इन दिनों दिल्ली विश्वविद्यालय के अंतर्गत अवस्थित रामजस महाविद्यालय विवादों में बना हुआ है। विषय को आगे बढ़ाने से पूर्व आवश्यक होगा कि हम रामजस महाविद्यालय के इतिहास के विषय में थोड़ा जान लें। इस महाविद्यालय की स्थापना सन 1917 में प्रख्यात शिक्षाविद् राज केदारनाथ द्वारा दिल्ली के दरियागंज में की गयी थी। जहाँ से 1924 में स्थानांतरित करते हुए इसे दिल्ली के आनंद परबत इलाके में महात्मा गांधी द्वारा स्थापित किया गया। अंततः भारत की स्वतंत्रता के पश्चात् सन 1950 में इसकी वर्तमान ईमारत की स्थापना हुई और देश के प्रथम राष्ट्रपति डॉ राजेन्द्र प्रसाद द्वारा इसका उद्घाटन किया गया। 1922 में जब दिल्ली विश्वविद्यालय की स्थापना हुई थी, तो उसके अंतर्गत लाए जाने वाले प्रथम तीन महाविद्यालयों में सेंट स्टीफेंस महाविद्यालय, हिन्दू महाविद्यालय और रामजस महाविद्यालय ही थे। स्पष्ट है कि रामजस महाविद्यालय का इतिहास एक शताब्दी पुराना और अत्यंत गौरवमय रहा है; परतु त्रासद यह है कि अब शिक्षा के इस मंदिर पर रचनात्मकता से हीन और केवल ध्वंसात्मक गतिविधयों का सृजन करने वाली वामपंथी विचारधारा की काली कुदृष्टि पड़ गयी है। दरअसल जनता द्वारा देश भर में अस्वीकार की जा चुकी वाम विचारधारा अब देश के शिक्षण संस्थानों में मौजूद अपने अस्तित्व के भी सिमटते जाने से बौखलाई हुई है और इसी बौखलाहट में इस विचारधारा के अनुयायी शिक्षण संस्थानों के अध्ययनपूर्ण परिवेश को क्षत-विक्षत करने के कुप्रयास में लग गए हैं। ताज़ा रामजस महाविद्यालय का विवाद भी इसी प्रकार का एक मामला है।
देश के शिक्षण संस्थानों के शैक्षिक वातावरण को दूषित कर उनके प्रति आम जनमानस में गलत सन्देश प्रसारित करना हाल के दिनों में वामी ब्रिगेड का मुख्य शगल बनता जा रहा है। जेएनयू जैसे बड़े शिक्षण संस्थान जहां दुर्भाग्यवश वामियों का वर्चस्व है, के विषय में वे अपने इस उद्देश्य में लगभग सफल भी हुए हैं। गत वर्ष जेएनयू में हुई राष्ट्र विरोधी गतिविधियों के फलस्वरूप लोगों में ऐसा सन्देश गया है कि अब इस विश्वविद्यालय का नाम आते ही ‘देशद्रोहियों का अड्डा’ जैसी बातें जनसामान्य के मुंह से यूँ ही निकल पड़ती हैं। यहाँ तक कि अब तो जेएनयू को बंद करने जैसी मांग तक सामने आने लगी है। इस प्रकार जेएनयू की प्रतिष्ठा को काफी हद तक धूमिल कर चुके वामियों की दृष्टि अब देश के अन्य शिक्षण संस्थानों पर गड़ी हुई है। इसी क्रम में दिल्ली विश्वविद्यालय में मचे इस बवाल को भी देखा जा सकता है।
दरअसल ये सारा विवाद शुरू तब हुआ जब गत 21 फ़रवरी को रामजस महाविद्यालय के एक सेमिनार में वामपंथी छात्र संगठन आईसा द्वारा जेएनयू के छात्र और राष्ट्रद्रोह के आरोपी उमर ख़ालिद व शेहला रशीद को बुलाया गया, जिसका छात्र संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् द्वारा विरोध हुआ। फिर विश्वविद्यालय प्रशासन ने उमर खालिद और शेहला रशीद के आने पर रोक लगा दी। इसके विरोध में वामपंथी छात्र संगठन आईसा द्वारा विरोध मार्च निकाला गया और इसी दौरान आईसा तथा कथित तौर पर एबीवीपी के कार्यकर्ताओं के बीच झड़प हुई। पुलिस ने