संजय गुप्त
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की चौथी अमेरिकी यात्रा कई मायने में ऐतिहासिक रही। इस यात्र को लंबे समय तक सिर्फ इसलिए ही याद नहीं रखा जाएगा कि उन्होंने अमेरिकी संसद में प्रभावशाली भाषण दिया, बल्कि इसलिए भी कि वह अमेरिका के साथ भारत के संबंधों को एक नई ऊंचाई तक ले गए। जिस अमेरिकी संसद ने एक समय उनके अमेरिका प्रवेश पर पाबंदी लगाई थी उसने ही बतौर भारतीय प्रधानमंत्री उन्हें न केवल मंत्रमुग्ध होकर सुना, बल्कि अभूतपूर्व तरीके से सराहा भी। यह सामान्य बात नहीं कि उनके भाषण में 66 बार तालियां बजीं और आठ बार सांसदों ने खड़े होकर उनका अभिवादन किया। अमेरिकी सांसदों में उनका ऑटोग्राफ लेने की भी होड़ दिखी। प्रधानमंत्री का यह स्वागत और सम्मान विश्व बिरादरी में भारत की बढ़ती भूमिका का सूचक है। अमेरिकी राष्ट्रपति के साथ उनकी करीब आधा दर्जन मुलाकातों ने दोनों देशों के रिश्तों में जबरदस्त गर्माहट पैदा की है। वैसे तो मोदी अमेरिकी संसद को संबोधित करने वाले चौथे भारतीय प्रधानमंत्री हैं, लेकिन प्रभाव के लिहाज से वह सबसे ऊपर माने जाएंगे। उनके भाषण में अमेरिकी और भारतीय राजनीति को लेकर एक चुटकी भी थी, जिस पर वहां के सांसदों के ठहाके गूंजे। उन्होंने हल्के-फुल्के अंदाज में दोनों देशों के उच्च सदनों को एक जैसा बताया-खासकर सरकार को सहयोग देने के लिहाज से। इसी दौरान उन्होंने दलगत राजनीति की समस्याओं को भी रेखांकित किया। प्रधानमंत्री ने तब भी अमेरिकी सांसदों को ठहाके लगाने को बाध्य किया जब उन्होंने योग के प्रति अमेरिकी नागरिकों के रुझान का उल्लेख करते हुए कहा कि हमने अभी तक इस पर पेटेंट का दावा नहीं किया है। उनके भाषण ने अमेरिकी सांसदों को यह यकीन भी दिलाया कि अब भारत का समय आ गया है और उसकी समृद्धि में ही अमेरिका के हित में है।
अमेरिका में नवंबर में राष्ट्रपति पद के चुनाव होने जा रहे हैं। भावी अमेरिकी प्रशासन का भारत के प्रति चाहे जो दृष्टिकोण हो, यह तय है कि उसके लिए भारत की अनदेखी करना आसान नहीं होगा। पिछले दो वर्षो में मोदी ने अमेरिका के साथ रिश्तों को सुधारने और उन्हें एक नए मुकाम तक ले जाने के लिए जैसी नीतिगत स्पष्टता प्रदर्शित की है वह उनकी दूरदर्शिता का परिचायक है।
इसमें दो राय नहीं कि अमेरिकी उद्योग जगत को भारत की खास आवश्यकता है, क्योंकि चीन का बाजार सुस्ती का शिकार हो रहा है और पूरा विश्व भारत की ओर उम्मीद से देख रहा है। प्रधानमंत्री ने अमेरिका और भारत को मजबूत व्यावसायिक सहयोगी बताकर यह संकेत दे दिया कि आने वाले समय में विश्व की अर्थव्यवस्था की दिशा क्या होगी? दुनिया के लिए सबसे बड़ा खतरा बने आतंकवाद का उल्लेख करते हुए उन्होंने पाकिस्तान का नाम लिए बगैर जब यह कहा कि उनके पड़ोस में आतंकवाद को प्रश्रय दिया जा रहा है तो हर किसी को यह स्पष्ट हो गया कि वह किस देश का उल्लेख कर रहे हैं। उन्होंने लश्कर, तालिबान और आइएसआइएस को दुनिया के लिए समान रूप से खतरनाक बताते हुए कहा कि उनके नाम अलग-अलग हो सकते हैं, लेकिन उनका दर्शन और मकसद एक ही है। यह उल्लेखनीय है कि अमेरिकी संसद में मोदी के संबोधन के अगले ही दिन अमेरिका ने पाकिस्तान को आतंकवाद से बाज आने की चेतावनी दे डाली।1छह दिनों में पांच देशों के दौरे में प्रधानमंत्री की सबसे बड़ी उपलब्धि नाभिकीय आपूतिकर्ता समूह यानी एनएसजी में भारत के प्रवेश की मजबूत जमीन तैयार करना रही। एनएसजी में भारत के प्रवेश को जिस तरह स्विट्जरलैंड और अमेरिका के बाद मैक्सिको ने भी समर्थन दिया वह मोदी की उच्चस्तरीय कूटनीति का प्रमाण है। ये देश नाभिकीय अप्रसार संधि में हस्ताक्षर किए बिना एनएसजी में भारत के प्रवेश का विरोध करते रहे हैं, लेकिन अब वे मान रहे हैं कि इस समूह से भारत को अलग नहीं रखा जा सकता। एनएसजी में भारत का प्रवेश नई राह खोलने वाला साबित होगा। इसके आसार अभी से नजर आने लगे हैं। एक अमेरिकी कंपनी भारत में छह परमाणु रिएक्टर बनाने जा रही है। 