जेपी ने कहा था कि अगर संघ फासीवादी है तो जेपी भी फासीवादी हैं!

इंदिरा गाँधी के यह कहने पर कि जेपी का यह पूरा आंदोलन संघ चला रहा है, अत: यह एक फासिस्ट आंदोलन है, जेपी ने साफ़ तौर पर कहा था, “अगर आरएसएस फासीवादी संगठन है तो जेपी भी फासीवादी हैं।” जिस संघ को कांग्रेस ने अपने खिलाफ उठे जनाक्रोश को भटकाने के लिए फासीवादी कहा था, उसी संघ की एक शिविर में जेपी 1959 में जा चुके थे। जेपी परम्परागत संघ स्वयं सेवक नहीं थे, मगर वो संघ को कभी अछूत भी नहीं माने। कांग्रेस के भ्रष्टाचार और तानाशाही हुकूमत वाले रवैये के खिलाफ उठे जनाक्रोश के बाद लगाईं गयी आपातकाल के बाद जब जेपी जेल से छूटे तो उन्होंने मुम्बई में एक सभा को संबोधित करते हुए कहा था “मैं आत्मसाक्ष्य के साथ कह सकता हूँ कि संघ और जनसंघ वालों के बारे में यह कहना कि वे फ़ासिस्ट लोग हैं, सांप्रदायिक हैं – ऐसे सारे आरोप बेबुनियाद हैं।”

लोकनायक जय प्रकाश नारायण के बारे में आम तौर पर कहा जाता है कि वे शुरूआती दौर में रूस की क्रान्ति से प्रभावित थे। फिर गांधीवाद से प्रभावित होते हुए समाजवाद का रुख किये। जेपी के तीन हिस्से तो पहले ही कहे जा चुके है, जिसमे जेपी का रूसी क्रान्ति से प्रभावित होना एवं फिर गाँधी के सानिध्य में आकर सत्य और अहिंसा की प्रवृति में घुल मिल जाना फिर समाजवाद का रुख करना, इत्यादि कई तथ्य हैं ! लेकिन समाजवादी एवं मार्क्सवादी चिन्तक जेपी के अंतिम दौर के वैचारिक परिवर्तन पर अनोखी चुप्पी साध लेते हैं। हालांकि उनकी यह चुप्पी बेजा नहीं है बल्कि इसकी पुख्ता वजह ये है कि अपने जीवन के अंतिम दौर में जेपी राष्ट्रवाद एवं संघ की वैचारिक सोच के करीब आ चुके थे।

जेपी के जीवन का अंतिम हिस्सा अगर इस पूरे जेपी वर्णन में लिखा जाय जिसके बिना जेपी मुक्कमल नहीं होते हैं, तो निश्चित तौर पर उस हिस्से में जेपी और जनसंघ के बीच  एक वैचारिक साम्य नजर आएगा। नजीर वहीं  से देना सबसे मुनासिब होगा जिसमें इंदिरा गाँधी के यह कहने पर कि जेपी का यह पूरा आंदोलन संघ चला रहा है, अत: यह एक फासिस्ट आंदोलन है, जेपी ने साफ़ तौर पर कहा था “अगर आरएसएस फासीवादी संगठन है तो जेपी भी फासीवादी हैं।”

जिस संघ को कांग्रेस ने अपने खिलाफ उठे जनाक्रोश को भटकाने के लिए फासीवादी कहा था, उसी संघ की एक शिविर में जेपी 1959 में जा चुके थे। जेपी परम्परागत संघ स्वयं सेवक नहीं थे, मगर वो संघ को कभी अछूत भी नहीं माने। कांग्रेस के भ्रष्टाचार और तानाशाही हुकूमत वाले रवैये के खिलाफ उठे जनाक्रोश के बाद लगाईं गयी आपातकाल के बाद जब जेपी जेल से छूटे तो उन्होंने मुम्बई में एक सभा को संबोधित करते हुए कहा था “मैं आत्मसाक्ष्य के साथ कह सकता हूँ कि संघ और जनसंघ वालों के बारे में यह कहना कि वे फ़ासिस्ट लोग हैं, सांप्रदायिक हैं – ऐसे सारे आरोप बेबुनियाद हैं। देश के हित में ली जाने वाली किसी भी कार्ययोजना में वे लोग किसी से पीछे नहीं हैं। उन लोगों पर ऐसे आरोप लगाना उन पर कीचड़ फेंकने के नीच प्रयास मात्र हैं।” जेपी के आन्दोलन में संघ की भूमिका का जिक्र करते हुए सुप्रसिद्ध समाचार पत्र ‘दि इकोनोमिस्ट‘ लन्दन, दिनांक 4 दिसंबर, 1976 के अंक में लिखता है, ”आरएसएस विश्व का अकेला गैर-वामपंथी क्रांतिकारी संगठन है।”

