जिस कांग्रेस को केजरीवाल कोसते नहीं थकते थे, आज गठबंधन के लिए उसकी खुशामद करने में लगे हैं। इससे उनके अवसरवादी और दोमुंहे चरित्र का भी पता चलता है। आज कांग्रेस से गठबंधन की आस रखना और कांग्रेस द्वारा उनकी उपेक्षा किए जाने से इतना तो स्पष्ट हो गया है कि आम आदमी पार्टी की स्थिति बेहद शर्मनाक और बदहाल दौर में पहुँच चुकी है। कह सकते हैं कि 2014 के लोकसभा चुनाव के समय आम आदमी पार्टी का उत्थान हुआ था और अब 2019 के समय यह पार्टी पतन की कगार पर है।
आम आदमी पार्टी के लिए इन दिनों कुछ भी ठीक नहीं चल रहा है। पार्टी के मुखिया और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल हताश से नज़र आ रहे हैं। वजह है कांग्रेस और आम आदमी पार्टी के गठबंधन की संभावना का खत्म हो जाना। लोकसभा चुनाव के लिए पार्टी को उम्मीद थी कि कांग्रेस से गठबंधन हो जाएगा तो वे सियासी मैदान में उतर जाएंगे लेकिन सब कुछ प्रतिकूल रहा।
इस बात की तस्दीक तब हुई जब केजरीवाल ने स्वयं आखिर बोल ही दिया कि वे गठबंधन के लिए मनुहार करते रह गए लेकिन कांग्रेस की ओर से कोई जवाब नहीं आया। वे कहते हैं पता नहीं कांग्रेस के मन में क्या है। राजनीति के अटकलबाज भी इस गठबंधन की बाट जोह रहे थे लेकिन उनकी भी अटकलें निर्मूल साबित हुईं।
सवाल यह उठता है कि आखिर केजरीवाल कांग्रेस से गठबंधन के जरिये क्या साबित करना चाहते हैं? यदि कांग्रेस उन्हें हां कर भी देती है तो वे किस मुंह से उसके साथ लोगों से वोट मांगने जाते? कांग्रेस सहित सब दलों को भ्रष्ट बताने के बाद अब उन्हें किसी भी दल से गठबंधन करने की दरकार क्यों है? आम आदमी पार्टी क्या स्वयं सक्षम नहीं रही या इस पार्टी का कोई जनाधार नहीं बचा है?
जरा इतिहास में चलें तो आम आदमी पार्टी का आरंभ वर्ष 2011 में अन्ना हजारे के बहुचर्चित लोकपाल आंदोलन के बाद हुआ था। उस आंदोलन में केजरीवाल एक विश्वसनीय नेता बनकर उभरे थे। उस समय अन्ना सहित अरविंद भी भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम लेकर आए थे। तब केंद्र में यूपीए की सरकार थी और इस आन्दोलन का मुख्य लक्ष्य उसका भ्रष्टाचार ही था।
एक के बाद एक हुए बड़े घोटालों से वैसे भी कांग्रेस की विश्वसनीयता खत्म हो चुकी थी। केजरीवाल एंड कंपनी ने कांग्रेस की सरकार को सार्वजनिक मंचों से भ्रष्ट करार दिया। वे नित नए दावे करते और भ्रष्टाचार के कथित सबूत मीडिया के सामने लहराते रहते।
भ्रष्ट तंत्र से आजिज जनता को केजरीवाल में उम्मीद नज़र आई और उन्होंने केजरीवाल को वोट देकर दिल्ली की बागडोर सौंप दी। लेकिन उसके बाद जब समय-समय पर पार्टी के अंदर खींचतान, मतभेद और गड़बड़झाले उजागर होने लगे, भ्रष्टाचार की सूचनाएं आने लगीं और केजरीवाल के मनमानीपूर्ण रवैये की बातें अंदरखाने से बाहर आने लगीं तो इन्हीं मतदाताओं ने खुद को ठगा सा पाया।
बात यहां तक भी खत्म नहीं हुई, पानी तब सिर के ऊपर हो गया जब पार्टी के मंत्री कपिल मिश्रा ने केजरीवाल के ही खिलाफ मोर्चा खोल दिया। उन्होंने भी मीडिया के सामने केजरीवाल सरकार की अनियमितताओं और बन्दरबांटो के सबूत पेश करना शुरू कर दिया।
एमसीडी चुनाव, जालौरी गार्डन चुनाव आदि में मतदाताओं ने केजरीवाल को मजा चखाया और आम आदमी पार्टी की करारी हार हुई। उम्मीदवारों की जमानतें जब्त हो गईं। राज्यसभा टिकट के बंटवारे को लेकर भी केजरीवाल पर सीट बेचने के आरोप लगे। पार्टी के सशक्त नेता कुमार विश्वास भी हाशिये पर आ गए। पार्टी में अराजकता चरम पर पहुंच गई जब कुंठाग्रस्त नेता नौकरशाही से भिड़ने लगे। असल में यह सब स्वाभाविक था क्योंकि इस पार्टी का शीर्ष नेतृत्व ही खराब था।
अरविंद केजरीवाल की छवि एक निरंकुश, मनमानी करने वाले और आत्म केंद्रित नेता की रही है जो केवल अपने स्वार्थ के हित में निर्णय लेता है। नेतृत्व क्षमता का उनमें आरंभ से ही अभाव है। छोटी से छोटी पार्टी में भी सभी को साथ में लेकर चलने की परंपरा होती है लेकिन केजरीवाल में इस बुनियादी गुण का भी पूरी तरह अभाव है।
यह विचित्र नहीं है कि आज जब पूरी तरह से उनके पैरों तले ज़मीन खिसक चुकी है और जनाधार खो गया है तो उनकी तंद्रा अब भंग हुई है। अब वे कांग्रेस से गठबंधन की आस लगा रहे हैं ताकि लोकसभा चुनाव में खुद को बचा सकें। असल में अब यह उनके अस्तित्व का प्रश्न है। केजरीवाल अब स्वयं को पूरी तरह अकेला और असुरक्षित महसूस कर रहे हैं। कांग्रेस से गठबंधन की आस रखना उनकी हार की अघोषित घोषणा है।
देखा जाए तो यह बेहद हास्यास्पद स्थिति है कि जिस कांग्रेस को केजरीवाल कोसते नहीं थकते थे, आज गठबंधन के लिए उसकी खुशामद करने में लगे हैं। इससे उनके अवसरवादी और दोमुंहे चरित्र का भी पता चलता है। राजनीति जैसे क्षेत्र में यह प्रवृत्ति अप्रचलन की दशा में मानी जाती है। आज कांग्रेस से गठबंधन की आस रखना और कांग्रेस द्वारा उनकी उपेक्षा किए जाने से इतना तो स्पष्ट हो गया है कि आम आदमी पार्टी की स्थिति बेहद शर्मनाक दौर में पहुँच है। 2014 के लोकसभा चुनाव के समय आम आदमी पार्टी का उत्थान हुआ था और अब 2019 के समय यह पार्टी पतन की कगार पर है।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)