राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ द्वारा समाज के बीच जाने और भारतीय जनता पार्टी द्वारा तुष्टिकरण से इतर अपनी सियासी जमीन को मजबूत करने की कोशिशों ने कम्युनिस्ट खेमे में यह डर पैदा किया कि कहीं उनकी हिन्दू वोटबैंक की राजनीति न दरक जाए। इस डर की मूल वजह यह है कि कम्युनिस्ट सैद्धांतिक तौर पर धर्म, संस्कृति, राष्ट्र और भारतीयता के विरोधी हैं। जबकि संघ और भाजपा उनकी सोच के विपरीत समाज के उत्थान, सांस्कृतिक मूल्यों के प्रति आस्था और भारतीयता को लेकर जनचेतना का भाव पैदा करने का कार्य कर रहे हैं। ऐसे में कम्युनिस्टों का डर स्वाभाविक है, क्योंकि भारत के जनमानस की आत्मा में भारतीयता का भाव है, और अगर वो भाव जागृत हुआ तो कम्युनिस्ट विचारधारा ठीक उसी तरह केरल में भी हाशिये पर चली जायेगी जैसे देश के अन्य हिस्सों में लुप्तप्राय हुई है।
लोकतंत्र में वैचारिक मतभेद एवं बहस-मुबाहिसों को पर्याप्त स्वीकार्यता प्रदान की गयी है। स्वतंत्रता के पश्चात भारत के लोकतांत्रिक इतिहास में अनेक ऐसे दलों का निर्माण हुआ जो किसी न किसी वैचारिक विरोध के फलस्वरूप अस्तित्व में आए। लेकिन वैचारिक भिन्नता की वजह से हिंसा का सहारा लेना किसी भी दृष्टि से न तो लोकतंत्र के अनुकूल है और न ही इसे उचित ठहराया जा सकता है। स्वस्थ बहस और वाद-विवाद की लोकतांत्रिक संस्कृति के बीच राजनीतिक हिंसा भी देश के कुछ हिस्सों में साठ के दशक में ही अपने पाँव पसारने लगी थी।
यह महज संयोग नहीं कहा जा सकता है कि राजनीतिक हिंसा की पहली घटना केरल के कन्नूर में वर्ष 1969 में हुई थी, जिसमे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के एक कार्यकर्ता की हत्या का आरोप कम्युनिस्ट पार्टी के कार्यकर्ता पर लगा था। तबसे लेकर और अभी तक संघ कार्यकर्ताओं पर हमलों का सिलसिला जारी है। एक आंकड़े के मुताबिक़ सिर्फ केरल में 1990 से 2016 तक 291 संघ और भाजपा कार्यकर्ता कम्युनिस्ट हिंसा की भेंट चढ़ चुके हैं।
केरल के अलावा कम्युनिस्टों की नफरत और हिंसा की राजनीति में पूरे देश में लगभग 508 संघ और भाजपा कार्यकताओं को जान से हाथ धोना पड़ा है। संघ और भाजपा कार्यकर्ताओं के खिलाफ आये दिन राजनीतिक हिंसा की ख़बरें आम हो चुकी हैं और केरल की कम्युनिस्ट सरकार बनने के बाद मुख्यमंत्री के अपने क्षेत्र कन्नूर में संघ कार्यकर्ताओं पर हमलों में बढ़ोतरी हुई है। कम्युनिस्ट हिंसा भारत की लोकतांत्रिक राजनीतिक वातावरण को दूषित करने वाली वह ज़हर बन चुकी है, जिसका कठोर प्रतिवाद आवश्यक है।
