कौन रच रहा दलित राजनीति के बहाने अशांति फैलाने की साजिश ?

शिवानन्द द्विवेदी

इसमें कोई शक नहीं कि आज भी हमारे समाज में तमाम समस्याएं और कुरीतियाँ बनी हुईं हैं। समाज में अभी भी व्यापक सुधारों की जरूरत है। अभी हाल में गुजरात के ऊना तहसील स्थित समयीयाड़ा गाँव में दलित समुदाय के कुछ लोगों की पिटाई का मामला सामने आया, जिसके बाद वहां विरोध प्रदर्शन आदि हुए। हालांकि एक हिंसा के विरोध में प्रदर्शन के दौरान दूसरी हिंसा ने भी जन्म ले लिया और राजकोट एवं सौराष्ट्र के कुछ इलाकों में काफी अनियंत्रण वाली स्थिति पैदा हो गयी। विरोध प्रदर्शन करने वालों में कुछ लडकों ने कीट-नाशक आदि खाकर विरोध प्रदर्शन में अपने ही जीवन को खतरे में डाल लिया। संक्षिप्त में अगर पूरे मामले पर नजर डालें तो प्रथम दृष्टया यही सामने आता है कि दलित समुदाय के कुछ लड़कों को किसी तथाकथित गोरक्षा दल के लोगों द्वारा इसलिए पीटा गया क्योंकि वे मरी हुई गायों का खाल उतार रहे थे। हालांकि पीटने वालों का आरोप है कि वे गाय को मारकर उसकी खाल उतार रहे थे। खैर, मूल मामला क्या है ये तो जांच के बाद ही सामने आएगा लेकिन इस पूरे विवाद को कई नजरिये से देखने की जरूरत है। पहली बात तो यह है कि दलित समुदाय अथवा किसी भी समुदाय द्वारा अगर कुछ गलत भी किया भी जा रहा हो तो किसी को स्वयं क़ानून हाथ में लेने का अधिकार कतई नहीं है। इस लिहाज से पिटाई की यह घटना ही निंदनीय है।

आखिर वो कौन लोग हैं जो दलितों को कानूनी तौर पर न्याय दिलाने में उनकी मदद करने की बजाय सड़कों पर उत्पात और हिंसा के लिए उन्हें प्रेरित कर रहे हैं ? हालांकि यहाँ पर बेहद आश्चर्यजनक लगता है जब गुजरात के एक गाँव में हुई मार-पिटाई की इस घटना को भी संघ और भाजपा की विचारधारा से जोड़कर देखा जाता है। चंद वोटों की चाशनी के लोभ में एक मामले को इस कदर राजनीतिक बना देना कि पीड़ित को न्याय मिले अथवा न मिले लेकिन राजनीतिक दलों को वोट जरुर मिल जाता है। अख़लाक़ के भरोसे बिहार फतह करने वालों की गिद्ध निगाहें अब गुजरात पर हैं। एक सवाल और बनता है कि भला किस आधार पर किसी भी ऐसी घटना को संघ और भाजपा की विचारधारा से जोड़ दिया जाता है ?

यहाँ पर यह जानना भी जरुरी है कि यदि हम ऐसे मामलों को स्थानीय क़ानून व्यवस्था से जोड़कर देखने की बजाय जातिगत विश्लेषण के आधार पर देखने लगते हैं तो पीड़ितों के साथ न्याय होने की गुंजाइश बहुत कम हो जाती है। इस मामले में अगर देखा जाय तो जिन लोगों की पिटाई हुई अथवा जिन लोगों ने पिटाई की, से ऊपर यह मामला घोर राजनीतिक हो गया है। वरना पिटाई से कम निंदनीय तो यह भी नहीं है कि मरी हुई गायों को सरकारी दफ्तर के सामने ले जाकर फेंक दिया गया। अगर एक पक्ष को कानून व्यवस्था हाथ में लेने का अधिकार नहीं है तो दूसरे पक्ष को भी नहीं है। राजनीति के चक्रव्यूह में हर छोटे एवं क़ानून व्यवस्था से जुड़े मुद्दे का उलझ जाना, निहायत दुर्भाग्यपूर्ण है। हम उत्तर प्रदेश में अखलाक के मामले में भी देख चुके हैं और कर्नाटक में कुलबुर्गी मामले में भी देख चुके हैं कि मामला राजनीतिक स्तर पर तो बहुत बड़ा बना दिया गया था लेकिन न्यायिक स्तर पर आज भी मामला ज्यों का त्यों पड़ा हुआ है अथवा और बदतर स्थिति में है। ठीक ऐसा ही गुजरात में हो रहा है। गुजरात के ऊना में हुए इस मामले में जिन लोगों ने पिटाई की उनके खिलाफ मामला दर्ज करके संबंधित धाराओं में कुछ  आरोपियों को गिरफ्तार भी किया गया है। शुरुआत में इसे दलित बनाम सवर्ण बनाने की कोशिश भी की गयी लेकिन एक अंग्रेजी अखबार की खबर के मुताबिक़ उस गोरक्षा दल में कुछ लडके मुस्लिम समुदाय के भी है। ऐसे में सवर्ण बनाम दलित बनाने में सेक्युलरिज्म के राजनीतिक गिद्धों के लिए असमंजस की स्थिति पैदा हो गयी है। जिन्होंने अपराध किया है उन्हें कोर्ट ट्रायल से उन्हें सजा भी मिलेगी। लेकिन इसका यह कतई अर्थ नहीं कि दलितों को न्याय दिलाने के नाम पर गुजरात को उत्पातियों के हवाले सौंप दिया जाय अथवा उनके उत्पात को सही ठहराया जाय।

