विक्रम सिंह ने बकायदा एक प्रेस वार्ता बुलाकर केजरीवाल द्वारा लिखा गया वह माफीनामा दिखाया जिसमें उन्होंने आरोप वापस लेते हुए क्षमा मांगी है। अब सबसे पहले यह सवाल उठता है कि आखिर केजरीवाल ने अपने आरोप वापस क्यों लिए और माफी क्यों मांगी। यदि वे अपनी जगह सही थे, तो उन्हें अपनी बात पर कायम ही रहना चाहिये था और आरोप साबित करके दिखाना चाहिये था। माफी मांगकर तो उन्होंने यह साबित कर दिया कि उन्होंने मजीठिया पर यूँ ही हवा में आरोप लगा दिए थे। तो क्या आरोप लगाना और माफ़ी माँगना ही अब दिल्ली के मुख्यमंत्री का काम रह गया है ?
आम आदमी पार्टी के अधोपतन का दौर जारी है। खोते जनाधार, बिगड़ती छवि, अंर्तकलह, भ्रष्टाचार के आरोप, विधायकों की अयोग्यता, नौकरशाहों से अभद्रता आदि घटनाक्रमों के बाद अब इस दल में नया बखेड़ा खड़ा हो गया है। पार्टी के मुखिया अरविंद केजरीवाल के एक निर्णय ने फिर से सदस्यों, पदाधिकारियों को असमंजस में डाल दिया है। केजरीवाल ने अकाली दल के नेता पर पंजाब चुनाव के दौरान लगाए आरोप वापस ले लिये और क्षमा याचना कर ली। यह काम उन्होंने पार्टी को अवगत कराए बिना स्वयं ही कर लिया जो कि उनकी हमेशा की आदत रही है। ऐसा काम वे कई बार कर चुके हैं। सभी को साथ लेकर चलना उन्हें नहीं आता। वे अकेले ही निर्णय ले लेते हैं और पदाधिकारी पीछे स्वयं को ठगा हुआ सा महसूस करते हैं।
ताजा वाकये में केजरीवाल ने अकाली नेता विक्रम सिंह मजीठिया पर पिछले साल लगाए आरोप में माफी मांग ली है। उन्होंने विक्रम सिंह पर नशे का व्यापार करने और ड्रग व्यवसाय में लिप्त होने के गंभीर आरोप लगाए थे। हालांकि उन्होंने लिखित में सार्वजनिक रूप से माफी मांग ली, लेकिन इससे पहले वे अपने आरोप साबित भी नहीं कर पाए थे। उनके यू-टर्न लेते ही पार्टी के पूर्व मंत्री कपिल मिश्रा ने आड़े हाथो लेते हुए ट्विटर पर उन्हें देश का आधिकारिक झूठा मुख्यमंत्री कहते हुए तंज कसा है।
विक्रम सिंह ने बकायदा एक प्रेस वार्ता बुलाकर केजरीवाल द्वारा लिखा गया वह माफीनामा दिखाया जिसमें उन्होंने आरोप वापस लेते हुए क्षमा मांगी है। अब सबसे पहले यह सवाल उठता है कि आखिर केजरीवाल ने अपने आरोप वापस क्यों लिए और माफी क्यों मांगी। यदि वे अपनी जगह सही थे, तो उन्हें अपनी बात पर कायम ही रहना चाहिये था और आरोप साबित करके दिखाना चाहिये था। माफी मांगकर तो उन्होंने यह साबित कर दिया कि उन्होंने मजीठिया पर यूँ ही हवा में आरोप लगा दिए थे। यह बचकानापन एक मुख्यमंत्री के लिए कत्तई उचित नहीं कहा जा सकता।
यहां यह उल्लेख करना जरूरी होगा कि इन आरोपों के बाद मजीठिया ने केजरीवाल पर मानहानि का आरोप दर्ज कराया था। कोर्ट-कचहरी में खुद को उलझता देख केजरीवाल ने झट से पाला बदल लिया और मामले को रफा दफा करने का पुराना हथकंडा अपनाया। यहां सोचने वाली बात यह है कि क्या भारतीय राजनीति किसी संवैधानिक पद पर बैठे व्यक्ति को इतनी स्वतंत्रता देती है कि वह किसी पर भी उल-जुलूल आरोप लगा दे और बाद में माफ़ी मांगकर बचने की कोशिश करे। अपनी ऐसी हरकतों से केजरीवाल ने राजनीति का स्तर इतना नीचे गिरा दिया है कि मुख्यमंत्री पद की गंभीरता पूरी तरह से नष्ट हो रही है।
