दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को झटका देते हुए राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने संसदीय सचिव के पद को लाभ के पद के दायरे से बाहर रखने से संबंधित दिल्ली सरकार के विधेयक को नामंजूर कर दिया है । गौरतलब है कि इस विधेयक को राष्ट्रपति की मंजूरी न मिलने से आम आदमी पार्टी के 21 विधायकों की नियुक्ति पर सवालिया निशान लग गया है। अब गेंद चुनाव आयोग के पाले में है, अगर आयोग विधायकों को अयोग्य घोषित करता है, तो दिल्ली की 21 विधानसभा सीटों पर उपचुनाव होना तय है। खैर, दिल्ली ऐसा पहला राज्य नही है जिसने संसदीय सचिव को लाभ के पद से बाहर रखने की कोशिश की हो, इससे पहले कई ऐसे राज्य हैं जो इस तरह की पहल कर चुके हैं लेकिन उनको भी सफलता अर्जित नहीं हुई है । पंरतु इस तरह से बेजा हंगामा किसी भी राज्य के मुख्यमंत्री ने नहीं किया।
67 विधायकों वाली आम आदमी पार्टी के सभी विधायक मंत्री बनने कि इच्छा पाले बैठे हैं । इन सभी को खुश करने के लिए केजरीवाल ने सभी नियमों को ताक पर रखते हुए 21 विधायकों को लाभ के पद पर बैठा दिया था। उसके बाद इस लाभ के पद को कानूनन सही ठहराने के लिए केजरीवाल सरकार ने संसदीय सचिव विधेयक दिल्ली विधानसभा में पारित करवाया पंरतु राष्ट्रपति ने इस विधेयक पर दस्तखत करने से मना कर दिया है। इसके बाद तिलमिलाए केजरीवाल ने हर बार की तरह प्रधानमंत्री पर निशाना साधा है। अब ये समझ से परे है कि राष्ट्रपति के द्वारा ठुकराए गये विधेयक में प्रधानमंत्री कि भूमिका कहाँ से आ गई ? ईमानदारी का चोला ओढ़ भ्रष्टाचार के नीव मजबूत कर रहे, स्वयंभू ईमानदार केजरीवाल कि सच्चाई परत – दरपरत जनता के समक्ष आ रही है।
अब इस मामले पर दिल्ली के 21 विधायकों की छुट्टी होनी लगभग तय है। इससे दिल्ली सरकार पर तो कोई संकट नही आएगा, लेकिन केजरीवाल के समक्ष दो चुनौतियाँ मुँह बाये खड़ी हो जायेगी जिससे निपटना मुख्यमंत्री केजरीवाल के लिए आसान नही होगा। उनकी पहली चुनौती इन सीटों पर चुनाव जीतकर अपनी विश्वसनीयता को बनाए रखना होगा । जाहिर है कि जबसे केजरीवाल ने दिल्ली की कमान संभाली है, उनका अधिकतम समय दूसरों को आलोचना में व्यतीत होता है। ऐसे कई मामले सामने आये हैं, जहाँ पर यह बात साबित होती है कि केजरीवाल का ध्यान दिल्ली के विकास पर कम दूसरों की आलोचना पर ज्यादा है, वे अपनी गलतियों को स्वीकारने की बजाय दूसरों पर आरोप मढ़ने की कला में परांगत हैं। यह तो स्पष्ट है कि उनके लिए यह उप-चुनाव ‘लिटमस टेस्ट’ से कम नही होने वाला है। उनकी दुसरी चुनौती पंजाब में पार्टी की सक्रियता को बनाए रखना होगा गौरतलब है कि इन दिनों आम आदमी पार्टी अपना पूरा जोर पंजाब में लगा रही है। अगले साल वहां विधानसभा चुनाव होने हैं । उनके वर्तमान स्थिति को देखकर यही लगता है कि अगर दिल्ली में चुनाव हुए तो पंजाब में सरकार बनाने का उनका सपना हक़ीकत में बदलने से रहा।
