कांग्रेस से गठबंधन में नाकाम रहने, आप विधायकों के पार्टी छोड़ने, घटती लोकप्रियता जैसे कारणों से दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को अपनी राजनीतिक जमीन खिसकती दिख रही है। इसीलिए वह नुस्खे की राजनीति पर उतर आए हैं।
आम आदमी की राजनीति करने का दावा करने वाले दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल एक बार फिर हमले का शिकार बन गए। केजरीवाल के मुताबिक पिछले पांच साल में यह उन पर नौवां और मुख्यमंत्री बनने के बाद पांचवा हमला है। केजरीवाल ने इसके लिए भारतीय जनता पार्टी को दोष देते हुए कहा कि भाजपा उन्हें रास्ते से हटाना चाहती है। दूसरी ओर हमलावर आम आदमी पार्टी का ही समर्थक निकला है, जिसने केजरीवाल की झूठ की राजनीति से त्रस्त होकर उन पर हमला किया।
देखा जाए तो केजरीवाल पर हमला दिल्ली वालों में उनके प्रति आक्रोश का नतीजा है। यह आक्रोश अनायास नहीं है। अनधिकृत कॉलोनियों को वैध करना, महिला सुरक्षा, हर बस में कमांडो तैनात करना, पूरी दिल्ली में सीसीटीवी कैमरे लगवाना, 20 कॉलेज और 500 सरकारी स्कूल खोलना, भ्रष्टाचार मुक्त शासन जैसे अनगिनत वादे करके सत्ता में आई पार्टी से जनता को बहुत उम्मीदें थीं, लेकिन वे सब धराशायी हो गईं। यही वजह है कि जिस दिल्ली ने केजरीवाल को 70 में से 67 सीटों पर बंपर जीत दिलाई वही दिल्ली अब उन्हें फर्श पर उतार चुकी है।
घटते जनसमर्थन को देखते हुए केजरीवाल ने उसी कांग्रेस से गठबंधन का दांव खेला जिसके भ्रष्टाचार की वे पैदाईश हैं लेकिन उनकी असलियत जानकर कांग्रेस ने उनसे गठबंधन करने से साफ इनकार कर दिया। अपनी हार को देखकर केजरीवाल अब ओछी हरकतों पर उतर आए हैं। आज नहीं तो कल यह कड़वा सच एक बार फिर उजागर हो जाएगा कि केजरीवाल ने सस्ती लोकप्रियता हासिल करने के लिए अपने उपर हमला कराया था।
केजरीवाल की दोमुंही राजनीति को समझने के लिए पांच साल पहले के मंजर को याद करना जरूरी है। 2014 के लोकसभा चुनाव के समय पूरे देश में अरविंद केजरीवाल ईमानदारी की प्रतिमूर्ति बनकर उभरे थे और आम से खास तक से उन्हें भरपूर समर्थन मिल रहा था। केजरीवाल इस जनसमर्थन के पीछे की पृष्ठभूमि न समझकर अपने को चमत्कारी नेता समझने लगे। गौरतलब है कि 2014 में यूपीए शासन की लूट, भ्रष्टाचार, महंगाई के चलते पूरे देश में सत्ता विरोधी लहर चल रही थी। फिर दशकों से जाति-धर्म-क्षेत्र-भाषा, मंडल-कमंडल में उलझी राजनीति को न सिर्फ एक नई दिशा देने का वादा बल्कि व्यवस्था परिवर्तन का नारा भी अरविंद केजरीवाल ने दिया था।
यही कारण है कि उनके वादे को सभी वर्गों का भरपूर समर्थन मिला। इसी का नतीजा रहा कि पार्टी को 2013 के दिल्ली विधान सभा चुनाव में अभूतपूर्व कामयाबी मिली। इस कामयाबी की उम्मीद कांग्रेस और भाजपा को ही नहीं, खुद आम आदर्मी पार्टी के नेताओं को भी नहीं थी। लेकिन कांग्रेस के समर्थन से सरकार बनाने वाले अरविंद केजरीवाल ने जनभावनाओं का सम्मान नहीं किया।
दरअसल वे दिल्ली में आप की सफलता से अतिउत्साह में आ गए और प्रधानमंत्री बनने का ख्वाब देखने लगे। वे दिल्ली में सरकार चलाने के बजाए लोकसभा चुनाव जीतने में जुट गए। जिस कांग्रेस के भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना हजारे ने आंदोलन चलाया था, केजरीवाल ने उसे भुला दिया। अब वे मोदी विरोध में उतर आए और दिल्ली छोड़कर वाराणसी से लोकसभा चुनाव लड़ने चले गए। लेकिन पूरे देश में 433 सीटों पर चुनाव लड़ने वाली आम आदमी पार्टी को जनता ने पूरी तरह नकार दिया। पंजाब की चार सीटों को छोड़कर उसके उम्मीदवार सभी जगहों से हार गए।
जैसे-जैसे पार्टी में अरविंद केजरीवाल का प्रभुत्व बढ़ा वैसे-वैसे इसके कई संस्थापक सदस्यों को केजरीवाल ने पार्टी छोड़ने पर मजबूर कर दिया। इस प्रकार धीरे-धीरे आम आदमी पार्टी केजरीवाल की निजी जागीर बन गई। इसका नतीजा यह हुआ कि आम आदमी को केंद्र में रखकर गठित होने वाली पार्टी खास आदमी पार्टी में बदल गई। स्पष्ट है, पार्टी ने जिस शुचिता और ईमानदारी की राजनीति का आगाज किया था, उसका सूर्यास्त हो गया।
टिकट वितरण में बाहुबलियों–धनकुबेरों को प्राथमिकता और व्यक्ति केंद्रित राजनीति ने उसके व्यवस्था परिवर्तन वाले ख्वाब को धूमिल कर दिया। यही कारण है कि जिस पार्टी की सभाओं में जनसैलाब उमड़ पड़ता था, अब उसे भीड़ जुटाने और चंदा एकत्र करने के लिए तरह-तरह के नुस्खे अपनाने पड़ रहे हैं। केजरीवाल को यह समझना होगा कि यह 2014 के कांग्रेसी भ्रष्टाचार और कुनबापरस्ती का समय नहीं है। यह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का समय है जिन्होंने भ्रष्ट और कुनबापरस्ती की राजनीति को ध्वस्त कर दिया है। ऐसे में उनके नुस्खे नाकाम ही होंगे।
(लेखक केन्द्रीय सचिवालय में अधिकारी हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)