विष्णुगुप्त
कैराना का सच डरावना है। कैराना की आग पर पानी डालना ही होगा। इस देश में तो उल्टा ही हो रहा है। दुनिया भर में जहां अल्पसंख्यकों का उत्पीड़न होता है, अल्पसंख्यकों को मारा जाता है, अल्पसंख्यकों को भगाया जाता है पर भारत में बहुंसख्यक ही मारे जा रहे हैं, बहुसंख्यक ही भगाये जाते हैं-जा रहे हैं, बहुसंख्यक ही प्राण बचाने के लिए इधर-उधर पलायन कर रहे हैं। कश्मीर से भगाये-खदडे गये हिन्दू आज तक कश्मीर नहीं लौट सके। असम के 17 जिलों से बहुसंख्यकों को खदेड़ दिया गया और वहां पर बांग्लादेशी घुसपैठियों ने बहुसंख्यकों की जमीन पर कब्जा कर बैठे हैं। पश्चिम बंगाल के एक जिले खुलेआम हिन्दू व्यापरियों को अपनी दुकानों में कुरान रखने का फरमान सुनाया जाता है, कुरान नहीं रखने पर हत्या तक की धमकी दी जाती है। केरल में कई ऐसे क्षेत्र हैं जहां पर मुस्लिमों कट्टरपंथियों की सामानंतर सरकारें चलती है। बिहार के कई जिले बांग्लादेशी घुसपैठियों की समस्या से त्रस्त हैं जहां से हिन्दुओं का पलायन जारी है। बहुसंख्यकों पर हो रहे इस अत्याचार और अमानवीय करतूत का पर्दाफाश और मुस्लिम समुदाय की इस हिंसक मानसिकता का खुलाशा इसलिए नहीं हो पाता है कि मीडिया इस पर संज्ञान ही नहीं लेता है। फर्जी सेकुलरवादी ऐसी घटनाओं को पर्दा डालने की कोशिश ही नहीं करते हैं बल्कि बहुसंख्यकों को ही हिंसक बताने का खेल-खेलते हैं। अगर बहुसंख्यक हिंसक होते तो फिर कैराना से बहुसंख्यक पलायन करने के लिए क्यों बाध्य होते?
कैराना के सच को देश स्वीकार करने के लिए तैयार क्यों नहीं है। तथाकथित मानवाधिकार संगठन, तथाकथित उदारवादी, तथाकथित धर्मनिरपेक्ष जमात कैराना क्यों नहीं जाना चाहते हैं, ये कैराना की इस घटना पर चुप्पी क्यों साधे बैठे हैं? कहां हैं सहिष्णुता के चालबाज पत्रकार, साहित्यकार, और रंगकर्मियों की जमात ? असहिष्णुता सिर्फ अल्पसंख्यकों पर होेने वाले कथित उत्पीड़न पर ही उत्पन्न होता है क्या? अति मुस्लिम वाद की राजनीति कब बंद होगी? अति मुस्लिम वाद की राजनीति से क्या विखंडनवादी, हिंसावादी घृणावादी मानसिकताएं बढ़ती नहीं हैं क्या? क्या सिर्फ ऐसा कैराना में ही हुआ है या हो रहा है ? क्या असम, केरल, बिहार आदि पश्चिम बंगाल आदि राज्यों में कैराना जैसी घटना नहीं घटी है या नहीं घट रही है ? अगर कैराना जैसी आग अगर अन्य जगहों पर फैलेगी तो फिर देश की स्थिति कितनी गंभीर, कितनी खतरनाक होगी, इसका अंदाजा क्या नहीं लगाया जाना चाहिए? सच तो यह है कि कैराना जैसी घटनाओं को अभी तक देश समझने के लिए तैयार नहीं है। कोई एक नहीं बल्कि 400 से ज्यादा हिन्दू परिवार अगर अपना घर द्वार छोड़कर भागने के लिए मजबूर होते हैं तो यह कोई छोटी घटना नहीं है और न ही इसके दुष्परिणाम कोई कम है बल्कि एक बड़ी चिंतावाली घटना है