केरल में संघ ने धीरे-धीरे अपनी अच्छी पैठ स्थापित कर ली है। पिछले कई चुनावों के दौरान केरल और त्रिपुरा दोनों राज्यों में भाजपा के मत प्रतिशत में लगातार इजाफा देखने को मिला है। केरल में भाजपा का ये बढ़ता प्रभाव वाम दलों को बेहद खल रहा है, इस कारण राजनीतिक हिंसा का उनका स्वभाव अब और उग्र रूप में सामने आने लगा है। एक अनुमान के मुताबिक़ पी. विजयन द्वारा केरल की सत्ता संभालने के बाद से अबतक औसतन हर पच्चीस दिन पर एक संघ या भाजपा के कार्यकर्ता की हत्या हुई है।
केरल की वामपंथी हिंसा के विरुद्ध भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह द्वारा जनरक्षा यात्रा की शुरुआत के गहरे अर्थ हैं। दरअसल केरल में आजादी के बाद से ही संघ और भाजपा के कार्यकर्ताओं पर हमले होते रहे हैं, जिनमें अबतक लगभग तीन सौ कार्यकर्ताओं की जान जा चुकी है। इनमें सर्वाधिक हत्याएं केरल के मुख्यमंत्री पी. विजयन के क्षेत्र कन्नूर में होने की बात भी कही जाती रही है।
चूंकि, राज्य में भाजपा न तो कभी सत्ता में रही है और न ही उसका कोई ठोस राजनीतिक वजूद ही रहा है, ऐसे में उसके कार्यकर्ताओं की हत्या की जांच को यदि सत्ताधारी दलों द्वारा प्रभावित किया जाता रहा हो तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए। भाजपा की तरफ से सत्ताधारी वामपंथी दलों पर ऐसे आरोप लगाए भी जाते रहे हैं। अब जो भी हो, मगर केरल की राजनीतिक हिंसा को कभी मीडिया में उतनी चर्चा नहीं मिलती जितनी कि मिलनी चाहिए।
गौरी लंकेश, इखलाक आदि की हत्या पर देश भर में हंगामा मचा देने वाले असहिष्णुता विरोधी समूह की तरफ से भी इन हत्याओं पर खामोशी की चादर ओढ़ ली जाती है। इस स्थिति के मद्देनज़र ही भाजपाध्यक्ष अमित शाह द्वारा केरल की राजनीतिक हत्याओं के विरुद्ध जनरक्षा यात्रा का आरम्भ किया गया है, जिससे स्थानीय लोगों समेत समूचे देश का इस तरफ ध्यान आकर्षित किया जा सके।
यात्रा के दूसरे दिन योगी आदित्यनाथ भी केरल पहुंचकर उसमें सम्मिलित हुए और उन्होंने इस्लामिक आतंक को संरक्षित करने का आरोप भी राज्य की वामपंथी सरकार पर लगाया। फिर मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान भी यात्रा में सम्मिलित हुए। इधर पिछले दिनों अमित शाह ने दिल्ली में भी जनरक्षा यात्रा निकालकर देश में राजनीतिक हत्याओं के विरुद्ध एक माहौल बनाने की कोशिश की। 18 अक्टूबर तक चलने वाली इस यात्रा में भाजपा के वरिष्ठ नेताओं के सम्मिलित होने की योजना है।
प्रश्न उठता है कि आखिर केरल, जहां भाजपा का कोई राजनीतिक वजूद नहीं रहा, में संघ-भाजपा के कार्यकर्ताओं की राजनीतिक हत्या क्यों की जा रही ? इस प्रश्न का उत्तर तलाशने के लिए हमें देश में वामपंथ की राजनीतिक स्थिति पर दृष्टि डालनी होगी। दरअसल ये वो वक्त है जब दुनिया में हाशिये पर जा चुका वामपंथ भारत में भी अपनी अंतिम साँसे गिन रहा है। बंगाल में इनका कबका सफाया हो चुका है। अन्य किसी राज्य में वामपंथी दलों और नेताओं की कोई चर्चा तक नहीं होती।
