भारत में सावरकर, अम्बेडकर और वामपंथ तीनों की बहस एक कालखंड में पैदा हुई बहस है, जो आज भी प्रासंगिक है। सावरकर की राष्ट्रवादी विचारधारा वामपंथियों के निशाने पर तब भी थी, आज भी है। वहीँ अम्बेडकर, सावरकर की हिन्दू एकजुटता के अभियान से सहमत थे जबकि अम्बेडकर वामपंथियों की जमकर आलोचना करते थे। अम्बेडकर का स्पष्ट मानना था कि वामपंथी विचारधारा संसदीय लोकतंत्र के ही खिलाफ है। अम्बेडकर से जुडी एक महत्वपूर्ण बात यह भी है कि वे अपने समय में समाजवाद, वामपंथ, मुस्लिम लीग सहित सभी विचारधाराओं की कटु आलोचना किये, जबकि राष्ट्रवादी विचारधारा वाले संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के खिलाफ एक शब्द भी कभी नहीं बोले हैं। बल्कि उन्होंने कुछ मुद्दों पर सावरकर से सहमती भी जताई है।
वर्तमान परिवेश की बात करें वामपंथी विचारधारा जनादेश की कसौटी पर लगभग रसातल को पहुँच चुकी है। अपवादों को छोड़ दें तो इस विचारधारा को जनता सिरे से खारिज कर चुकी है। वामपंथ की अभारतीय सोच के भरोसे जनता के बीच जाने की हिम्मत अब वामपंथियों में भी नहीं बची है। इसीलिए वे सवर्णवाद के खिलाफ झंडा उठाकर बाबा साहब अम्बेडकर का नाम लेने की कोशिश करते नजर आ जाते हैं। लेकिन जेएनयू के चुनाव में उनका यह ढोंग भी बेनकाब हो गया। यह तथ्य है कि समाजिक न्याय के नए-नवेले पैरवीकार बनने की होड़ में खुद को बाबा साहब का अनुयायी बताने वाले वामपंथी दशकों के लम्बे इतिहास में एक दलित महासचिव तक पोलित ब्यूरो में नहीं दे पाए हैं।
खैर, यह तो उस कालखंड की बात रही। अब अगर वर्तमान परिवेश की बात करें वामपंथी विचारधारा जनादेश की कसौटी पर लगभग रसातल को पहुँच चुकी है। अपवादों को छोड़ दें तो इस विचारधारा को जनता सिरे से खारिज कर चुकी है। वामपंथ की अभारतीय सोच के भरोसे जनता के बीच जाने की हिम्मत अब वामपंथियों में भी नहीं बची है। इसीलिए वे सवर्णवाद के खिलाफ झंडा उठाकर बाबा साहब अम्बेडकर का नाम लेने की कोशिश करते नजर आ जाते हैं। लेकिन जेएनयू के चुनाव में उनका यह ढोंग भी बेनकाब हो गया। यह तथ्य है कि समाजिक न्याय के नए-नवेले पैरवीकार बनने की होड़ में खुद को बाबा साहब का अनुयायी बताने वाले वामपंथी दशकों के लम्बे इतिहास में एक दलित महासचिव तक पोलित ब्यूरो में नहीं दे पाए हैं। पोलित ब्यूरो में दलितों की भागीदारी के प्रश्न पर भी वामपंथी बगले झांकते नजर आते हैं। वामपंथी पार्टी के पोलित ब्यूरो में महिलाओं की स्थिति भी ढांक के तीन पात से ज्यादा कुछ भी नहीं है। पहली बार वृंदा करात शामिल भी हुईं तो इसके पीछे परिवारवाद का ही असर था, जिसकी मुखालफत का ढोंग वामपंथी अक्सर करते रहते हैं। दरअसल वृंदा करात हसबैंड-कोटे से पोलित ब्यूरो की शोभा बढ़ा रही हैं। चुनावी राजनीति में प्रत्यक्ष तौर पर हिस्सा लेने वाले जिस राजनीतिक संगठन में दलितों, पिछड़ों, महिलाओं की भागीदारी नगण्य हो, वे जब समाजिक न्याय का प्रश्न उठाते हैं तो बड़ा हास्यास्पद लगता है। सवर्णवाद और मर्दवाद सहित सामन्ती सोच की झांकी वामपंथी दलों से ज्यादा कहीं और नहीं दिख सकती है।