और इसके दुष्परिणाम भी बहुत खतरनाक होंगे। मुजफ्फरनगर दंगे से पूर्व की स्थितियों पर जब देश ने संज्ञान नहीं लिया था, उत्तर प्रदेश की मुलायम-अखिलेश यादव की सरकार ने जब आंखें मुंद लिया था, मीडिया ने उदासीनता की चादर ओढ लिया था, तथाकथित धर्मनिरपेक्ष लोगों ने उल्टे अपराधियों के पक्ष में खड़े हो गये थे तब कितनी भयानक त्रासदी हुई थी कितनी भयानक हिंसा हुई थी, कितने निर्दोष लोगों की जाने गयी थी, कितने निर्दोष लोग राहत शिवरों में रहने के मजबूर हुए थे, आज भी हजारों लोग राहत शिविरों में रहने के लिए बाध्य हैं। आग पर समय रहते पानी डालना चाहिए। इसलिए कैराना की आग देश के दूर-दराज तक न पहुंचे इसके लिए कोशिश होनी चाहिए। पर उत्तर प्रदेश की सरकार जागेगी और अपने वोटबैंक पर कानून का सौंटा चलायेगी, यह कहना संभव नहीं है.देश की राजनीति को, देश के मीडिया को, देश के तथाकथित बुद्धिजीवियों को, देश के साहित्यकारों को, देश के फर्जी सेकुलरों को और उत्तर प्रदेश की मुलायम-अखिलेश सरकार को यह मालूम नहीं है कि कैराना की इस घटना से जुड़ी हुई खबर देश के कोने-कोने तक पहुंच गयी है। किस प्रकार से घृणास्पद स्थितियां उत्पन्न हुई है, किस प्रकार से उस समुदाय के प्रति घृणा का वातावरण बना है, किस प्रकार से बहुसंख्यकों को मन को झकझोरा है, किस प्रकार से लोग कैराना की घटना के खिलाफ लामबंद हो रहे हैं, किस प्रकार से मुस्लिम समुदाय के प्रति घृणा फैल रही है, इसका आकलन मीडिया और सरकार को करना चाहिए।एक अखलाक की हत्या और उपद्रव पर कई महीनो तक चिल्ल पौ करने वाला भारतीय मीडिया शायद तब कैराना के सच पर संज्ञान लेगा जब इसकी खतरनाक प्र्रतिक्रिया देश के कोने-कोने से होने लगेगी। गोधरा कांड पर ऐसे ही मीडिया चुप्पी साधा था। गोधरा कांड में मारे गये कारसेवकों पर ही मीडिया ने घृणास्पद रिपोर्टिंग की थी, घटना के लिए कारसेवकों को ही जिम्मेदार ठहराया था। मुजफ्फरनगर दंगे को ही उदाहरण ले लीजिये। मुजफ्फरनगर दंगे के पहले मुजफ्फरनगर के अंदर कोई एक नहीं बल्कि दर्जनों घटनाएं घटी थी जिसमें एक खास समुदाय की संलिप्तता थी जिस पर उत्तर प्रदेश की सरकार का संरक्षण था, आजम खान जैसे लोग पुलिस और प्रशासन के हाथ बांध रखे थे। उसकी परिणति कितनी घातक हुई थी यह कौन नहीं जानता है। इसलिए मीडिया या फिर राजनीतिक संवर्ग कैराना के प्रसंग पर उदासीनता न बरते। ऐसे भी मीडिया या अन्य संवर्ग के लोगों का भ्रम टूट जाना चाहिए। यह दौर वैकल्पिक मीडिया का है। वैकल्पिक मीडिया के रूप में सोशल मीडिया, वेब मीडिया है। कैराना की घटना को सोशल मीडिया ने जिस मजबूती और गंभीरता से उठाया है उससे यह खबर देश के दूर दराज तक भी फैली गयी है। सोशल मीडिया पर कैराना कांड पर प्रतिक्रिया भयानक है, मुस्लिम समुदाय के प्रति घृणा और मुस्लिम समुदाय के प्रति उग्रता काफी है। घृणा और उग्रता कभी न कभी अपनी भूमिका रक्तरंजित करती ही है।