कार्रवाई करते हुए झड़प के लिए जिम्मेदार संदिग्धों को गिरफ्तार कर लिया। मगर, कामरेड ने सोशल मीडिया पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के हनन का प्रलाप आरम्भ कर दिया। शायद उनके लिए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के हनन का आशय यह था कि देशद्रोह के आरोपी उमर ख़ालिद को दिल्ली विश्वविद्यालय में भाषणबाजी क्यों नहीं करने दी गयी ? इनसे पूछा जाना चाहिए कि दिल्ली विश्वविद्यालय जैसे देश के प्रतिष्ठित शिक्षण संस्थान के कार्यक्रम में देशद्रोह के आरोपी उमर ख़ालिद जो भारत को बांटने से लेकर आतंकवादी बुरहान वानी को क्रांतिकारी बताने जैसी बातें करता है, को भाषण के लिए बुलाने का क्या औचित्य था ? इस तरह की अभिव्यक्तियों पर निस्संदेह अंकुश लगाया जाना चाहिए। एबीवीपी ने यही किया जिसमें कुछ भी अनुचित नहीं कहा जा सकता। खैर! अभी इस मामले में वामपंथी ख़ेमे का अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के हनन का पाखंडी प्रलाप चल ही रहा था कि तभी अचानक एक और मामला सामने आ गया। दिल्ली विश्वविद्यालय के ही लेडी श्रीराम महाविद्यालय में पढ़ने वाली भारतीय सेना के एक शहीद जवान की पुत्री गुरमेहर कौर का परिदृश्य में आगमन हुआ।
गुरमेहर कौर पहले तो एबीवीपी के विरोध में खड़ी हुईं और उसके बाद मीडिया में यह कहने लगीं कि इस विरोध के बाद उन्हें बलात्कार की धमकी मिल रही है। आरोप का आधार यह था कि सोशल साईट पर विरोध प्रदर्शित करने के लिए लगाई गयी उनकी तस्वीर पर कुछ धमकी भरी टिप्पणियां आई थीं। लेकिन, विडंबना देखिये कि इतने बड़े शिक्षण संस्थान में पढ़ने वाली इस लड़की को इतना भी नहीं सूझा कि ऐसे मामलों में सबसे पहले पुलिस या साइबर सेल के पास जाना चाहिए न कि मीडिया और सोशल मीडिया पर निरर्थक शोर-शराबा करना चाहिए। गुरमेहर प्रकरण के चर्चा में आते ही कभी जेएनयू के ‘अनमोल रतन काण्ड’ पर बेशर्म खामोशी की चादर ओढ़ लेने वाला वामपंथी ब्रिगेड नारी अस्मिता की आवाज उठाने लगा। मार्च निकाला जाने लगा। इसी बीच गुरमेहर की गत वर्ष की एक तस्वीर वायरल हो गई जिसमें वे ‘मेरे पिता को पाकिस्तान ने नहीं, युद्ध ने मारा है’ की तख्ती लिए हुए दिख रही हैं। हालांकि जाने-अनजाने अपने पिता की शहादत का दुरूपयोग कर रही इस लड़की को इतना भी नहीं पता कि उनके पिता युद्ध में नहीं, आतंकियों से लोहा लेते हुए शहीद हुए थे और वे आतंकी कहीं और से नहीं, पाकिस्तान से ही आए थे। इस तस्वीर को लेकर भी बवाल शुरू हो गया। गुरमेहर की इस बात के विरोध में सुप्रसिद्ध हस्तियों से लेकर जनसामान्य तक अनेक लोगों ने अपने-अपने ढंग से अपनी बात रखी, जिसे वामी खेमे ने ट्रोलिंग का नाम दे दिया। सवाल ये है कि यदि गुरमेहर को अपनी बात कहने की आज़ादी है, तो उनके विरोध में खड़े होने वाले लोग ट्रोल कैसे हो गए ? वैसे इसमें आश्चर्यजनक कुछ नहीं, ये तो वामपंथ के चिर-परिचित दोहरे चरित्र का एक उदाहरण भर है। बहरहाल, इतने सब हंगामे के बीच न तो गुरमेहर कौर को और न ही उनके कथित खैरख्वाहों में से ही किसीको ये सूझा कि गुरमेहर को बलात्कार की धमकी मिलने की पुलिस में शिकायत दर्ज करवा दी जाए। ये काम किया तो उसी एबीवीपी ने जिसके लोगों पर धमकी देने का गुरमेहर कौर आरोप लगा रही थीं।