हालांकि सार्वजनिक तौर पर इसका विरोध राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ द्वारा अलग-अलग मंचों से किया जाता रहा है। साथ ही भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने केरल और दिल्ली में जनरक्षा यात्रा के माध्यम से कम्युनिस्ट हिंसा का राजनीतिक प्रतिवाद किया है। उन्होंने हिंसा को कम्युनिस्टों का मूल स्वभाव और चरित्र करार दिया है। लेकिन अभी बड़ा सवाल यह है कि केरल में कम्युनिस्टों की सरकार बनने के बाद संघ और भाजपा के कार्यकर्ताओं पर हो रहे हमलों में बढ़ोतरी की मूल वजह क्या है ? इस सवाल का जवाब खोजने के लिए हमें इतिहास के आईने से केरल की राजनीतिक स्थिति को समझना होगा।
दरअसल केरल की कुल आबादी में हिन्दुओं की हिस्सेदारी 52 फीसद है जबकि मुस्लिम और इसाई समुदाय क्रमश: 27 और 18 फीसद हैं। शुरूआती दौर से वहां राजनीतिक तौर पर सत्ता की लड़ाई में कांग्रेस और लेफ्ट आमने-सामने रहे हैं। चूँकि अल्पसंख्यक तुष्टिकरण की राजनीतिक थ्योरी कांग्रेस को विरासत से मिली है, अत: उन्हें केरल में अल्पसंख्यक मतदाताओं की फ़िक्र ज्यादा होती है। ऐसे में हिन्दू मतदाताओं ने शुरूआती विकल्प में कम्युनिस्ट पार्टी का रुख किया।
चूँकि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ द्वारा समाज के बीच जाने और भारतीय जनता पार्टी द्वारा तुष्टिकरण से इतर अपनी सियासी जमीन को मजबूत करने की कोशिशों ने कम्युनिस्ट खेमे में यह डर पैदा किया कि कहीं उनकी हिन्दू वोटबैंक की राजनीति न दरक जाए। इस डर की मूल वजह यह है कि कम्युनिस्ट सैद्धांतिक तौर पर धर्म, संस्कृति, राष्ट्र और भारतीयता के विरोधी हैं। जबकि संघ और भाजपा उनकी सोच के विपरीत समाज के उत्थान, सांस्कृतिक मूल्यों के प्रति आस्था और भारतीयता को लेकर जनचेतना का भाव पैदा करने का कार्य कर रहे हैं।
ऐसे में कम्युनिस्टों का डर स्वाभाविक है, क्योंकि भारत के जनमानस की आत्मा में भारतीयता का भाव है, और अगर वो भाव जागृत हुआ तो कम्युनिस्ट विचारधारा ठीक उसी तरह केरल में भी हाशिये पर चली जायेगी जैसे देश के अन्य हिस्सों में लुप्तप्राय हुई है। गत चुनावों के आंकड़ों की पड़ताल करें तो अब ऐसा होने के लक्षण दिखने लगे हैं। गत विधानसभा एवं लोकसभा चुनावों में भाजपा के मत फीसद में 16 प्रतिशत का अभूतपूर्व उछाल देखने को मिला है। कई क्षेत्रों में तो भाजपा उम्मीदवारों को व्यापक समर्थन भी मिला है।
अबतक के इतिहास में पहली बार भाजपा के एक विधायक ने चुनाव जीतकर केरल विधानसभा में पहुँचने की कामयाबी भी हासिल की है। तिरुवनंतपुरम में हुए म्युनिसिपल कॉरपोरेशन चुनाव में लेफ्ट को 100 सीटों में सिर्फ 43 सीटें मिलीं जबकि भारतीय जनता पार्टी ने ऐतिहासिक कामयाबी प्राप्त करते हुए 35 सीटें जीतकर कम्युनिस्टों के पाँव तले जमीन खिसका दी है। हाल के दिनों में कम्युनिस्टों द्वारा हताशा में संघ और भाजपा कार्यकर्ताओं पर बढ़े हमलों को इस नजरिये से भी देखने की जरूरत है।