Dalit protest PTI
Photo:PTI

            अब तो हमें इस बात पर बहस करनी ही होगी कि क़ानून व्यवस्था से जुड़े ऐसे मामलों पर  क़ानून व्यवस्था के तहत कार्रवाई हो न कि राजनीतिक तौर पर इन मामलों को सुलझाया जाय! आखिर वो कौन लोग हैं जो दलितों को कानूनी तौर पर न्याय दिलाने में उनकी मदद करने की बजाय सड़कों पर उत्पात और हिंसा के लिए उन्हें प्रेरित कर रहे हैं ? हालांकि यहाँ पर बेहद आश्चर्यजनक लगता है जब गुजरात के एक गाँव में हुई मार-पिटाई की इस घटना को भी संघ और भाजपा की विचारधारा से जोड़कर देखा जाता है। चंद वोटों की चाशनी के लोभ में एक मामले को इस कदर राजनीतिक बना देना कि पीड़ित को न्याय मिले अथवा न मिले लेकिन राजनीतिक दलों को वोट जरुर मिल जाता है। अख़लाक़ के भरोसे बिहार फतह करने वालों की गिद्ध निगाहें अब गुजरात पर हैं। एक सवाल और बनता है कि भला किस आधार पर किसी भी ऐसी घटना को संघ और भाजपा की विचारधारा से जोड़ दिया जाता है ? क्या इस देश में हर एक व्यक्ति की निजी सोच संघ की सोच मान ली जायेगी ? सवाल यह भी है कि संघ के आधिकारिक संगठनों के अलावा अगर कोई भी संगठन किसी नाम से किसी घटना को अंजाम देता है, तो क्या उसके लिए भी संघ और भाजपा से ही सवाल पूछा जाएगा ? गुजरात में ऐसी कोई घटना होती है तो गुजरात की सरकार से अवश्य सवाल पूछा जा सकता है। गुजरात की सरकार अगर इस मामले पर कारवाई की बजाय सुस्ती बरत रही हो तो इसका विरोध भी अवश्य होना चाहिए। लेकिन  खबरों के मुताबिक़ यह मामला संज्ञान में आते ही पिटाई करने वालों पर मुकदमा दर्ज कर उनकी गिरफ्तारी की गयी है और जो फरार हैं उनकी गिरफ्तारी की कोशिश जारी है। इसके बावजूद भी  हिंसक प्रदर्शनों के द्वारा सड़कों पर उत्पात मचाने और मासूम जनता को बरगलाने की कोशिश कौन कर रहा है, इसकी भी जांच होनी चाहिए।  आखिर वो कौन लोग हैं जिन्हें उत्पात और हिंसा पसंद है, वे कौन लोग हैं जो दलितों को आत्महत्या के लिए उकसा रहे हैं, इसकी भी पड़ताल अवश्य होनी चाहिए।  दलितों को न्याय दिलाने की बजाय उन्हें वोट की सीढ़ी की तरह इस्तेमाल करने वाली ताकतों ने ही गुजरात की स्थिति को इस तरह हिंसक और जातिवादी रंग देने की कोशिश की है। गुजरात इन ताकतों को अवश्य सबक सिखाएगा। दरअसल गुजरात का यह हालिया मामला दलितों के मुद्दे पर राजनीति होने की बजाय राजनीति का मुद्दा बन गया है। इसमें राजनीति प्रथम है और दलित कहीं हाशिये पर नजर आता है।