जेएनयू में भी इसबार इनके ढोंग का चेहरा बेनकाब हुआ है। देशद्रोही गतिविधियों की वजह से जेएनयू के वामपंथी पहले ही निशाने पर थे। अपने उसी देशद्रोह को छिपाने के लिए उन्होंने बाबा साहब के नाम का सहारा भी लिया। छात्रसंघ चुनाव में हार का खौफ वामपंथियों में इस कदर था कि आमतौर पर अलग-अलग चुनाव लड़ने वाली तीन-तीन वामपंथी पार्टियाँ एकजुट होकर गठबंधन में चुनाव लड़ी। आइसा-एसएफआई और एआईएसएफ का यह गठबंधन हार के डर से बनाया गया। वरना एक दल जिसका वर्तमान अध्यक्ष तथकथित रूप से सो-काल्ड सेक्युलर मीडिया द्वारा इतना ग्लैमराईज किया गया हो, वो पार्टी अपना उम्मीदवार तक नहीं उतार सकी। चुनाव मैदान में सावरकर की विचारधारा वाली एबीवीपी अकेले लड़ रही थी तो खुद को अंबेडकराईट बताने वाली बाप्सा चुनाव मैदान में थी। एबीवीपी की तरफ से महिला उम्मीदवार अध्यक्ष पद के लिए थी तो बापसा ने एक दलित-पिछड़े को मैदान में उतारा था। दूसरी तरफ लेफ्ट-यूनिटी के गठबंधन ने सावरकर की विचारधारा वाली महिला और अंबेडकर की विचारधारा वाले दलित-पिछड़े के खिलाफ एक सवर्ण ब्राह्मण पुरुष को मैदान में उतारा। तीन दलों के साझा चक्रव्यूह ने लेफ्ट यूनिटी को संख्या की जीत तो दिला दी, मगर एकबार फिर विचारधारा के धरातल पर वे बुरी तरह एक्सपोज होते हुए हार गये। आंकड़ों पर नजर डालें तो पिछली बार जितना वोट पाकर अध्यक्ष पद का उम्मीदवार चुनाव जीता था उससे ज्यादा वोट इसबार बापसा को मिले हैं और उससे थोड़े ही कम एबीवीपी को मिले हैं। परिणाम के दिन जश्न मनाते हुए लेफ्ट संगठनों ने संघ की पोशाक पहनाकर एक पुतले के साथ एबीवीपी की शवयात्रा निकाली। मगर सीधी टक्कर में उन्होंने जिस बाप्सा को हराया था, उसके अंबेडकर की शवयात्रा निकलना कैसे भूल गये ? दरअसल वो भूले नहीं बल्कि एकबार फिर अपनी जीत के बहाने लोगों को गुमराह करने की कोशिश किये। उन्होंने हराया तो अम्बेडकर की विचारधारा को था, वरना एबीवीपी के खिलाफ जब तीन वामपंथी संगठन समझौता कर सकते थे तो वे अम्बेडकर के लिए बाप्सा का समर्थन भी तो कर सकते थे ? लेकिन उन्हें खुद को बचाना भी था। सवर्णवाद को जिन्दा भी रखना था और यह दिखाना भी था कि उन्होंने एबीवीपी को हरा दिया।
दरअसल जो नहीं समझ पा रहे, उन्हें समझना होगा कि जेएनयू में लेफ्ट-यूनिटी की यह लड़ाई सावरकर ही नहीं बल्कि अंबेडकर के भी खिलाफ थी। उन्होंने सावरकर वाली विचारधारा को नहीं बल्कि अंबेडकर वाली विचारधारा को हराया है। उन्हें बेहतर पता है कि अंबेडकर और सावरकर के बीच तमाम मुद्दों पर एकमत है जबकि दोनों का उनकी विचारधारा से घोर विरोध है। जेएनयू की पूरी जंग सावरकर-अंबेडकर के खिलाफ वामपंथी चक्रव्यूह का एक नमूना मात्र है।
(लेखक डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी रिसर्च फाउंडेशन में रिसर्च फेलो हैं और नेशनलिस्ट ऑनलाइन के सम्पादक हैं।)