बेशक कम्युनिस्ट भारत में लोकतांत्रिक ढंग से चुनकर आ गये, लेकिन लोकतंत्र के मूल आचरण को उन्होंने अपनी विचार प्रणाली का हिस्सा नहीं बनाया। जब 1957 में केरल में दुनिया की पहली लोकतांत्रिक ढंग से चुनी हुई एक कम्युनिस्ट सरकार का गठन हुआ था, उस दौरान यह निश्चित ही दुनिया के लिए एक अनोखी घटना रही होगी। अनोखी इसलिए, क्योंकि कम्युनिज्म और संसदीय लोकतंत्र बिलकुल एक-दूसरे के विरोधाभाषी हैं।
स्टालिन, लेनिन से लगाये माओत्से तक के दमन और हिंसा की कहानी दुनिया से छिपी बात नहीं है। इसके बावजूद केरल में दुनिया की पहली लोकतांत्रिक सरकार कम्युनिस्टों की बनी थी। तानाशाही के शासन और वैचारिक विरोधियों के प्रति दुराग्रह की पराकाष्ठा तक नफरत के भाव ने उनके हिंसात्मक चरित्र को बढ़ावा दिया। जिन-जिन प्रदेशों, चाहें केरल हो अथवा पश्चिम बंगाल, में कम्युनिस्टों को लंबा अवसर मिला, उन्होंने अपने वैचारिक विरोधियों का दमन करने और संसदीय लोकतंत्र की मूल मर्यादा को तार-तार करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी।
25 नवम्बर, 1949 को संविधान सभा में बोलते हुए बाबा साहब अंबेडकर ने कहा था, ‘वामपंथी इसलिए इस संविधान को नहीं मानेंगे, क्योंकि यह संसदीय लोकतंत्र के अनुरूप है और वामपंथी संसदीय लोकतंत्र को मानते नहीं हैं।’ यही वजह है कि देश के आम जनमानस ने कभी उनको एक राजनीतिक विकल्प के रूप में व्यापक तौर पर स्वीकार नहीं किया जबकि स्वतंत्रता के पश्चात कम्युनिस्ट पार्टी कांग्रेस के खिलाफ प्रमुख विपक्षी दल के रूप में थी। केरल में उनकी घृणा संघ के प्रति इसलिए है क्योंकि संघ वहां जमीनी स्तर पर लोगों के बीच संवाद की प्रक्रिया को प्रवाहपूर्ण बनाने के लिए सतत कार्यरत है। संघ के विस्तार से कम्युनिस्टों की घबराहट स्वाभाविक है।
आज जब भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह केरल की राजनीतिक हिंसा को ‘जनरक्षा यात्रा’ के माध्यम से सियासी हवा दे रहे हैं, तो इसे केरल को लेकर भारतीय जनता पार्टी के कार्यकर्ताओं में एक आशा और उत्साह के रूप में देखा जाना चाहिए। भाजपा को केरल में आशा की एक किरण इसलिए दिखाई दे रही है क्योंकि वहां कम्युनिस्टों ने लोकतंत्र के विपरीत उन रास्तों को अख्तियार किया है जो न तो भारत के लोकतंत्र में स्वीकार्य हैं और न ही जनता उसमें भरोसा करती है।
पिछले चुनावों में भाजपा के उभार ने केरल की बदलती राजनीतिक परिस्थितियों के संकेत दिए हैं। केरल की जनता के सामने अभी बड़ा मुद्दा राजनीतिक हिंसा की जद से प्रदेश को निकालकर एक लोकतांत्रिक मान्यताओं की विचारधारा वाली सरकार का गठन करना है। चाहें वो सरकार किसी भी दल की हो, लेकिन उसके विचार के मूल आदर्श भारतीयता से प्रेरित हों और संसदीय लोकतंत्र के अनुकूल हों।
(लेखक डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी रिसर्च फाउंडेशन में रिसर्च फेलो एवं नेशनलिस्ट ऑनलाइन के संपादक हैं।)