बहरहाल, इस प्रकरण पर केजरीवाल ने अपने विधायकों का बचाव करते हुए कहा है कि उनको इस पद के लिए कोई अतिरिक्त लाभ नही दिया गया है। सभी विधायक मुफ्त में काम कर रहे हैं । मुख्यमंत्री होते हुए केजरीवाल को संविधान की इतनी समझ तो होनी ही चाहिए कि जब कोई व्यक्ति सांसद या विधायक हो तो उसे अन्य किसी लाभ के पद पर नही बैठाया जा सकता चाहें वो मुफ्त में काम करें या फिर सभी तरह के लाभ ले दोनों ही स्थिति में यह असंवैधानिक है। इसी से जुड़े एक मसले पर ध्यान आकृष्ट करें तो 2006 में सांसद जया बच्चन में मामले पर सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाते हुए कहा था कि अगर कोई सासंद या विधायक ने कोई लाभ का पद लिया है तो उसे सदस्यता गंवानी होगी चाहे उन्होंने वेतन या भत्ता लिया हो या नहीं । कुल मिलाकर यह स्पष्ट होता है कि यह विधेयक संविधान के दायरे में नहीं था, केजरीवाल सरकार ने संवैधानिक मर्यादाओं को तोड़ते हुए अपने चहेते विधायकों को लाभ के पद पर आसीन किया था। चूँकि यह विधेयक संविधान के अनुरूप नहीं था इसी के मद्देनजर राष्ट्रपति ने विधेयक को वापस कर दिया। विधेयक के खारिज़ होते ही आम आदमी पार्टी को बवाल करने की बजाय, इस विधेयक पर फिर से पुनर्विचार तथा अन्य संवैधानिक रास्ता ढूँढना चाहिए | आप का इस संवैधानिक मसले पर किया जा रहा आरोप-प्रत्यारोप भर्त्सना योग्य है। बहरहाल, केजरीवाल के 21 विधायकों पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं तो इसके लिए केवल और केवल केजरीवाल ही ज़िम्मेदार हैं।
आम आदमी पार्टी अपने बचाव में यह तर्क दे रही है कि यह लाभ का पद है ही नहीं। फिर सवाल उठता है की तब दिल्ली सरकार को ये विधेयक लाने की आवश्यकता क्यों पड़ी ? जाहिर है कि केजरीवाल नियम कानून के दायरे में रहकर अपनी सरकार में केवल 7 विधायकों को ही मंत्री बना सकते हैं। 67 विधायकों वाली आम आदमी पार्टी के सभी विधायक मंत्री बनने कि इच्छा पाले बैठे हैं । इन सभी को खुश करने के लिए केजरीवाल ने सभी नियमों को ताक पर रखते हुए 21 विधायकों को लाभ के पद पर बैठा दिया था। उसके बाद इस लाभ के पद को कानूनन सही ठहराने के लिए केजरीवाल सरकार ने संसदीय सचिव विधेयक दिल्ली विधानसभा में पारित करवाया पंरतु राष्ट्रपति ने इस विधेयक पर दस्तखत करने से मना कर दिया है। इसके बाद तिलमिलाए केजरीवाल ने हर बार की तरह प्रधानमंत्री पर निशाना साधा है। अब ये समझ से परे है कि राष्ट्रपति के द्वारा ठुकराए गये विधेयक में प्रधानमंत्री कि भूमिका कहाँ से आ गई ? ईमानदारी का चोला ओढ़ भ्रष्टाचार के नीव मजबूत कर रहे, स्वयंभू ईमानदार केजरीवाल कि सच्चाई परत – दरपरत जनता के समक्ष आ रही है। अगल तरह की राजनीति का दावा करने वाले केजरीवाल पहले नियमों को दरकिनार करते हुए विधायकों को अतिरिक्त लाभ पहुंचाए तदोपरान्त खुद के दोष को स्वीकारने की बजाय केजरीवाल दूसरों पर बेजा आरोप लगा रहे हैं जो राजनीतिक सुचिता के खिलाफ है।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं )