केरल में कम्युनिस्ट पार्टी खुलकर असहिष्णुता दिखा रही है। लेकिन, असहिष्णुता की मुहिम चलाने वाले झंडाबरदार कहीं दिखाई नहीं दे रहे हैं। क्या उन्हें यह असहिष्णुता प्रिय है? यह तथ्य सभी के ध्यान में है कि कम्युनिस्ट विचारधारा भयंकर असहिष्णु है। यह दूसरी विचारधाराओं को स्वीकार नहीं करती है, अपितु अपनी पूरी ताकत से उन्हें कुचलने का प्रयास करती है। दुनियाभर में इसके अनेक उदाहरण हैं। भारत में केरल की स्थितियाँ भी इसकी गवाह हैं। कम्युनिस्ट विचारधारा के लाल आतंक से कौन बेखबर है? केरल को वामपंथ का गढ़ कहा जाता है। वर्तमान में यहाँ कम्युनिस्ट विचार की सरकार भी है। मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी सरकार का राजनीतिक संरक्षण प्राप्त कर एक तरफ मार्क्सवादी गुंडे राष्ट्रवादी विचारधारा को मानने वाले लोगों की हत्याएँ कर रहे हैं, वहीं दूसरी ओर सरकार स्वयं भी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को दबाने के लिए सत्ता की ताकत का दुरुपयोग कर रही है। माकपा सरकार ने मंदिरों और सार्वजनिक स्थलों पर संघ की शाखा को प्रतिबंधित और मंदिरों की सम्पत्ति एवं प्रबंधन को अपने नियंत्रण में लेने की तैयारी की है। सरकार का यह निर्णय अपनी विरोधी विचारधारा के प्रति घोर असहिष्णुता का परिचायक है। यह लोकतंत्र और संविधान द्वारा प्रदत्त अधिकारों का भी हनन है।
कम्युनिस्ट विचारधारा की सरकार को हिन्दू श्रद्धालुओं के साथ होने वाले कथित अन्याय की चिंता हो रही है, यह बात ही सरकार के प्रति संदेह पैदा करती है। कम्युनिस्टों ने कब-कब हिन्दुओं और उनकी आस्थाओं की चिंता की है? कम्युनिस्ट हिन्दुओं के मानबिन्दुओं का अपमान करने में ही सबसे आगे रहे हैं। इसलिए सीपीएम नेता कडकम्पल्ली सुरेंद्रन जब यह झूठ बोलते हैं कि ‘किसी भी संगठन द्वारा मंदिरों का इस्तेमाल हथियारों और शारीरिक प्रशिक्षण के लिए करना श्रद्धालुओं के साथ अन्याय है।’ तब हिन्दुओं के खिलाफ किसी साजिश की बू आती है। जिन्होंने कभी हिन्दुओं की चिंता नहीं की, वे हिन्दुओं की आड़ लेकर राष्ट्रवादी विचारधारा पर प्रहार करना चाह रहे हैं। एक तरफ आरएसएस केरल में अनेक मंदिरों का जीर्णोद्धार और निर्माण करा रहा है, वहीं सरकार की नीयत मंदिरों पर कब्जा जमाने की है।
दरअसल, माकपा केरल में बढ़ते संघ के प्रभाव से भयभीत है। तीन साल पहले तक केरल में आरएसएस की करीब 4 हजार शाखाएँ थीं। इस समय शाखाओं की संख्या 5500 के करीब है और यह संख्या लगातार बढ़ती ही जा रही है। कम्युनिस्टों को यह अहसास हो गया है कि आरएसएस की विचारधारा को जिस तरह समाज की स्वीकारोक्ति मिल रही है, उससे निकट भविष्य में उनका यह गढ़ भी ढह जाएगा। कम्युनिस्ट विचारधारा के सामने अस्तित्व का संकट खड़ा हो गया है। यदि माकपा की सोच यह है कि सार्वजनिक स्थलों पर शाखा को प्रतिबंधित करने से संघ खत्म हो जाएगा, तब यह हास्यास्पद ही है। संघ पर इस तरह के अनेक प्रतिबंध पहले भी लगाए जा चुके हैं, लेकिन उससे आरएसएस का रथ रुका नहीं है। कम्युनिस्ट यह भी जानते हैं कि आम आदमी राष्ट्रीय कार्य के लिए अपनी जमीन संघ की शाखा के लिए दे सकता है। क्योंकि, मार्क्सवादी गुंडों के आतंक के बाद भी लोगों ने संघ की शाखा में आना नहीं छोड़ा है। इसलिए सरकार ने सामान्य व्यक्ति को डराने का उपाय भी प्रस्तावित कानून में रखा है।
