तीसरे मोर्चे की राजनीति, जोड़-तोड़ के पुराने प्रपंच का नया पन्‍ना

एस शंकर

तीसरे मोर्चे या फेडरल फ्रंट की चर्चा राष्ट्रीय राजनीति में फिर शुरू हो गई है। लेकिन लगता है कई नेता तीस-चालीस साल पहले की मानसिकता में जी रहे हैं। BL28MAMATA03_2871276g‘लोकतंत्र में विपक्ष की मजबूती जरूरी है”, अथवा ‘गांधी, लोहिया, जयप्रकाश के आदर्श” जैसे जुमलों से कुछ स्पष्ट नहीं होता कि ऐसा मोर्चा करेगा क्या? केंद्र की सत्ता पाने की कोशिश के सिवा उसका पूरा नजरिया दिशाहीन लगता है। 

यदि हवाला लोकतंत्र का है तो मतदाताओं ने ऐसी उठक-बैठक को बार-बार खारिज किया है। लोकतंत्र में ‘विपक्ष” का मतलब जरूरी तौर पर राजनीतिक दल ही नहीं होता। अमेरिका में सत्ताधारी दल या विपक्षी दल के अध्यक्ष का नाम क्या है? अच्छे से अच्छे सामान्य-ज्ञान विशारद इसका उत्तर नहीं दे पाएंगे। क्योंकि वहां राजनीतिक दलों की विशेष भूमिका ही नहीं है। पार्टी-निर्देश पर राष्ट्रीय या प्रादेशिक राजनीति वहां बंधक नहीं होती। इसीलिए बेबात का ‘आंदोलन” करने, भड़काऊ नारों से लोगों के बीच फूट पैदाकर ‘पार्टी संगठन” खड़ा करने की कवायद भी नहीं होती। यह लोकतंत्र की भावना के अधिक अनुकूल है।

तथ्य यह है कि लोकतंत्र के लिए या सरकार पर नजर रखने के लिए दलों की कोई अनिवार्य भूमिका नहीं है। लोहिया-जेपी रटने वालों को याद करना चाहिए कि जयप्रकाश नारायण ने भी ‘पार्टी-विहीन लोकतंत्र” का प्रस्ताव दिया था। लोहिया ने पुन: अखंड भारत बनाने के लिए आरएसएस के साथ मिलकर काम किया था। हमारे समकालीन मनीषियों ने भी दलबंदी से ऊपर रहकर ही राष्ट्रीय उन्न्ति की चिंता की थी।

गांधीजी भी दलबंदी से ऊपर थे। जबसे वह राजनीति में आए, कांग्रेस उनके पीछे-पीछे चली। 1934 से तो गांधी उसी कांग्रेस के सदस्य तक नहीं थे, जिसे सदैव आदेश देते रहते थे। वस्तुत: स्वस्थ लोकतंत्र के लिए ‘विपक्षी दलों की मजबूती” अनर्गल विचार है। मुख्य बात समाज का स्वतंत्र, विवेकवान होना है। यह तब होता है जब उसकी इकाई यानी व्यक्ति स्वाभिमानी, विवेकशील और उत्तरदायी हो। लोकतंत्र भी तभी सफल है जब नेतृत्वकारी लोग गुणवान हों। अपने अच्छे-बुरे निर्णयों, उसके फलाफल की जिम्मेदारी लें। भाजपा और पूरे देश में मोदी की अभूतपूर्व सफलता में यह बिंदु भी पहचानना चाहिए। यह निरा व्यक्तिवाद नहीं है, बल्कि जिम्मेदारी लेकर काम करने, अपने को दांव पर लगाने की स्वीकृति है।

अत: विरोधी लोग चाहे जितना तंज कस लें, पर भाजपा द्वारा मोदी का अनुकरण वैसा ही है जैसा कांग्रेस द्वारा गांधीजी का था। नीतियां, नारे, कार्यक्रम गांधीजी तय करते थे। यदि सफलताओं का श्रेय मोदी को मिला है, तो विफलताएं भी वह स्वीकार करेंगे। तभी उन पर लोगों का भरोसा रहेगा या बढ़ेगा।

