उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनावों में भारतीय जनता पार्टी की कामयाबी जितना चमत्कृत करती है, उतना ही पंजाब में आम आदमी पार्टी की नाकामी। यह नाकामी इसलिए भी महत्वपूर्ण बन जाती है क्योंकि दिल्ली की भांति केजरीवाल ने पंजाब में शपथ ग्रहण समारोह और चुनावी वायदों को पूरा करने का तिथिवार कार्यक्रम घोषित कर रखा था। इतना ही नहीं, पार्टी ने जीत का जश्न मनाने के लिए भारी-भरकम बंदोबस्त किया था। मुख्यमंत्री आवास के बाहर बड़ी-बड़ी एलसीडी स्क्रीन, बड़ा सा स्टेज, लोगों के बैठने के लिए हजारों कुर्सियां, गुब्बारों से सजा पूरा पंडाल जैसी व्यवस्था की गई थी, लेकिन जैसे-जैसे चुनावी नतीजे आते गए वैसे-वैसे यह उत्साह फीका पड़ता गया।
देखा जाए तो पार्टी के दावे हवा-हवाई नहीं कहे जाएंगे, क्योंकि वह पिछले एक साल से पंजाब विधान सभा चुनाव लड़ने की तैयारी में जुटी थी और दिल्ली के कई बड़े नेता महीनों से पंजाब में डेरा डाले हुए थे। पार्टी ने न केवल विदेशों से प्रचारक बुलाए बल्कि गांवों तक में अपनी पैठ बना ली थी। बेरोजगारी, नशीली दवाओं की व्यापकता, किसानों की बदहाली को पार्टी ने मुद्दा बनाया और पूरे राज्य में जमकर प्रचार किया। दिल्ली की भांति पंजाब में भी पार्टी ने चुनावी वायदों की झड़ी लगा दी; जैसे वेतन-पेंशन बढ़ाने, मुफ्त में लैपटाप और वाई-फाई देने, कम कीमत में भोजन और दिल्ली की भांति मोहल्ला क्लीनिक की स्थापना, दलितों के लिए एक खास पैकेज देने आदि।
हार और जीत चुनावी राजनीति के अहम अंग हैं, लेकिन पंजाब विधान सभा चुनावों से यह साबित हो गया कि आम आदमी पार्टी ने राजनीति में जिस शुचिता और ईमानदारी का आह्वान किया था, वह अब अतीत की बात हो चुकी है। जिस पार्टी ने जनलोकपाल, स्वराज, मुहल्ला सभा के जरिए सत्ता के विकेंद्रीकरण की बात कही थी, अब वह वोट बैंक और सत्ता की राजनीति करने लगी है। राजनीति के अपराधीकरण, काला धन, भ्रष्टाचार, व्यवस्था परिवर्तन जैसे मुद्दे गायब हो चुके हैं। स्पष्ट है, आम आदमी पार्टी की राजनीति में आम आदमी की तस्वीर धुंधली पड़ती जा रही है।
यही कारण था कि राज्य में चारों ओर आम आदमी पार्टी (आप) की लहर की बात होने लगी थी। नतीजों से पहले भी एग्जिट पोल्स आदि में यही दिख रहा था कि आप पंजाब में अपने दम पर बहुमत पर सरकार बनाएगी। लेकिन, पंजाब में जहां पार्टी मुश्किल से दूसरे स्थान पर रही, वहीं गोवा में उसका खाता भी नहीं खुल पाया। पंजाब विधान सभा की 100 सीटों को जीतने का दावा करने वाले पोस्टर लगाने वाली आम आदमी पार्टी सम्मानजनक तरीके से विरोधी पार्टी की हैसियत भी नहीं हासिल कर पाई। पार्टी 2014 के लोक सभा चुनावों के दौरान किए गए प्रदर्शन को भी दुहराने से दूर रही। गौरतलब है कि लोक सभा चुनाव में पार्टी ने 4 सीटें जीती थीं, जिनमें 34 विधान सभा क्षेत्र आते हैं; लेकिन चुनावी नतीजों में पार्टी 22 सीटों पर सिमट गई। गौरतलब है कि पंजाब की जनता ने 2014 में उस समय आम आदर्मी