असहिष्णुता का मुद्दा अभी पुराना नहीं हुआ है। यह मुद्दा खूब उछाला गया था। राष्ट्रवादी विचारधारा के विरोधी खेमे ने ‘असहिष्णुता’ शब्द को अन्तरराष्ट्रीय बनाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी थी। उनका आरोप था कि देश में असहिष्णुता बढ़ रही है। खैर, यह देश असहिष्णु है कि नहीं इसपर खूब बहस हो चुकी है लेकिन इस देश के बौद्धिक संस्थानों में पूर्व की कांग्रेसी सरकारों एवं बाहर के आयातित फंड पर अकादमिक संस्थानों के सहारे पलने वाले तथाकथित बुद्धिजीवी जरुर असहिष्णु हैं। बिना अधिक मेहनत के भी वामपंथी बुद्धिजीवियों की असहिष्णुता के अनेक उदाहरण मिल जायेंगे।
कृष्णा सोबती मामले ने एकबार फिर वामपंथी ‘असहिष्णुता’ की पोल खोल दी है। देश को यह जान चुका है कि इन्हें बहस, संवाद, चर्चा, सवाल-जवाब, लोकतांत्रिक प्रणाली की बजाय वैचारिक एकाधिकार मात्र पसंद है। कृष्णा सोबती की इस धमकी को उनकी वैचारिक प्रशिक्षण का हिस्सा कहना गलत नहीं होगा। पहले सबकुछ उनके अनुकूल था, सो उनका असली चेहरा नकाब के पीछे ढंका हुआ था। अब जबसे इस देश में दूसरी विचारधाराओं के लोग बहस में खुलकर उपस्थिति दर्ज कराने लगे, मंचों पर बुलाये जाने लगे, अपनी बात से उनके झूठ का जवाब देने लगे, तो उनकी परेशानी धमकी बनकर सामने आने लगी। कार्यक्रम में बोलते हुए एक वक्ता ने कहा कि अब कृष्णा सोबती को अपनी किताब पर यह छपवा देना चाहिए कि यह किताब विरोधी विचारधारा के लोग बिलकुल न पढ़ें! अंत में कामरेड सोबती से एक बात कहना चाहूँगा, ‘बोल कि लब आजाद हैं तेरे, लेकिन वो कामरेड लब ही हों ये जरुरी तो नहीं!
वामपंथी असहिष्णुता का एक ताजा मामला कृष्णा सोबती बनाम नवोदित लेखिका कायनात क़ाज़ी से जुडा हुआ है। कायनात काजी ने कृष्णा सोबती पर एक किताब ‘कृष्णा सोबती का साहित्य और समाज’ लिखा है। इस किताब का विमोचन 27 अगस्त को राजीव चौक स्थिति कैफे द आर्ट में तय हुआ था। नवोदित लेखिका कायनात क़ाज़ी ने किताब के विमोचन के लिए इंदिरा गांधी कला केंद्र के सदस्य सचिव सच्चिदानंद जोशी, मशहूर चित्रकार एवं पत्रकार विजय क्रान्ति एवं पत्रकार अनंत विजय को आमंत्रित किया था। कार्यक्रम स्थल पर जब हम पहुंचे तो पता चला कि कृष्णा सोबती ने इस किताब का विमोचन कराने का विरोध यह कहकर किया है कि उनपर लिखी इस किताब का विमोचन संघ की विचारधारा के लोगों के हाथों नहीं होना चाहिए! कृष्णा सोबती को इस बात से दिक्कत थी कि इसमें इंदिरा गांधी कला केंद्र (राम बहादुर राय अध्यक्ष हैं और सच्चिदानंद जोशी सदस्य सचिव) का नाम क्यों आ रहा है ? कृष्णा सोबती के अनुसार इस किताब का विमोचन नहीं होना चाहिए था।
