँकि सुप्रीम कोर्ट ने इस पर राज्य और केंद्र सरकार, महिला आयोग समेत सभी पक्षों को नोटिस भेजकर जवाब और संज्ञान माँगा है, जिसमें केंद्र सरकार ने तीन तलाक व्यवस्था को सिरे से खारिज़ किया है और साथ ही विरोध कर इस प्रकार के संवेदनहीन लॉ को ख़त्म करने की मांग भी की है। वहीँ दूसरी ओर अखिल भारतीय मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने अपने जवाब में तीन बार तलाक़ और बहुविवाह का बचाव मुस्लिम लॉ के अनुसार किया है। साथ ही उन्होंने कहा है कि अदालतों को कुरआन और शरिया कानून से सम्बंधित मसलों पर बोलने या जांच करने का कोई हक नहीं है।

हदीस के  रूप में सम्मानित कुछ पंक्तियाँ  हैं,  पति अपनी पत्नी को चार  कारणों से त्याग  भी सकता है:

(१) स्त्री को श्रृंगार करके  उसके पास  आने के लिए कहने पर यदि अनदेखी कर दे;

(2) सहवास  के उद्देश्य से पति द्वारा बुलाये जाने  पर उसकी उपेक्षा करने पर;

(३)स्तर फ़र्ज़ गुसल और नमाज़ छोड़ने पर; और

(४) पति की अनुमति के बिना किस के घर घूमने जाने पर।

यदि सोचा जाए तो लेडीज़ फर्स्ट का कांसेप्ट आखिर क्या सोच कर बनाया गया ? शायद यही सोच कर कि औरतें भी अंधे और विकलांग लोगों की तरह हैं। कुछ लोग औरतों को देख  कर सीट भी खाली  कर देते हैं। वो ये तो ज़रा भी नहीं सोचते होंगे कि मैं इस औरत की इज्ज़त करता हूँ इसीलिए छोड़ रहा हूँ। हाँ बेचारी औरत सोच कर ज़रूर छोड़ते हैं। ऐसे में औरतें उस सीट को सहर्ष स्वीकार भी कर लेती हैं । और वहीँ खुद को अबला बना लेती हैं। ये जताकर कि वे कितनी कमज़ोर हैं।

teen-talaq

मर्द जन्नत में सत्तर परियों ( हूरों) को पायेगा और औरतों को इसी जन्म का पति अगले जन्म में भी मिलेगा। हालाँकि किसी भी धर्म की बात करें तो औरतें हमेशा निचले पायदान पर ही रही हैं। लेकिन आज औरत अपनी लड़ाई खुद लड़ने के लिए प्रयासरत है और आगे आकर अपनी लड़ाई को लड़ रही है।

खैर अब लॉ के अनुसार बात करें तो मुस्लिम पर्सनल लॉ कोई कानून नहीं है कि जिसे चुनौती नहीं दी जा सकती है, ये कुरआन से लिया गया है, ये इस्लाम धर्म से सम्बंधित एक सांस्कृतिक मुद्दा है।  क्योंकि बोर्ड ने कहा है कि तलाक़, शादी और देखरेख अलग अलग धर्मों में अलग हैं। ऐसे में कोर्ट धर्म के अधिकारों को लेकर फैसले नहीं ले सकता है। तीन तलाक़ का हक सिर्फ मर्द को  है क्योंकि वो सही निर्णय ले सकता है और औरतें बेहद भावुक होती हैं, ऐसे में इतना बड़ा फैसला वे खुद नहीं ले सकती हैं। यानी साधारण शब्दों में या तो औरतें इमोशनल फूल हैं या फिर वो बेवक़ूफ़ हैं। वहीँ मर्द चार औरतों को बीवी बना कर रख सकते हैं, जिसका मकसद है अवैध संबंधों को रोकना और साथ ही ये महिलाओं की सुरक्षा के लिहाज़ से भी ठीक है। मर्द को हर धर्म में स्वेच्छाचारी बनाया है। सूरा निसार की ३४ वीं आयत के अनुसार ‘पुरुष नारी का स्वामी है क्योंकि अल्लाह ने एक को दुसरे पर श्रेष्ठत्व प्रदान किया है। मर्द औरत पर धन दौलत खर्च करता है इसीलिए औरत बाध्य है।

देश में मुस्लिम महिलाओं की स्थिति पर थोड़ी सी नज़र दौडाई जाए तो हम देखते हैं कि भारत में २.५ फीसदी  महिलाएं ग्रेजुएट हैं।  १५.५८ फ़ीसदी औरतें कामकाजी हैं और ५१.८९ फ़ीसदी साक्षरता दर है। यानि पूरे भारत में ४८.११ फ़ीसदी (८.३९ करोड़ में से ४.०३करोड़  ) मुस्लिम महिलाएं ही पढ़-लिख सकती हैं।  

मुस्लिम औरतों की लड़ाई आज छोटी नहीं है। कुछ महीनों पहले हाजी अली में प्रवेश के लिए महिलाओं ने ही मोर्चा खोला था। जिसे वे जीती भी।  औरत के लिए किस की मनाही है और किसकी सहूलियत इसकी निर्णायक कभी भी एक औरत नहीं बनी। ये सब लिखने- बोलने वाले ठेकेदार हमेशा से ही मर्द रहे हैं। यही विडम्बना है।

खैर, ये  एक न ख़त्म होने वाली फेहरिस्त है जिसे गिनाने के लिए बहुत कुछ लिखा जा सकता है। ऐसे में समय बदल रहा है और उसी के साथ समाज की सोच भी बदल रही है। आज मुस्लिम महिलाएं भी पढ़ाई और रोज़गार के लिए किसी पर आश्रित नहीं हैं। ऐसे में उदारवादी मुस्लिम तबको को उन महिलाओं का साथ देना चाहिए। उनकी स्वतंत्रता को उन्हें सौंपना चाहिए और कुप्रथाओं को ख़ारिज कर एक स्वस्थ वातावरण तैयार करना चाहिए। सभी को आगे बढ़ने का मौका देना बेहद ज़रूरी है। ताकि हम एक रौशन कल की नींव रख सकें।

(लेखिका पेशे से पत्रकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)