इरफान हबीब को याद रखना चाहिए कि सनातन हिन्दू धर्मानुयायी शाही उपनामधारी शासकों का शासन इस्लाम के प्रादुर्भाव के हजारों वर्ष पूर्व अफगानिस्तान और ईरान के इलाकों पर था। आज जिसे ओहिन्द कहते हैं, वह हिन्दू धर्मानुयायी शाही या शाहवंशी राजाओं के शासन की प्राचीनतम राजधानी मान्य है। यह वही शाह है जो भारतीय राजनीति से निकले शतरंज रूपी खेल में जब शह बनकर प्रकट होता है तो खेल ही खत्म कर देता है।
प्रसिद्ध इतिहासकार इरफान हबीब ने भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह के साथ जुड़े ‘शाह’ उपनाम पर सवाल उठाए हैं। अयोध्या और प्रयागराज नामकरण पर उनकी प्रतिक्रिया शाह नाम पर बम बनकर फूटी है। उनका दावा है कि अमित शाह का शाह शब्द या उपनाम तो फारसी है, गुजराती नहीं। तो क्या अमित शाह, शाह उपनाम छोड़ेंगे?
इरफान हबीब का यह सवाल उनकी भारत की ज्ञान परंपरा के प्रति अज्ञानता का स्पष्ट संकेत है। इससे साफ पता लगता है कि वह भारतीय चिन्तन परंपरा का क-ख-ग से लेकर स-ष-श-ह तक की यात्रा के बारे में कुछ भी नहीं जानते। केवल राजनीतिक कारणों से भावावेश में आकर वह ऐसी बात कह रहे हैं कि शाह शब्द फारसी है।
जो सचमुच सत्य के अन्वेषक हैं, वे तह तक जाते हैं और पता करते हैं, तो हकीकत सामने आ जाती है कि शाह शब्द की व्युत्पत्ति वैसे ही संस्कृत से होती है जैसे राज्य और राजा शब्द की। अब कोई राजा को रजा लिखने लगे और अब दावा करे कि रजा से राज्य और राजा बना तो उसके अध्ययन की बलिहारी।
शाह उपनाम की मीमांसा से पहले इरफान हबीब से यह निवेदन आवश्यक है कि वह पहले इस बात का पता लगाएं कि ईरान में जो प्राचीन शूशाः (SUSH) राजमहल था, जिसे आधुनिक समय में सुसा कहा जाता है, वह सुसा शब्द कहां से आया और इसके मायने क्या हैं? और यह प्राचीन शुशाः नगर तो इस्लाम के उदय के भी करीब एक हजार साल पहले का है। ईरान के इस प्राचीन शूशा राजमहल में जो शिलालेख मिला है, उसमें लिखा है- पिरू शहाय इदा कर्त हचा कुष आ उता हचा हिन्दउव उता हचा हरउवतिया अवरिय् (पंक्ति 43-44) अर्थात इस राजमहल के लिए जो हाथी दांत यहां सजाया गया, वह कुश इलाके से हिन्दु और हरवति की भूमि से लाया गया।
यहां ऊपर की पंक्तियों में हिन्दु को सिन्धु समझिए और हरवति को सरस्वती। इन नदियों के भूभाग को लेकर विद्वानों के अनेक मत हैं, किन्तु इतना तो संकेत मिलता ही है कि सिन्धु और सरस्वती का उच्चारण इस्लाम के उदय के एक हजार साल पहले बड़े ही सम्मान जनक ढंग से हिन्दु और हरवती के रूप में इस शिलालेख में दिखाई देता है। इससे एक बात और पता चलती है कि ईसा पूर्व पांचवी सदी में ईरान में भारत की भूमि के लिए हिन्दु नाम प्रचलित हो चुका था। सोचिए कि हिन्दु शब्द कितना प्राचीन है और इस हिन्दू शब्द की वयुत्पत्ति पर भी इरफान हबीन जैसे विद्वानों ने कैसे कैसे विवाद खड़े किए हैं?