कार्यक्रम तो हुआ लेकिन कार्यक्रम में विमोचन कार्यक्रम नहीं हुआ। इसमें कोई शक नहीं कि कृष्णा सोबती के दबाव और उनके असहिष्णु रवैये के आगे नवोदित लेखिका को किताब का विमोचन रोकने पर मजबूर होना पड़ा होगा। लेकिन बड़ा सवाल यह है कि यह असहिष्णुता भरा रवैया दिखाने वाले तथाकथित वामपंथी भला किस मुह से देश में असहिष्णुता का रोना रोते हैं ? यह बात किसी से छुपी नहीं है कि वामपंथ के मूल में तानाशाही है। उनका न तो संवाद में यकीन है और न ही लोकतंत्र में ही भरोसा है। वामपंथ वैचारिक विविधता का तो क्रूरता से दमन करने का हिमायती है। वे विरोधी विचारधारा से संवाद तो छोडिये, ‘अछूत’ जैसा व्यवहार करते हैं। विचारधारा की यह छुआ-छूत वामपंथियों में कोढ़ की तरह व्याप्त है। वे अपनी बनाई चौकड़ी से बाहर न तो निकलते हैं और न ही किसी को निकलने देते हैं। वरना तीन साल पहले हंस के कार्यक्रम से अरुंधती राय और वरवरा राव यह कहकर क्यों मंच पर आने से इनकार कर देते कि वे गोविन्दाचार्य के साथ मंच नहीं साझा कर सकते हैं ? छुआ-छुत की मानसिकता वामपंथियों की पुरानी बीमारी है, जिसकी सडांध से समाज और देश में अनेक बार प्रदूषण की महामारी पैदा होती रही है। पिछले साल आई ‘असहिष्णुता’ की महामारी इसी वामपंथी छुआ-छूत की उपज थी! नामवर सिंह का जन्मदिन इंदिरा गांधी कला केंद्र मना ले और उनको मंच पर बिठा दे, तो भी वामपंथियों को परेशानी हो जाती है।
हालांकि जहाँ लाभ मिलना हो वहां वामपंथी कभी बलिदान नहीं देंगे। जैसे अवार्ड लौटाए जाते हैं लेकिन रकम नहीं, सरकार के मंच से विरोध है लेकिन सरकारी वेतन से नहीं। वे मंच पर राजनाथ के साथ नहीं बैठेंगे लेकिन संसद से यह कहकर इस्तीफ़ा नहीं देंगे कि जिस संसद में ‘साम्प्रदायिक’ (उनकी जुबान में) सरकार चल रही हो, वे उस संसद में सभागार नहीं साझा करेंगे। वे नौकरी करेंगे, वेतन लेंगे, सरकारी खर्चे पर यात्रा करेंगे, कार्यक्रम करेंगे, विज्ञापन लेंगे लेकिन जब शहादत देंगे तो अपनी नहीं, नाख़ून कटाकर शहीद बनेगे। कृष्णा सोबती मामले ने एकबार फिर वामपंथी ‘असहिष्णुता’ की पोल खोल दी है। देश को यह जान चुका है कि इन्हें बहस, संवाद, चर्चा, सवाल-जवाब, लोकतांत्रिक प्रणाली की बजाय वैचारिक एकाधिकार मात्र पसंद है। कृष्णा सोबती की इस धमकी को उनकी वैचारिक प्रशिक्षण का हिस्सा कहना गलत नहीं होगा। पहले सबकुछ उनके अनुकूल था, सो उनका असली चेहरा नकाब के पीछे ढंका हुआ था। अब जबसे इस देश में दूसरी विचारधाराओं के लोग बहस में खुलकर उपस्थिति दर्ज कराने लगे, मंचों पर बुलाये जाने लगे, अपनी बात से उनके झूठ का जवाब देने लगे, तो उनकी परेशानी धमकी बनकर सामने आने लगी। कार्यक्रम में बोलते हुए एक वक्ता ने कहा कि अब कृष्णा सोबती को अपनी किताब पर यह छपवा देना चाहिए कि यह किताब विरोधी विचारधारा के लोग बिलकुल न पढ़ें! अंत में कामरेड सोबती से एक बात कहना चाहूँगा, ‘बोल कि लब आजाद हैं तेरे, लेकिन वो कामरेड लब ही हों ये जरुरी तो नहीं!
लेखक नेशनलिस्ट ऑनलाइन डॉट कॉम के सम्पादक हैं।