पार्टी के चार उम्मीदवारों को संसद में भेजा जब लोक सभा चुनावों के दौरान पार्टी ने 412 उम्मीदवारों के जमानत जब्त होने का रिकार्ड बनाया था। लेकिन पार्टी के लोक सभा सदस्य पंजाब के लोगों की समस्याओं को उठाने के बजाए आपस में ही लड़ते रहे। इसके अलावा दिल्ली में आम आदर्मी पार्टी सरकार के प्रदर्शन और उनके लगातार चले आ रहे केंद्र सरकार से टकराव को भी पंजाब के लोगों ने देखा। गौरतलब है कि व्यवस्था परिवर्तन का नारा लगाते हुए दिल्ली में सत्ता हासिल करने वाली आम आदर्मी पार्टी अपनी नकारात्मक गतिविधियों के चलते ज्यादा चर्चित रही है। विधायकों की गिरफ्तारी (67 में से 11 विधायक गिरफ्तार), फर्जी डिग्री, महिलाओं के साथ ज्यादती, केंद्र के साथ टकराव, बहानेबाजी और अनाप-शनाप बयानबाजी ने पार्टी की साख में बट्टा लगाने का काम किया।
पंजाब व गोवा के चुनाव लड़ने के साथ-साथ गुजरात विधान सभा चुनाव लड़ने की तैयारी कर रही पार्टी के लिए पंजाब के चुनावी नतीजे किसी सदमे से कम नहीं हैं। भले ही पार्टी के नेता कह रहे हों कि वे अपनी गलतियों को सुधारते हुए दिल्ली नगर निगम और गुजरात विधान सभा चुनाव लड़ेंगे लेकिन अब पंजाब का हश्र देखकर लगता है कि उनकी लड़ाई आसान नहीं रह जाएगी। देखा जाए तो आम आदमी पार्टी की नाकामी में कांग्रेस की उपलब्धियां कम उसकी खुद की कमियां ज्यादा हैं। पार्टी ने जिस शुचिता और ईमानदारी की राजनीति का आगाज किया था, उसका सूर्यास्त हो गया। टिकट वितरण में बाहुबलियों-धनकुबेरों को प्राथमिकता और व्यक्ति केंद्रित राजनीति ने उसके व्यवस्था परिवर्तन वाले ख्वाब को धूमिल कर दिया। देश में यह पहली बार नहीं हुआ है। 1970 के दशक में जय प्रकाश नारायण की संपूर्ण क्रांति से निकले नेता सत्ता की मलाई को पचा नहीं पाए, जिसका नतीजा इंदिरा गांधी की वापसी के रूप में सामने आया। कमोबेश यही हश्र महाराष्ट्र में रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया और उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी का हुआ।
हार और जीत चुनावी राजनीति के अहम अंग हैं, लेकिन पंजाब विधान सभा चुनावों से यह साबित हो गया कि आम आदमी पार्टी ने राजनीति में जिस शुचिता और ईमानदारी का आह्वान किया था, वह अब अतीत की बात हो चुकी है। जिस पार्टी ने जनलोकपाल, स्वराज, मुहल्ला सभा के जरिए सत्ता के विकेंद्रीकरण की बात कही थी, अब वह वोट बैंक और सत्ता की राजनीति करने लगी है। राजनीति के अपराधीकरण, काला धन, भ्रष्टाचार, व्यवस्था परिवर्तन जैसे मुद्दे गायब हो चुके हैं। स्पष्ट है, आम आदमी पार्टी की राजनीति में आम आदमी की तस्वीर धुंधली पड़ती जा रही है। उचित होगा कि पंजाब में हुए बुरे हश्र से सबक लेते हुए आप के सर्वेसर्वा केजरीवाल सभल जाएं और अपनी अनुचित महत्वाकांक्षाओं पर अंकुश लगाकर फिलहाल दिल्ली सरकार को ही ढंग से चलाने का प्रयास करें।
(लेखक केन्द्रीय सचिवालय में अधिकारी हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)