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अपनी ही बात को दोहराते हुए 3 नवंबर 1977 को पटना में संघ के लिए जेपी ने कहा था कि नए भारत के निर्माण की चुनौती को स्वीकार किये हुए इस क्रांतिकारी संगठन से मुझे बहुत कुछ आशा है। आपमें ऊर्जा है,आपमें निष्ठा है और आप राष्ट्र के प्रति समर्पित हैं। अब बड़ा सवाल है कि अगर वाकई घटनाओं के सिलसिलेवार वर्णन के आधार पर यदि जेपी को समझने का प्रयास किया जा रहा हो तो इतने महत्वपूर्ण और जेपी के जीवन के अंतिम दिनों के घटनाओं पर पर्दा डाल कर भला जेपी को कैसे समझा जा सकता है ?

मेरा अपना तर्क है कि जेपी रूसी मार्क्सवादी क्रान्ति से प्रभावित होकर शुरुआत किये और फिर उन्हें सत्य-अहिंसा के गाँधी दर्शन का सानिध्य मिला। समाजवाद ने जेपी को आजाद भारत के जनता से जोड़ा जो कि सरकार से असंतुष्ट हो रही थी। लेकिन, इस सच को कतई खारिज नहीं किया जा सकता कि अपने अंतिम समय में जेपी राष्ट्रवादी हो चले थे और राष्ट्रवाद के मूल्यों पर ही जेपी ने इंदिरा गाँधी गद्दी छोड़ो की बुनियाद पर “सिंहासन खाली करो कि जनता आती है” का नारा दिया! सम्पूर्ण क्रान्ति आन्दोलन के दौर में भारतीय जनसंघ और अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के नेताओं-कार्यकर्ताओं के समर्पण, ईमानदारी और निष्ठा को जेपी ने करीब से देखा, परिणामत: अनेक कार्यकर्ताओं को महत्वपूर्ण दायित्व भी सौपे थे। संघ-परिवार से जुड़े ये कार्यकर्ता जेपी की अपेक्षाओं पर सदैव खरे उतरे।

जेपी के नेतृत्व में चल रहे छात्र एवं युवा संघर्ष वाहिनी‘ के राष्ट्रीय संयोजक एबीवीपी के नेता और दिल्ली विश्वविद्यालय छात्र संघ के तत्कालीन अध्यक्ष अरुण जेटली बनाए गए थे। दुसरी तरफ आपातकाल में सरकारी आतंक के खिलाफ जनजागरण हेतु बनी ‘लोक संघर्ष समिति‘ का महामंत्री जेपी ने संघ के प्रचारक और प्रसिद्ध जनसंघ नेता नाना जी देशमुख को बनाया था।

जेपी साम्प्राद्यिकता के सदा खिलाफ रहे और उनको यह मानने में कभी गुरेज नहीं हुआ कि संघ अथवा जनसंघ एक राष्ट्रवादी संगठन है ना कि साम्प्रदायिक संगठन है। अत: जेपी का जीवन बिना उनके जनसंघ के संबंधों के कभी पूरा नहीं हो सकता। आज समय है कि हम बीच के तिराहे पर नहीं खड़े हो सकते बल्कि हमें जेपी को केन्द्र में रख कर ये तय करना ही होगा कि संघ फासीवादी है अथवा जेपी फासीवादी थे ? या इसके इतर ये सोचना होगा कि संघ और जेपी तो अपनी जगह सही हैं बल्कि हम ही बुनियादी तर्कों की सच्चाई पर पर्दा डाल कर तमाम कुतर्क गढ़ रहे है। जेपी के जीवन का यह महत्वपूर्ण हिस्सा भी लिखा जाना चाहिए जिसपर बहुत कम चर्चा होती है।

(लेखक डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी रिसर्च फाउंडेशन में रिसर्च फेलो हैं और नेशनलिस्ट ऑनलाइन के संपादक हैं।)