प्रस्तावित कानून के अनुसार अगर किसी व्यक्ति के निजी परिसर में आरएसएस की शाखा लगायी जानी है तो उसकी सूचना भी पहले पुलिस को देनी होगी। यहाँ भी माकपा सरकार भूल रही है कि संघ के कार्यकर्ता जब आपातकाल में शासन के जुल्म से नहीं डरे तब उसके इस कानून से वह कहाँ भयभीत होंगे। भयभीत तो सरकार है। सीपीएम नेता और देवास्वोम मंत्री कडकम्पल्ली सुरेंद्रन ने कहा कि ‘सरकार आरएसएस को उसके कैडरों के प्रशिक्षण के लिए मंदिरों के इस्तेमाल की इजाजत नहीं दे सकती। किसी भी संगठन द्वारा मंदिरों का इस्तेमाल हथियारों और शारीरिक प्रशिक्षण के लिए करना श्रद्धालुओं के साथ अन्याय है। कुछ मंदिरों में ऐसी गैर-कानूनी गतिविधियां हो रही हैं। शाखा की आड़ में आरएसएस मंदिरों को हथियार छिपाने और प्रशिक्षण देने की जगह के तौर पर इस्तेमाल कर रही है।’ संघ को दबाने के लिए माकपा सरकार ने इस झूठ का सहारा लिया है। माकपा को शायद नहीं मालूम होगा कि आरएसएस की शाखा आम समाज के सामने खुले मैदान में लगती है। वहाँ हथियारों का प्रशिक्षण नहीं दिया जाता। बल्कि संघ की शाखा में कोई भी स्वयंसेवक हथियार लेकर नहीं आता है। यदि संघ की शाखाओं में स्वयंसेवक हथियार लेकर आते तब मार्क्सवादी गुंडे उनकी हत्याएँ कर पाते क्या? क्या सरकार यह साबित कर सकती है कि संघ की शाखाओं में हथियारों का प्रशिक्षण दिया जाता है? यदि वास्तव में माकपा सरकार को राज्य में हथियारों का प्रशिक्षण रोकना है, तब उन्हें मार्क्सवादी गुंडों के अड्डों पर कार्रवाई करनी चाहिए।
कम्युनिस्ट विचारधारा की सरकार को हिन्दू श्रद्धालुओं के साथ होने वाले कथित अन्याय की चिंता हो रही है, यह बात ही सरकार के प्रति संदेह पैदा करती है। कम्युनिस्टों ने कब-कब हिन्दुओं और उनकी आस्थाओं की चिंता की है? कम्युनिस्ट हिन्दुओं के मानबिन्दुओं का अपमान करने में ही सबसे आगे रहे हैं। इसलिए सीपीएम नेता कडकम्पल्ली सुरेंद्रन जब यह झूठ बोलते हैं कि ‘किसी भी संगठन द्वारा मंदिरों का इस्तेमाल हथियारों और शारीरिक प्रशिक्षण के लिए करना श्रद्धालुओं के साथ अन्याय है।’ तब हिन्दुओं के खिलाफ किसी साजिश की बू आती है। जिन्होंने कभी हिन्दुओं की चिंता नहीं की, वे हिन्दुओं की आड़ लेकर राष्ट्रवादी विचारधारा पर प्रहार करना चाह रहे हैं। एक तरफ आरएसएस केरल में अनेक मंदिरों का जीर्णोद्धार और निर्माण करा रहा है, वहीं सरकार की नीयत मंदिरों पर कब्जा जमाने की है।
केरल की विधानसभा में एक विधेयक पेश किया गया है। इस विधेयक के पारित होने के बाद केरल के मंदिरों में जो भी नियुक्तियाँ होंगी, वह सब लोक सेवा आयोग (पीएससी) के जरिए होंगी। माकपा सरकार इस व्यवस्था के जरिए मंदिरों की संपत्ति और उनके प्रशासनिक नियंत्रण को अपने हाथ में रखना चाहती है। मंदिरों की देखरेख और प्रबंधन के लिए पूर्व से गठित देवास्वोम बोर्ड की ताकत को कम करना का भी षड्यंत्र माकपा सरकार कर रही है। माकपा सरकार ने देवास्वोम बोर्ड को ‘सफेद हाथी’ की संज्ञा दी है और इस बोर्ड को समाप्त करना ही उचित समझती है। दरअसल, दो अलग-अलग कानूनों के जरिए माकपा सरकार ने हिंदू मंदिरों की संपत्ति पर कब्जा जमाने का षड्यंत्र रचा है। एक कानून के जरिए मंदिर के प्रबंधन को सरकार (माकपा) के नियंत्रण में लेना है और दूसरे कानून के जरिए मंदिरों से राष्ट्रवादी विचारधारा को दूर रखना है। ताकि जब कम्युनिस्ट मंदिरों की संपत्ति का दुरुपयोग करें, तब उन्हें टोकने-रोकने वाला कोई उपस्थित न हो।
बहरहाल, आरएसएस की ओर से सरकार के प्रस्तावित कानून का विरोध किया गया है। आरएसएस केरल प्रांत कार्यवाहक गोपालनकुट्टी मास्टर ने कहा कि ‘पूजा करने वालों ने मंदिरों में आरएसएस शाखाओं के बारे में शिकायत नहीं की है। हम पूजा या दूसरे कार्यक्रमों में बाधा पहुचाएँ बिना शाखा लगाते हैं। हम योग करते हैं। भजन गाते हैं। चर्चा करते हैं। सीपीएम को लगता है कि मंदिरों में शाखा पर रोक लगाने से आरएसएस खत्म हो जाएगा। इससे उनके अज्ञान का पता चलता है। हम इस कदम के खिलाफ संघर्ष करेंगे।’ माकपा सरकार के निर्णय पर त्रावणकोर देवास्वोम बोर्ड के अध्यक्ष प्रयार गोपालकृष्णन के बयान से भी प्रश्न खड़े होते हैं कि सरकार के इस कानून का आधार क्या है? गोपालकृष्णन के अनुसार मंदिर की देखरेख करने वाली संस्था को हथियारों के प्रशिक्षण से जुड़ी कोई शिकायत नहीं मिली है। यानी सरकार पूर्वाग्रह से ग्रसित है। संघ के प्रति उसका व्यवहार अपनी विचारधारा के अनुरूप ही है।
वामपंथी विचारधारा सदैव से तथ्यहीन और अनर्गल आरोप लगाकर संघ को बदनाम करने का प्रयास करती रही है, सरकार में आने के बाद भी उसका वही चरित्र है। कम्युनिस्ट विचारधारा के लोग सदैव यह करते रहे हैं कि सरकारी कामकाज के दौरान संघ के संबंध में इस तरह के तथ्यहीन बातों को दस्तावेज में लिख दो, बाद में संघ को बदनाम करने के लिए इन्हीं झूठे तथ्यों को प्रमाण के रूप में प्रस्तुत करो। लेकिन, इस प्रकार के छल के बावजूद उन्हें हार का ही मुँह देखना पड़ा है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पारदर्शी संगठन है। वह समाज का संगठन नहीं है, बल्कि समाज में संगठन है। समाज स्वयं उसके कार्यों और आचार-व्यवहार का मूल्यांकन करता है, इसलिए इस तरह के प्रपंच उसे नुकसान नहीं पहुँचा पाते। माकपा सरकार को जरा भी लोकतांत्रित मूल्यों में भरोसा हो, तो उसे तत्काल इस कानून को रद्दी के टोकरे में फेंक देना चाहिए।
(लेखक माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं।)