कृषि कानून का प्रायोजित विरोध चल रहा है तो केजरीवाल भी बहती गंगा में हाथ धोने या डुबकी लगाने चले आए हैं। मीडिया में बयानबाजी करने से जब उनकी दाल नहीं गली और हरियाणा के किसान सरकार के समर्थन में आ गए तो जल्दबाजी में अब वे दिल्ली विधानसभा में कृषि कानून की प्रतियां फाड़ने जैसी नौटंकी करके ध्यान आकर्षिक करने की बेजा हरकतें कर रहे हैं।
दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल फिर से चर्चाओं में आ गए हैं। हर बार की तरह इस बार भी वे विवादित हरकत के चलते ही सुर्खी में हैं। इन दिनों दिल्ली विधानसभा का सत्र चल रहा है। इसमें बीते दिन केजरीवाल ने कुछ ऐसा किया कि मीडिया में चर्चा हो गई। उन्होंने तीनों कृषि कानूनों की प्रतियां भरे सदन में फाड़ीं और कहा कि ऐसा करके उन्हें गर्व हो रहा है। ऐसा करके उन्होंने अपने विधायकों की तालियां जुटाईं और मीडिया से अटेंशन, जिस काम में वे सदा से पकड़ रखते हैं।
यदि आपने वह वीडियो ध्यान से देखा होगा तो उसमें स्पष्ट पता चल रहा है कि यह हमेशा की तरह सुनियोजित, प्रायोजित तमाशा था। सदन के बाहर मीडिया के सामने बयान देते हुए केजरीवाल ने यह भी कहा कि किसान आंदोलन के चलते अब किसानों की मौत की खबरें भी आ रही हैं, ऐसे में इन कानूनों को फाड़ने के सिवाय और चारा न था, भले ही उनका इरादा ऐसा ना रहा हो।
यहां यह बात गौर करने योग्य है कि केजरीवाल ने इस कथित किसान आंदोलन में इतनी रुचि तब जाकर दिखाई है जब सरकार से इन संगठनों की छह दौर की वार्ताएं हो चुकी हैं और अब 10 से अधिक किसान संगठन स्वयं इस आंदोलन के विरोध में हैं और सरकार के समर्थन में आ खड़े हुए हैं। केजरीवाल तब उठे हैं, जब इस आंदोलन को अर्सा बीत चुका है और इसके उत्तरार्ध में तो अब देशविरोध तत्वों के समर्थन में नारेबाजी, पोस्टरबाजी भी हो चुकी है।
इतना ही नहीं, केजरीवाल अब जाकर जागे हैं जबकि मामला सुप्रीम कोर्ट में जा चुका है और आंदोलन के इस अराजक तरीके पर शीर्ष अदालत फटकार भी लगा चुकी है और स्पष्ट कह चुकी है कि प्रदर्शन का अर्थ शहर की नाकाबंदी नहीं है। विरोध करिये लेकिन जनता को परेशान मत करिये। केजरीवाल कृषि कानून के प्रति ऐसे असहिष्णु हैं कि लोकसभा और राज्यसभा से सर्वसम्मति से पारित इस कानून की प्रतियाँ फाड़ रहे हैं।
वास्तव में केजरीवाल एक अवसरवादी नेता हैं जो अपनी सुविधा के अनुसार अपने विरोध और समर्थन का रुख तय करते हैं। भरे लॉकडाउन में दिल्ली में उनकी नाक के नीचे बसंत विहार बस टर्मिनल पर भीड़ का रेला जमा हो जाता है और इसमें उनके प्रशासन तंत्र की कोई चूक उन्हें नज़र नहीं आती और उसी लॉकडाउन में वे प्रदेश का राजस्व बढ़ाने के लिए यदि शराब पर कोरोना टैक्स नामक एक कर थोप देते हैं तो यह उन्हें ठीक लगता है।