हमारे देश के संविधान में भी विपक्ष तो छोड़िए, ‘पक्ष” के लिए भी राजनीतिक दल की भूमिका अनिवार्य नहीं रखी गई। संविधान में राजनीतिक दल का उल्लेख तक नहीं था। यानी संविधान वैयक्तिक उत्तरदायित्व को स्थान देता है, दलीय को नहीं। इसलिए 52वें संशोधन द्वारा जोड़ा गया दलबदल विरोधी कानून (1985) यानी संसद, विधानसभाओं में पार्टी-निर्देश से चलने की बाध्यता मूल संविधान की भावना के प्रतिकूल है।

सच यह है कि स्वस्थ लोकतंत्र के लिए मुख्य जरूरत जागरूक, विवेकशील जनमत की है। अभिव्यक्ति की आजादी, स्वतंत्र मीडिया, सामाजिक संगठन व स्वतंत्र न्यायपालिका लोकतंत्र की गारंटी करते हैं। इस प्रकार विभिन्न् सियासी दल इस लोकतंत्र के परिणाम हैं, कारक नहीं। हमें गाड़ी को घोड़े के सामने नहीं लगा देना चाहिए।

व्यक्ति जिम्मेदार हो तो अधिक कारगर काम होता है। यही मोदी के उदाहरण से पुन: दिखा है। काम सदैव व्यक्ति करता है। समूह भी तभी करता लगता है, जब उसमें शामिल लोग जिम्मेदार हों। वे जिम्मेदारी से भागें या गलतियों, विफलताओं का ठीकरा दूसरों पर फोड़ें (जो जनता पार्टी, जनता दल, नेशनल फ्रंट, आदि में सदैव होता रहा है) तो अर्थ यही कि समूह केवल दिखावे का है। उसके लोग अपने-अपने निजी स्वार्थों से इकट्ठा हुए और अपना-अपना मतलब साधकर चलते बने। या ना सधने पर अलग होकर किसी अन्य जोड़-तोड़ में लग गए।

हमारे पिटे नेताओं को अमेरिकी लोकतंत्र से कुछ अच्छा सीखना चाहिए। वहां नेता कोई बड़ा चुनाव हारने के बाद राजनीतिक मंच ही छोड़ देते हैं। इस तरह नए नेता के लिए मार्ग प्रशस्त करते रहते हैं।

अत: हमें यह भी विचार करना चाहिए कि जब नेताओं का मुख्य लक्ष्य चुनाव जीतना है, तब वैचारिक एकता का ढकोसला ही क्यों? संसद, विधानसभा, निगम या पंचायत में स्थान पाने को ही अधिक स्वस्थ प्रतियोगी रूप क्यों ना दे दिया जाए? विचारधारा, जनांदोलन, पार्टी का सिपाही आदि दिखावे तथा हानिकारक जोड़-तोड़ छोड़ देना ही श्रेयस्कर है। राजनीतिक महत्वाकांक्षा वाले लोग खुलकर केवल सत्ता निकायों के चुनावों के लिए ही सक्रिय हों तो अच्छी राजनीति को बढ़ावा ही मिलेगा। इससे नेताओं और उनके समर्थकों को कुछ न कुछ बनावटी बातें गढ़ने, झूठे दिखावे तथा निरर्थक या हानिकारक प्रपंच रचते रहने से मुक्ति मिलेगी।

विविध क्षेत्रीय नेताओं का नया मेल-मिलाप उसी प्रपंच का नया पन्‍ना लगता है। मगर महज भाजपा-विरोध को आधार बनाने वालों को बदलता समय देखना चाहिए। देश हित चाहने वाले कर्मठ, विचारशील और उत्तरदायी नेता-कार्यकर्ता ही आगे मोदी का विकल्प होंगे, होने चाहिए। मोदी-केंद्रीयता को लोकतंत्र के लिए अहितकारी मान लेना या व्यर्थ ही उन्हें हराने का लक्ष्य रखकर जोड़-तोड़ करना पुरानी समझ है। भारत उस पड़ाव को पीछे छोड़ चुका लगता है।

(लेखक वरिष्‍ठ स्‍तंभकार हैं,यह लेख दैनिक नै दुनिया में 2 जून को प्रकाशित हुआ था)