यह पहला अवसर नहीं है, जब केजरीवाल ने यह बचकाना व्यवहार किया हो, इससे पहले भी वे ऐसा कई बार कर चुके हैं। किसी पर गंभीर आरोप लगाने से उस व्यक्ति की जो सामाजिक प्रतिष्ठा धूमिल होती है, उसकी भरपाई करना बहुत दुष्कर होता है। केजरीवाल को पता नहीं यह भ्रम कैसे हो गया कि वे जब चाहे किसी का भी मान-मर्दन कर सकते हैं, किसी से भी उसकी योग्यता का प्रमाण मांग सकते हैं और हर बात की जानकारी उन्हें देना जरूरी है। ऐसा न होने पर वे सार्वजनिक रूप से उस व्यक्ति पर कीचड़ उछालेंगे। यदि सामने वाला प्रतिकार नहीं कर पाया तो केजरीवाल उस पर हावी हो जाएंगे, यदि वह प्रतिकार कर गुज़रा तो केजरीवाल खुद पलायन करके पीछे हट जाते हैं।
केजरीवाल ने आरोप भी मनमौजी तरीके से लगाए और पीछे भी खुद ही हट गए, लेकिन उनकी पार्टी की इकाईयों को यह बात नागवार गुज़र रही है। आम आदमी पार्टी के विधायक सुखपाल सिंह खैहरा ने कहा है कि उन्हें केजरीवाल के निर्णय से बहुत आश्चर्य हुआ है। पार्टी के ही एक अन्य विधायक कंवर संधू ने कहा है कि केजरीवाल ने बिना किसी चर्चा के स्वयं ही एकतरफा निर्णय ले लिया जो कि पार्टी की शुचिता के लिए भी ठीक नहीं है।
यहां यह उल्लेख करना प्रासंगिक होगा कि चार साल पहले केजरीवाल ने बेईमान नेताओं की एक सूची जारी की थी, जिसमें भाजपा के वरिष्ठ नेता नितिन गड़करी का नाम शामिल किया था। गडकरी की आपत्ति और मानहानि का केस लगाने की हिदायत के बाद केजरीवाल बात पलट दी थी। 2016 में अमृतसर में उन्होंने अपनी गलती के लिए माफी मांगी थी और लंगर में सेवाएं दी थीं। इतना ही नहीं, अपनी ही सरकार के पुलिसकर्मियों के लिए उन्होंने बहुत चलताऊ शब्दावली का इस्तेमाल किया था, जिस पर स्वयं कोर्ट ने संज्ञान लिया था।
जब केजरीवाल इस्तीफा देने के बाद दोबारा सत्ता में आए तो उन्होंने मतदाताओं से भी माफी मांगी थी। ऐसा लगता है जैसे गलती करना और बाद में माफी मांग लेना केजरीवाल का प्रिय शगल हो। या तो वे जानबूझकर गलतियां करते हैं ताकि इसी बहाने सुखिर्यों में रहें और फिर माफी मांगकर दोबारा चर्चाओं में आ जाते हैं या फिर, यह उनकी अस्थिर मनोदशा का ही परिचायक है।
अभी अधिक दिन नहीं बीते जब आम आदमी पार्टी के विधायक ने दिल्ली के मुख्य सचिव से अभद्रता करके बखेड़ा खड़ा कर दिया था। उसके कुछ दिन पहले पार्टी के बीस विधायक अयोग्य करार दिए गए थे। राज्यसभा के टिकट वितरण को लेकर भी पार्टी के भीतर काफी मतभेद पनपे हैं। उस मामले में भी केजरीवाल के मनमाने रवैये की काफी आलोचना हुई। केजरीवाल ने किसी से बात करना उचित न समझते हुए अकेले ही सारे बड़े फैसले कर लिए जो विवादों में रहे। पार्टी के पूर्व मंत्री कपिल मिश्रा ने केजरीवाल पर बीते समय में लगातार एवं काफी तीखे प्रहार किए हैं। हाल ही में दिल्ली सरकार के स्वास्थ्य मंत्री सत्येंद्र जैन पर भी भ्रष्टाचार की आंच आ चुकी है।
कुल मिलाकर देखा जाए तो यह पार्टी पूरी तरह से दिशाहीन हो चुकी है। इसके पास कोई लक्ष्य या कार्ययोजना नज़र नहीं आती। कोई भी दल कार्यकर्ताओं से मिलकर बनता है, लेकिन अरविंद केजरीवाल ने पार्टी को शायद खुद की निजी संपत्ति समझ लिया है, इसीलिए वे मनमानी को ही नीति समझ रहे हैं। वर्तमान में आम आदमी पार्टी पूरी तरह से विघटन की कगार पर है। पार्टी का जनाधार भी खो रहा है, जनप्रतिनिधियों की छवि बिगड़ रही है, नौकरशाही से संबंध खराब हो रहे हैं, अंर्तकलह भी जारी है और अब अन्य दलों से भी खटपट सीमा से बाहर होती जा रही है। इन सबका सबसे ज्यादा नुकसान दिल्ली की जनता को उठाना पड़ रहा है। जनता चुनावों में केजरीवाल से इसका हिसाब जरूर लेगी।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)