दिल्ली में सत्ता पर काबिज होने के लिए जनता को फ्री बिजली, पानी की रेवड़ियाँ बांटने वाली आम आदमी पार्टी के मुखिया राज्य का खजाना लुटाने के बाद केंद्र से आर्थिक मदद की गुहार लगाकर कहते हैं कि कर्मचारियों को वेतन देने का भी पैसा नहीं है तो उन्हें इसमें कुछ गलत नहीं लगता है।
अब कृषि कानून का प्रायोजित विरोध चल रहा है तो केजरीवाल भी बहती गंगा में हाथ धोने या डुबकी लगाने चले आए हैं। मीडिया में बयानबाजी करने से जब उनकी दाल नहीं गली और हरियाणा के किसान सरकार के समर्थन में आ गए तो जल्दबाजी में अब वे दिल्ली विधानसभा में कृषि कानून की प्रतियां फाड़ने जैसी नौटंकी करके ध्यान आकर्षिक करने की बेजा हरकतें कर रहे हैं।
इस समय दिल्ली कोरोना महामारी के खतरे से किसी तरह उबर रही है। ऐसे में उनकी प्राथमिकता क्या होनी चाहिये। जनता की सुरक्षा, कोरोना से बचाव की दिशा में काम करना या फिर अवाम को उसके हाल पर छोड़कर अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकना। दुर्भाग्य से वे दूसरा ऑप्शन चुन रहे हैं। वे प्राथमिकता से हटकर, अपने कर्तव्य से जी चुराकर व्यर्थ की नाटकीयता में लगे हैं।
देखा जाए तो इस तरह की हरकत की उन्हें अभी कोई जरूरत नहीं थी। उन्हें क्या इतनी सी बात नहीं पता कि ये कानून पंजाब या दिल्ली के लिए नहीं, वरन पूरे देश के लिए लागू किए गए हैं। पूरे देश भर के किसानों को इससे कोई समस्या नहीं है और गिने चुने राज्यों को ही इससे क्यों तकलीफ हो रही है।
यहां यह बात भी उल्लेखनीय है कि जब केंद्रीय कृषि मंत्री बार-बार विभिन्न मंचों से यह बात बोल रहे हैं कि सरकार इन कानूनों में संशोधन के लिए तैयार है, किसानों से बात करने के लिए तैयार है लेकिन केजरीवाल ने एक बार भी इस पर बात करने में ना रुचि दिखाई, ना ट्वीट किया, ना पहल की ना मीडिया में कोई बयान दिया।
वे हमेशा तस्वीर का दूसरा पहलू ही देखते रहे हैं और वह है भड़काऊ बयानबाजी का, अराजकता फैलाने का। लेकिन उनके ये हथकंडे अब काफी पुराने हो चुके हैं। मामला अब बहुत आगे जा चुका है। वे कृषि कानूनों की आलोचना करें या प्रतिया फाड़ें, इससे वास्तविक किसानों को कोई फर्क नहीं पड़ेगा और वे उनके बहकावे में नहीं आने वाले।
यदि केजरीवाल में थोड़ी बहुत समझदारी होती तो वे इस महत्वपूर्ण मामले में केंद्र सरकार की बात ध्यान से सुनते, समझते और सिंधु बार्डर पर बैठे प्रदर्शनकारियों को अपना हंगामा खत्म करने को कहते क्योंकि वे वहां बैठकर कोरोना संक्रमण के लिहाज से भी संवेदनशील हैं और उनके माध्यम से दिल्ली शहर, यहां की बसाहट भी खतरे की जद में है।
केजरीवाल को यदि वास्तव में अवाम की चिंता होती तो वे सबसे पहले इस कथित आंदोलन को खत्म कराने के लिए अपील करते और अपने स्तर पर प्रयास भी करते ना कि यहां अपनी नफरत की राजनीति का अवसर तलाशते।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। प्रस्तुत विचार उनके निजी हैं।)