इस घटना को वोट की राजनीति कह कर खारिज करना मूर्खताभरा कार्य है। परजीवी और फर्जी सेकुलरवादियों ने कहना शुरू कर दिया है कि कैराना की घटना को दखिण पंथी अपने फायदे के लिए हवा दे रहे हैं, इस पर रोटियां सेक रहे हैं। परजीवी और फर्जी सेकुलरवादियों की यह बात सही भी हो सकती है। राजनीति मे फायदे वाले प्रश्न पर हवा दी ही जाती है, उस पर रोटियां सेकी जाती है, सत्ता में पहुंचने के हथकंडा बनाया ही जाता है। यह भारतीय राजनीति का सच है। सिर्फ भारत ही क्यों बल्कि पूरे दुनिया के लोकतंत्र में इस तरह की प्रवृति राजनीति में निश्चित तौर बैठी है, हावी है। अमेरिका में मुस्लिम विरोध के हथकंडे से चुनावी सत्ता हासिल करने की कोशिश हो रही है। रिपब्लिकन प्रत्याशी डोनाल्ड ट्रम्प ने अति मुस्लिम विरोध को हवा देकर ऐसी सनसनी फैलायी है जिससे पूरी दुनिया ही अंचभित और संशकित है। अति मुस्लिम विरोध के हथकंडे से डोनाल्ड ट्रम्प राष्ट्रपति भी बनना चाहते है,उन्हें समर्थन भी मिल रहा है। यह सही है कि भाजपा हिन्दुत्व के प्रश्न को जरूर लपकती है और हिन्दुत्व के प्रश्न को अपनी शक्ति बनाती है। लेकिन भाजपा विरोधी राजनीतिक पार्टियां क्या करती हैं? यह भी किसी छिपी हुई बात है क्या? क्या लालू, मुलायम,मायावती, करूणानिधि, कांग्रेस और कम्युनिस्ट पार्टियां अति मुस्लिम वाद पर सवार नहीं होती हैं? क्या ये सभी राजनीतिक पार्टियां चुनावी सत्ता हासिल करने के लिए अति मुस्लिम वाद का कार्ड खेलकर चुनाव नहीं जीतती है? अभी-अभी पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी और केरल में कम्युनिस्टों ने मुस्लिम कार्ड खेलकर विधान सभा चुनाव जीते हैं। कांग्रेस तो आजादी प्राप्ति के बाद से ही मुस्लिम तुष्टिकरण करते आयी है। पिछले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की हार के पीछे अति मुस्लिमवाद ही था। इसलिए यह कहना सही नहीं है कि सिर्फ भाजपा ही हिन्दुओं के प्रश्न को हवा देकर चुनावी सफलता हासिल करती है।
मुलायम-अखिलेश के राज में मुस्लिम तुष्टिकरण का खेल कुछ ज्यादा ही हो गया। यह भी सही है कि जब-जब मुलायम की पार्टी सपा में सत्ता मे आती है तब-तब उत्तर प्रदेश में सांप्रदायिक घटनाएं बढ जाती हैं, अपराध की घटनाएं बढ जाती हैं, अराजकता फैल जाती है। मुजफ्फरनगर दंगा इसका सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है। मुजफ्फरनगर दंगा की शुरूआती जड़पर कानून का प्रहार कर रोका जा सकता था। पर मुलायम-अखिलेश सरकार ने उदासीनता बरती। कैराना की घटना को भाजपा अगले लोकसभा चुनाव में अपनी शक्ति बना सकती है।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं, यह लेख खबर लाइव वेब पोर्टल से लिया गया है)