पुष्कर अवस्थी
गत दिनों काश्मीर की घाटी में हिजबुल के आतंकवादी बुरहान को भारतीय सेना के जवानों ने एक मुठभेड़ में ढेर कर दिया और साथ में इस्लामिक आतंकवाद की काली रात में टिमटिमाते तारे को भी लुप्त कर दिया है। इस आतंकी की मौत के बाद भी भारत ने वही मंजर देखा है जो पिछले कई सालों से देखता आरहा है। जहाँ देश की आम जनता ने एक आतंकी के मारे जाने पर राहत की सांस ली है वही वामपंथियों ने मीडिया के एक वर्ग के सहयोग से तुरन्त ही बुरहान को रुमानियत का लिहाफ ओढ़ाना शुरू कर दिया है। देश की जनता का ध्यान इस्लामिक कट्टरवाद और आतंकवाद से हटाने के लिए, बुरहान को पोस्टर बॉय से लेकर भगत सिंह तक की उपमाओं से नवाजने की घृणित कोशिशें होने लगी हैं। यह बात आम लोगों की समझ से परे की है कि आखिर ऐसी क्या वजह है कि भारत का एक तथाकथित बुद्धिजीवी वर्ग एक घोषित आतंकी के प्रति सहानभूति रखता हुआ दिख रहा है और वह भारतीय सुरक्षा कर्मियों को ही कठघरे में खड़ा करने की कोशिश कर रहा है?
भारत में तथाकथित बुद्धिजीवियों द्वारा मुठभेड़ में मारे गये आतंकवादियों को ‘शहादत’ जैसे शब्द का जामा पहना कर और मानवतावाद के तराज़ू में तौल कर, भारत की सम्प्रभुता की जो खिल्ली उड़ाई जा रही है, वह भारत वामपंथी स्वीकार्यता एवं अस्तित्व के समाप्त हो जाने का डर मात्र है। डरे हुए वामपंथी किसी भी तरह से लोकतंत्र को असफल और अस्थिर करने की फिराक में इस्लामिक आतंकवाद से हाथ मिलाने को तैयार दिख रहे हैं।
यदि भारत में पनपी इस कुत्सित मानसिकता को सरसरी निगाह से देखे तो यह मोदी के भारत का प्रधानमन्त्री बनने और पिछले 68 साल से चल रही शासन व्यवस्था में बदलाव से उपजी वितृष्णा लगती है। लेकिन यदि इस पूरे मामले की गहराई में जाये तो यह इस्लाम और वामपंथ के बीच उस अनकहे गठबंधन का परिणाम है जो हमेशा राष्ट्रवाद के विरुद्ध एक दूसरे के हितों को साधते है। यह इसलिए हुआ है क्योंकि इस्लाम और वामपंथ दोनों के लिए ही भारत में हिंदुत्व की विचारधारा, राष्ट्रवाद की विचारधारा है और राष्ट्र की परिकल्पना, उनकी विचारधारा के ही विरुद्ध है।
यह दोनों विचारधारायें, वामपंथ और इस्लाम, राष्ट्र की अवधारणा को ही नहीं मानते है। यह शब्द उनकी वैचारिक सोच के ही खिलाफ है। इसी लिए इस्लाम और वामपंथ का यह गठबंधन भारतीयता एवं राष्ट्रवाद की विचारधारा के खिलाफ कन्धा से कन्धा मिला कर काम करते अक्सर नजर आ जाते हैं।
भारत के वामपंथी तो सिर्फ अपनी आयातित निष्ठा (धर्म?) के प्रति ही केवल निष्ठावान है। उनके लिए भारत, उनके ‘आदि गुरु मार्क्स’, के अफीम भरे स्वप्न को पूरा करने की कर्म स्थली मात्र है। ये वामपंथी धर्म के खिलाफ बातें करते करते उस कार्ल मार्क्स को देवत्व प्रदान कर दिए हैं, जिनके नाम पर ये पिछले कई दशको से अन्तराष्ट्रीय बाजार में मानवतावाद को बेचते रहे हैं और भारत में, परोक्ष रूप से और कुछ अवसर पर तो सीधे राज्य करते रहे है। जिस मार्क्स ने 1853 में आज से 163 वर्ष पूर्व कहा था कि, “इंग्लैंड को भारत में दो ध्येय पुरे करने हैं, एक संहारात्मक और एक सृजन का। इंग्लैंड को पुरानी सभ्यता को निगल जाना है और उसकी जगह सुदृढ़ पाश्चात्य सभ्यता की नीव रखनी हैं।”
“Has to fulfill a double mission in India: one destructive, the other regenerating – the annihilation of old Asiatic society, and the laying the material foundations of Western society in Asia.”
वामपंथ की विचारधारा के पोषकों ने मार्क्स की इस परिकल्पना को मूर्त रूप देने के लिए स्वतंत्रता से पहले ही सत्ता के केंद्र में रहने के लिए समझौते की नीति अपनायी और बुद्धजीवियों से लेकर मजदूर तक एक फ़ौज़ तैयार की। स्वतंत्रता के बाद सूचना, कला और शिक्षा के तंत्रो में परजीवी बनकर अपने अनुकूल दृष्टि से इतिहास लिखवाया और पढ़ाया है। वही इतिहास जो उनके द्वारा बांचा गया इतिहास हैं, उसको सत्यापित करने की जद्दोजहत में आज का वामपंथ इस्लाम के साथ गलबाहियां करता नजर आ रहा है।
इधर इस्लामिक विचारधारा के पोषकों की निष्ठां भी सिर्फ इस्लाम में है। ये वो हैं जो 1400 साल पहले सिंध को जीतने वाले मोहम्मद बिन कासिम के सपने में ही जीते है। ये दिन रात भारत को, गजवा-ऐ-हिन्द की तारीख से मुक्कमल करने का ही सपना देखते है ।
ये दोनों, तभी आमने-सामने आते हैं, जब इस्लाम और वामपंथ, के बीच सत्ता का संघर्ष होता हैं। इस्लाम और वामपंथ में सबसे दिलचस्प कहानी उन मुस्लिमो की होती है जो अपने को वामपंथी कहते हैं। वे सब के विरुद्ध बोलते है, धर्म को अफीम कहते है लेकिन इस्लाम की कुरीतियों और कट्टरवाद पर मौन रहते है। दरअसल वामपंथ मुस्लिमो को अपने कट्टर मिजाज को छिपा कर रखने का सबसे बढ़िया आवरण देता है।
भारत में जो तथाकथित बुद्धिजीवियों द्वारा मुठभेड़ में मारे गये आतंकवादियों को ‘शहादत’ जैसे शब्द का जामा पहना कर और मानवतावाद के तराज़ू में तौल कर, भारत की सम्प्रभुता की जो खिल्ली उड़ाई जा रही है, वह भारत में वामपंथ का अस्तित्व समाप्त हो जाने का डर मात्र है। डरे हुए वामपंथी किसी भी तरह से लोकतंत्र को असफल और अस्थिर करने की फिराक में इस्लामिक आतंकवाद से हाथ मिलाने को तैयार दिख रहे हैं।
(ये लेखक के निजी विचार हैं)