ईसा की पहली सदी में चीन का सेनापति पन योंग चीन के सम्राट को पश्चिमी एशिया के बारे में एक ब्यौरे में यह जानकारी भेजता है कि थि-एन-चू अर्थात देवताओं का देश (भारत) शिन्तू नाम से भी यहां प्रसिद्ध है। स्पष्ट है कि भारत का बोलबाला समूचे संसार में प्रचलित था, न केवल आर्थिक महाशक्ति के रूप में बल्कि संस्कृति-धर्म और ज्ञान के महान स्थान के रूप में भी भारत की मान्यता चहुंओर गूंज रही थी। यही शिन्तू जापान में शिन्तो की मान्यताओं में बस चुका था, आज भी झेन आर्ट ऑफ हैपीनेस में भारत की मान्यताएं गहरे बैठी हुई हैं।
बात शाह शब्द की। शूशा का तात्पर्य इरफान हबीब नहीं समझ सकते, क्योंकि वह अज्ञान के अंधकार से खुद को बाहर निकाल पाने में शायद नाकाम हैं। हमारे यहां संस्कृत में एक शब्द है शः। इसे हिन्दी में पढ़ेंगे शह। उच्चारण जरा सा प्रांतशः आगे बढ़ेगा तो शाह हो जाएगा। संस्कृत में एक आज्ञा है एकशः संपत। अर्थात् एक साथ सभी एक पंक्ति में एक-एककर खड़े हो जाएं। यह जो शह है, यही शाह है…इसके मायने मूल रूप में संस्कृत में जो बताए जाते हैं, वह देखिये…
जो शिव है, वह शह है। जो आनन्दमय है, वह शह है। जो सब कुछ विनष्ट करता है, वह शह है। जो शस्त्र धारण करता है वह शह है। जो साथ देता है और सहायता करता है, वही शह है और वही शाह है। सभी में इस देश ने शिव का ही स्वरूप देखा है, इसीलिए एकशः आज्ञा आज भी प्रचलित है। वह शिव शक्ति के साथ एक ही है। वह शह है, वह सह है। सः अर्थात संस्कृत में वह। तो वह कौन है, वह शह है और वही शाह है, वह सब जगत को चलाता है।
वह शह जब राज्य धारण कर लेता है, तो शाह हो जाता है; वह शंयु या शु होने पर शुभता धारण करता है; शंवः होने पर भाग्यवान हो जाता है; वज्र धारण करता है, शक्ति से दूर हो जाता है तो वही शह शव भी हो जाता है। वह शह शक्ति से जुड़कर शिव कहलाता है। वह शह ही शंस है, शंसति है अर्थात वही शासन करता है। यह जगत उस एक शं का ही सार है, अतएव संसार है। वह शह ही वंशः है, वह शह जन्म-सृजन और विनाश है, वह नशः है इसीलिए मादक पेय नशा है।
संस्कृत का मंत्र है…सहनाववतु, सहनौभुनक्तु, सहवीर्यं करवावहै। वह शह है तो साथ है, रिश्ता है। वही शह ही वास्तविक सहाय है, सहायक है, सहायता है। इसीलिए कहा गया है कि शिवजी सदा सहाय। वह शह शाह है, साह है, सहा है, सहाय है। उसी सह के कारण ही हम आजतक सहते चले आ रहे हैं, वह सह है इसीलिए सहिष्णुता है। वह सह नहीं रहता तो असहिष्णुता आ जाती है। उस सह को जान लीजिए। वह सह ही भारत की सहन-शक्ति है, हम सहते हैं और हंसते हैं तो उसी एक सह के कारण। उस सह का साथ है तो फिर हमें किसी बात की कोई गिला नहीं।
हम भयानक अंधकार में भी लड़ सकते हैं और आगे बढ़ सकते हैं, क्योंकि वह ‘सह’ सहयोगी बनकर हमारे साथ सदा ही रहता है। भारत की अनेक जातियों, समूहों और बोलियों के साथ यह सह ही सहाय, साह, शाह, साव, सहा, शॉ, शा, सॉ, सा आदि अनेक रूपों में उनका उपनाम बनकर हजारों साल से जुड़ा हुआ है, वैसे ही जैसे यह शह शहंशाह शब्द के साथ जुड़कर राज्य और राजा का प्रतीक बन जाता है।
‘सा’ लगाकर बुलाना हमारे देश में सम्मान का प्रतीक है, उस शह या सह से ही साहस है और उसी से सास, सांस और आश भी है। बाहुबली फिल्म का वह दृश्य याद करिए जिसमें भल्लाल देव का राज्यारोहण होता है और कटप्पा आदेश देता है..उप विशः। अर्थात एक साथ बैठ जाइए। एक शः और उप विशः दोनों में यह शह मौजूद है। यह शह आदेश की ताकत बताता है कि जो कहा गया है उसका पालन करना ही होगा। राजमाता भी एक दृश्य में कहती है- मेरा वचन ही है शासन। यह शासन शाःसन है। शः+आसन। जिस आसन पर शह बैठता है…वही है शासन अर्थात शाह आसन।
इरफान हबीब को याद रखना चाहिए कि सनातन हिन्दू धर्मानुयायी शाही उपनामधारी शासकों का शासन इस्लाम के प्रादुर्भाव के हजारों वर्ष पूर्व अफगानिस्तान और ईरान के इलाकों पर था। आज जिसे ओहिन्द कहते हैं, वह हिन्दू धर्मानुयायी शाही या शाहवंशी राजाओं के शासन की प्राचीनतम राजधानी मान्य है। यह वही शाह है जो भारतीय राजनीति से निकले शतरंज रूपी खेल में जब शह बनकर प्रकट होता है तो खेल ही खत्म कर देता है। शह और मात के रुप में उसी एक शिव और उसकी शक्ति का खेल भारत की पीढ़ियां इस संसार भूमि पर हजारों साल से खेलती चली आ रही हैं।
यह तो रही शह और शाह शब्द की संस्कृत व्युत्पत्ति। यह शब्द फारस कैसे पहुंचा, इसका अध्ययन भी इरफान हबीब को करना चाहिए और इस बात का भी कि शिव के निशान कैसे संपूर्ण पश्चिम एशिया से इस्लाम के उदय के बाद हटाए व मिटाए गए या आज भी हटाए व मिटाए जा रहे हैं, लेकिन यह शिव मानवता और संपूर्ण जीव-जगत के डीएनए में समाया हुआ है।
आप अपनी आंखों के सामने से इसे हटा सकते हैं, किन्तु इसे अपनी आंखों के पीछे से यानी अपने अन्तर्मन से कभी नहीं हटा सकते, जिस दिन इंद्रियों का खेल शरीर में ‘डिरेल’ होता है, उसी दिन शक्ति और शिव का मेल समझ में आने लगता है। उसके बगैर यह जीवन ही बेमेल दिखने लगता है। वस्तुतः यही समय है आत्मविस्मृति के गहरे गर्त से बाहर आने का। मेरा इरफान हबीब और उनके समर्थकों से यही आग्रह है कि आंख खोलिए और शाह शब्द का इतिहास खोजने की बजाए खुद को खोजिए कि आप असल में कौन हैं?
(लेखक भारत अध्ययन केंद्र, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में प्राध्यापक हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)