इस पूरे प्रकरण के दौरान रामजस महाविद्यालय समेत पूरे दिल्ली विश्वविद्यालय में मौजूद अध्ययन के वातावरण को कितनी क्षति पहुंची होगी, इसे समझा जा सकता है। दरअसल वामपंथी चाहते ही यही हैं। देश के शिक्षण संस्थानों के शैक्षिक वातावरण को प्रदूषित कर उनके प्रति आम जनमानस में गलत सन्देश प्रसारित करना हाल के दिनों में वामी ब्रिगेड का मुख्य शगल बनता जा रहा है। दुर्भाग्यवश जेएनयू जैसे बड़े शिक्षण संस्थान जहां वामियों का वर्चस्व है, के विषय में वे अपने इस उद्देश्य में लगभग सफल भी हुए हैं। गत वर्ष जेएनयू में हुई राष्ट्र विरोधी गतिविधियों के फलस्वरूप लोगों में ऐसा सन्देश गया है कि अब इस विश्वविद्यालय का नाम आते ही ‘देशद्रोहियों का अड्डा’ जैसी बातें जनसामान्य के मुंह से यूँ ही निकल पड़ती हैं। यहाँ तक कि अब तो जेएनयू को बंद करने जैसी मांग तक सामने आने लगी है। इस प्रकार जेएनयू की प्रतिष्ठा को काफी हद तक ख़राब कर चुके इन वामियों की दृष्टि अब देश के अन्य शिक्षण संस्थानों पर गड़ी हुई है। इसी क्रम में दिल्ली विश्वविद्यालय में मचे इस बवाल को भी देखा जा सकता है।
इसके अतिरिक्त देश के एक अन्य प्रतिष्ठित शिक्षण संस्थान बीएचयू पर भी इनकी गिद्ध-दृष्टि पड़ चुकी है। गत दिनों इंडिया टुडे समूह में कार्यरत वरिष्ठ पत्रकार राजदीप सरदेसाई जो कि वाम विचारधारा के सन्निकट और धुर मोदी विरोधी हैं, बीएचयू की चार छात्राओं के साथ वहाँ होने वाले लैंगिक भेदभाव जैसे कि लड़कियों को आमिष भोजन नहीं खाने देने, लड़कियों के लिए वाई-फाई नहीं होने, चर्चा-बहस में भागीदारी की अनुमति नहीं होने, मनमाफिक कपड़े नहीं पहनने देने जैसी बातों का खुलासा करते दिखाई दिए। लेकिन, जब इस सम्बन्ध में पड़ताल करने के लिए जी न्यूज़ मीडिया चैनल बीएचयू पहुँचा तो साफ़ हो गया कि ये सब निराधार बातें थीं। बीएचयू में लैंगिक भेदभाव जैसी कोई भी बात किसी छात्र-छात्रा द्वारा नहीं कही गयी। विश्वविद्यालय प्रशासन ने भी इन सभी आरोपों को सिरे से खारिज कर दिया। कहने की आवश्यकता नहीं कि ये चार छात्राओं के कंधे पर बन्दूक रखकर बीएचयू की प्रतिष्ठा को निशाना बनाने की साज़िश भर थी। इसे बीएचयू पर वामपंथी कुदृष्टि पड़ने के प्रारंभिक चरण के रूप में देखा जाना चाहिए; लेकिन अगर अभी इसपर सचेत नहीं हुआ गया तो कब ये विचारधारा उस ज्ञान के मंदिर को प्रदूषित करने वहाँ पहुँच जाएगी, पता भी नहीं चलेगा।
दरअसल आज़ादी के बाद लगभग सात दशकों तक कांग्रेसी हुकूमत की छत्रछाया में परिपोषित हुए ये वामपंथी २०१४ में सत्ता-परिवर्तन के बाद से ही बिलबिलाए हुए हैं। अबतक अधिकांश शिक्षण संस्थानों पर इनका जो एकछत्र साम्राज्य रहता आया था, वो अब समाप्त होने लगा है। अन्य विचारधाराओं को भी जगह मिलने लगी है। यह प्रमुख कारण है कि देश के शिक्षण संस्थानों की प्रतिष्ठा को नष्ट करने के कुप्रयास में लगे हैं। इनकी इस बदनीयती के प्रति सचेत रहने की आवश्यकता है।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)