1प्रधानमंत्री की सफल अमेरिकी यात्र से जल-भुन गए पाकिस्तान ने चीन की मदद से एनएसजी में खुद को प्रवेश देने की आवाज उठाई है, लेकिन इसमें संदेह है कि उसे इसमें सफलता मिलेगी। एक-दो अन्य देशों के साथ चीन भी इस कोशिश में है कि भारत को एनएसजी में प्रवेश न मिल सके। भारत के आवेदन पर विचार करने के लिए विएना में हुई एनएसजी की बैठक तो बेनतीजा रही, लेकिन उम्मीद है कि इसी मसले पर होने वाले मतदान में भारत को सफलता मिल जाएगी। इसका एक कारण यह है कि प्रमुख देश अब भारत की अनदेखी करने की स्थिति में नहीं और वे यह समझ गए हैं कि एशिया में चीन को नियंत्रित करने के लिए भारत का मजबूत होना आवश्यक है। 1विपक्षी दल मोदी के विदेश दौरे पर कुछ भी कहें, यह एक सच्चाई है कि कूटनीति के मोर्चे पर मोदी सरकार पिछली सरकारों से कई कदम आगे दिख रही है। यदि भारतीय प्रधानमंत्री अमेरिकी संसद में दक्षिण चीन सागर क्षेत्र में चीन की मनमानी के खिलाफ आवाज उठा सके तो यह साफ है कि भारत अब अपने बढ़े कद के अनुरूप विश्व के प्रमुख मुद्दों पर अपनी राय रखने के लिए तैयार है। उन्होंने आतंकवाद से लेकर पर्यावरण तक की चर्चा भी की। यह भारतीय कूटनीति की कामयाबी ही है कि भारत अपने पुराने मित्र रूस के साथ संबंधों को सामान्य रखते हुए अमेरिका के साथ नजदीकी कायम करने में सफल है। भारत और अमेरिका के आपसी रिश्तों की मजबूती का एक बड़ा कारण मोदी और ओबामा के बीच बना व्यक्तिगत तालमेल है। दो शासनाध्यक्षों के बीच ऐसा तालमेल कम ही देखने को मिलता है। अमेरिका में नवंबर में राष्ट्रपति पद के चुनाव होने जा रहे हैं। भावी अमेरिकी प्रशासन का भारत के प्रति चाहे जो दृष्टिकोण हो, यह तय है कि उसके लिए भारत की अनदेखी करना आसान नहीं होगा। पिछले दो वर्षो में मोदी ने अमेरिका के साथ रिश्तों को सुधारने और उन्हें एक नए मुकाम तक ले जाने के लिए जैसी नीतिगत स्पष्टता प्रदर्शित की है वह उनकी दूरदर्शिता का परिचायक है। उन्होंने न केवल अतीत के असमंजस को त्याग कर एक नई शुरुआत करने की बात कही, बल्कि अमेरिका को भारत का अनिवार्य सहयोगी भी बताया। अभी तक अमेरिका को स्वाभाविक सहयोगी के तौर पर ही रेखांकित किया जा रहा था। नरेंद्र मोदी शायद एक कदम और आगे इसलिए बढ़े, क्योंकि वह प्रधानमंत्री बनने के पहले ही तभी अमेरिका को भलीभांति समझ चुके थे जब उन्होंने अपना राजनीतिक जीवन शुरू ही किया था। अपने संबोधन में उन्होंने कहा भी कि उस दौरान उन्होंने 25 से ज्यादा अमेरिकी राज्यों का दौरा किया था और यह समझा था कि अमेरिकी शक्ति का स्नोत क्या है? अमेरिका के साथ भारत के अच्छे संबंध मौजूदा वक्त की एक सच्चाई हैं, बावजूद इसके यह देखना शेष है कि अमेरिका पाकिस्तान के मामले में उसकी चिंताओं को भलीभांति समझता है या नहीं? अमेरिका जिस तरह रह-रह कर पाकिस्तान को आर्थिक और सैन्य मदद देने को तैयार हो जाता है वह चिंताजनक भी है और अविश्वास का एक कारण भी। यह अविश्वास पूरी तरह तब समाप्त होगा जब आतंकवाद के मामले में अमेरिकी प्रशासन दोहरे रवैये का परित्याग करेगा। अगर अमेरिका को भारत की चिंताओं के अनुरूप अपने रवैये में सुधार लाने की आवश्यकता है तो भारत को भी अपने आर्थिक-प्रशासनिक ढांचे में सुधार करने की जरूरत है। मोदी के नेतृत्व में सुधार शुरू तो हुए हैं, लेकिन अभी भी बहुत कुछ बाकी है। मोदी की कूटनीतिक पहल का पूरा लाभ तभी मिलेगा जब देश में आंतरिक स्तर पर सरकारी मशीनरी कार्यकुशल बनेगी। ऐसा होने पर ही विकसित देश बिना किसी हिचक भारत में निवेश के लिए आगे आएंगे।
(लेखक दैनिक जागरण में समूह सम्पादक हैं, यह दैनिक जागरण में १२ जून को प्रकाशित हुआ है)