हालिया उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में पहली बार भाकपा, माकपा और भाकपा (माले) ने विधानसभा चुनावों के लिए साझा प्रत्याशी उतारे। उन्होंने सौ सीटों पर कम से कम प्रति सीट 10 से 15 हजार वोट हासिल करने का लक्ष्य रखा। यही नहीं, इनके बेहतर प्रदर्शन करने के लिए वामदलों से सीताराम येचुरी, डी. राजा, वृंदा करात, दीपांकर भट्टाचार्य जैसे करीब 70 दिग्गज नेताओं ने प्रचार किया। लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ।
आंकड़े बताते हैं कि करोड़ों की आबादी वाले उत्तर प्रदेश में वामदल कुल मिलाकर 1 लाख 38 हजार 763 वोट ही हासिल कर सके। यह कुल मतों को .2 प्रतिशत होता है। वहीं नोटा के लिए प्रदेश की जनता ने 7 लाख 57 हजार 643 वोट दिए, यह करीब .9 फीसदी बैठता है। इन आंकड़ों से देश में वामपंथ की राजनीतिक बदहाली का अनुमान लगाया जा सकता है। कुल मिलाकर वामपंथियों के पास फिलहाल केरल और त्रिपुरा सिर्फ ये दो राज्य बचे हैं।
केरल में संघ ने धीरे-धीरे अपनी अच्छी पैठ स्थापित कर ली है। पिछले कई चुनावों के दौरान केरल और त्रिपुरा दोनों राज्यों में भाजपा के मत प्रतिशत में लगातार इजाफा देखने को मिला है। केरल में भाजपा का ये बढ़ता प्रभाव वाम दलों को बेहद खल रहा है, इस कारण राजनीतिक हिंसा का उनका स्वभाव अब और उग्र रूप में सामने आने लगा है। एक अनुमान के मुताबिक़ पी. विजयन द्वारा केरल की सत्ता संभालने के बाद से अबतक औसतन हर पच्चीस दिन पर एक संघ या भाजपा के कार्यकर्ता की हत्या हुई है।
अब जनरक्षा यात्रा के जरिये भाजपा ने राज्य में अपनी बढ़ती धमक की एक बानगी भी दिखा दी है। वामपंथी दल भले यह कहते रहें कि इस यात्रा का कोई असर नहीं पड़ेगा, मगर वास्तविकता यही है कि ये यात्रा केरल में वामपंथी शासन के समक्ष भाजपा की चुनौती के एक आधिकारिक एलान की तरह है। यदि राजनीतिक हत्याओं का ये मुद्दा चल गया तो भाजपा का केरल में एक मजबूत विकल्प बनकर उभरना तय है।
केरल के अलावा अब भाजपा की नजरें आसन्न विधानसभा चुनाव में त्रिपुरा में अच्छा प्रदर्शन करने के साथ 2019 के लोकसभा चुनाव में पूर्वोत्तर में 20-25 सीटें जीतने पर हैं। अगले वर्ष त्रिपुरा में होने वाले विधानसभा चुनाव की तैयारी भाजपा ने शुरू कर दी है। इसी कड़ी में पिछले दिनों अमित शाह वहां रैली कर चुके है। त्रिपुरा की कुल 38 लाख आबादी में 21 लाख मतदाता हैं। चार विधानसभा क्षेत्रो में कुल 2 लाख मतदाता मणिपुरी हैं। मणिपुर में भाजपा सत्ता हासिल कर चुकी है और भाजपा को इन पर काफी भरोसा है।
अब अपने आखिरी बचे इन गढ़ों में भाजपा की धमक से वामपंथी हुक्मरान अंदर ही अंदर सन्नाटे में हैं। उन्हें समझना चाहिए कि भाजपा यदि आज देश में भर में बेहतर प्रदर्शन कर रही है, तो इसके पीछे मुख्य कारण केंद्र और राज्यों में उसकी सरकारों का बेहतरीन प्रदर्शन तथा संगठन के रूप में जमीनी मेहनत है। सत्तारूढ़ दल होने के बावजूद भाजपाध्यक्ष अमित शाह लगातार कार्यकर्ताओं और जनता से संवाद कर रहे हैं। राष्ट्रव्यापी भ्रमण कर रहे हैं। ये भाजपा की विजय का कारण है।
अगर वामपंथियों को भाजपा का मुकाबला करना है, तो उन्हें भी शासन और संगठन दोनों स्तरों पर जनता से जुड़ना चाहिए। लोकतंत्र का यही दस्तूर है। अब यदि वे राजनीतिक हिंसा से भाजपा को रोकने की कोशिश करेंगे तो भाजपा को तो रोक नहीं पाएंगे, मगर अपना बड़ा नुकसान अवश्य कर लेंगे।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)