राजीव रंजन प्रसाद
लेखकीय जमात में मॉस्को से लेकर दिल्ली तक घनघोर शांति है। समाजसेवा की दुकानों में इस समय नया माल उतरा नहीं है। वो येल-तेल टाईप की चालीस-पचास युनिवर्सिटियां जिन्होंने जेएनयू देशद्रोह प्रकरण में नाटकीय हस्तक्षेप किये थे और कठिन अंग्रेजी में कठोर बयान जारी किये थे उनके अभी एकेडेमिक सेशन चल रहे हैं, या शायद पीएचडी का वायवा होने वाला है? महिला अधिकार, मानवाधिकार और विशेषाधिकार वगैरह यह सुन कर मेडिटेशन में हैं कि एनआईटी कश्मीर में छात्राओं को बलात्कार की और संस्थान को शमसान बना देने की धमकियां मिली हैं। यह भी सही है कि मीडिया से कश्मीर के इस तकनीकी शिक्षण संस्थान के छात्रों को अपनी बात कहने का अवसर क्यों मिलना चाहिये? यह तो विशेषाधिकार है दिल्ली की एकमेव बुद्धिजीवी युनिवर्सिटी का, जहां से देशद्रोह के आरोपी भी लाइव टेलिकास्ट किये जाते हैं? लाइव टेलिकास्ट से याद आया कि आज पत्रकारिता का यही असल चेहरा है जो बता कर अपनी स्क्रीन काली करने की आवश्यकता भी महसूस नहीं की गयी? दोहरे मापदण्डों का इससे बेहतर उदाहरण पूरे विश्व में दूसरा नहीं है चाहे तो कोई निवेदिता मेनन इस विषय पर पीएचडी करवा कर इसे सत्यापित भी कर सकती है।
यह तो प्रश्न ही नहीं है कि श्रीनगर के शिक्षण संस्थान में जो कुछ भी पिछले दिनों हुआ वह अभिव्यक्ति की आजादी और असहिष्णुता पर हमारी बहसों के केन्द्र में क्यों नहीं आ सका है? कड़वा सच तो यह है कि जब कश्मीरी पण्डितों का विस्थापन और उनका समुचित पुनर्वास न हो सकने की सत्यताओं को उजागर करना आज की पत्रकारिता आवश्यक नहीं समझती तो जाहिर है कि हाथ में तिरंगा उठाये छात्र वैसे भी बेमानी लगते होंगे? भारतीय विजुअल मीडिया केवल वाहयात बयानों और नाटकीय सवालों पर केन्द्रित है क्योंकि यही उनकी टीआरपी बढाने का रास्ता है। जिन दिनों भूत-प्रेत की कहानियां दर्शक बढाया करती थीं विजुअल मीडिया ने तब सूनी हवेलियां और भानगढ की पहेलियाँ ही दिखाईं, जब इन्द्राणी मुखर्जी का ग्लैमर बिकने वाला समाचार था वह प्राईमटाईम बना रहा, जब आरूषी मर्डर केस जैसा कुछ सनसनीखेज नहीं होता तो कुछ कथित साध्वियाँ और कठमुल्ले हैं ही जिनके वाहियात बयानों पर चीख चीख कर गर्मागरम बहस यह घोषित करते हुए की ही जा सकती है कि वे पूरे देश के हिन्दू या मुसलिम समाज के प्रवक्ता है?
यह तो ठीक नहीं कि घटना एनआईटी, कश्मीर में घटे और आलोचना मीडिया की की जाये? फिर क्या हुआ कि दो महीने तक लगातार लगभग हर मीडिया चैनल भारत की बर्बादी तक जंग रहेगी जंग रहेगी, भारत तेरे टुकडे होंगे इंशाअल्लाह इंशाअल्लाह, भारत को रगडा दे रगडा, बंगाल मांगे आजादी, केरल मांगे आजादी वगैरह वगैरह नारों को लगाये जाने की पूरी घटना को जस्टीफाई करने में लगा रहा? एनआईटी कश्मीर की खबर आयी और चली गयी क्या यह इसलिये है क्योंकि नारे लगाने वाले हाथों में तिरंगे थे अथवा उनका प्रतिरोध भारत की विखण्डनवादी ताकतों के विरुद्ध था? अगर जेएनयू के कैम्पस में बुला बुला कर लगातार एक पक्षीय बहसें खडी की जा सकती हैं तो कम से कम इतना तो किया ही जा सकता है कि कश्मीर में पढ रहे छात्रों की बात और उनके गुस्से को भी सुना समझा जाये? ध्यान से उस पैटर्न को समझना चाहिये कि कैसे कोई आरोपी छात्र पूरी शातिरी और प्रचारतंत्र के साथ हीरो बनाया जाता है और क्यों कश्मीर के शिक्षण संस्थान में अपनी बात रखने के लिये मीडिया की और बढ रहे बच्चों पर लाठियाँ भांजी जाती है और इस बात को भी सही तरीके से उठाने का साहस लोकतंत्र का यह कथित खम्बा नहीं कर पाता?
कितना अच्छा है न यह चुप्पी का खेल? लेखक चुप पत्रिकायें भी चुप, पत्रकार चुप, अखबार भी चुप, मोमबत्तियां चुप, जंतरमंतर भी चुप, नेता चुप प्रशासन भी चुप। केवल कराह रहे हैं तो वे छात्र जिनकी अक्षम्य गलती है कि वे जवाहरलाल नेहरू युनिवर्सिटी, नयी दिल्ली में नहीं पढते। जिनकी गलती है कि वे उस विचारधारा की पक्षधरता दिखाते प्रतीत नहीं होते जिसके पोषक अधिकतर लेखक, प्रकाशन ससंस्थायें, पत्रकार और सम्पादक हैं। वैचारिक बहसों के वर्तमान दौर में यदि कहीं निर्पेक्ष बहस हो सकी है तो वह सोशल मीडिया में ही, वरना तो हर कोई जानता है कि समाचार कब क्रांतिकारी होते हैं अथवा कब काला स्क्रीन करने से बात दूर तक जाती है और कैसे खामोशी से कोई बात दबा दी जाती है।
एनआईटी, कश्मीर के छात्र अपने आन्दोलन में असफल ही होंगे चूंकि वे उस दोहरे मापदण्ड का शिकार हैं जहां गलत को सही सिद्ध करने के तर्कधर कलमों और कैमरों के साथ बैठे हुए हैं। असहिष्णुता और अभिव्यक्ति की सभी हालिया बहसों को जेएनयू बनाम एनआईटी की तुला पर रख कर तो देखिये दोहरे मापदंडों की परिभाषा आप भी कर सकेंगे। जवानी के दौर से ही आत्ममुग्ध उसने आईना बेचना आरम्भ किया, बुढापे में अचानक बेचे जा रहे आईने में बुढिया ने अपना ही चेहरा देख लिया और डर कर मर गयी, यह कहानी अभी पूर्णविराम की प्रतीक्षा में है क्योंकि जिनके हाथों में माईक और सामने कैमरे हैं उन्हें दम्भ में आईना देखने की फुर्सत नहीं रही।
साभार: आइचौक.इन (ये लेखक के निजी विचार हैं)