रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर ने 29 अगस्त को अमरीका में लॉजिस्टिक्स एक्सचेंज मेमोरेण्डम ऑफ़ एग्रीमेंट (LEMOA) पर हस्ताक्षर किये हैं। यह समझौता सामरिक दृष्टिकोण से एक अलग तरह का महत्व रखता है। इस समझौते पर हस्ताक्षर करने से भारत और अमेरिका दुनिया भर में फैले एक दूसरे के सैन्य ठिकानों से रसद सहायता साझा कर सकेंगे। इसमें हथियार और गोला बारूद शामिल नहीं है। दरअसल लॉजिस्टिक्स का अर्थ है हथियार और गोला बारूद के अतिरिक्त युद्ध में उपयोगी सामग्री जिसमें सैनिकों के खान पान से लेकर लड़ाकू विमान का ईंधन भी शामिल हैं। वामपंथियों ने आदतानुसार इस समझौते का यह कह कर विरोध किया कि इससे भारत भी अमरीका का पिट्ठू देश बन गया है। जबकि असलियत यह है कि यदि अमरीका किसी भी ऐसे देश पर हमला करता है जिससे भारत के दोस्ताना सम्बंध हैं तो भारत इस समझौते से अलग होने के लिए पूर्णतः स्वतंत्र है। रक्षा मंत्री के बयान ने उन अटकलों को भी विराम दिया जिसमें कहा जा रहा था कि लिमोआ पर हस्ताक्षर करने से भारत अमरीकी सैन्य अड्डे के लिए अपनी धरती देने को बाध्य होगा। गौरतलब है कि अमेरिका ऐसे समझौते कई देशों के साथ कर चुका है। अन्य देशों के साथ हुए समझौते को अमेरिका लॉजिस्टिक्स सपोर्ट एग्रीमेंट नाम देता है किंतु भारत को विशेष सामरिक साझेदार बनाने के परिप्रेक्ष्य में इसे लिमोआ नाम दिया गया। यहाँ यह देखना आवश्यक है कि लिमोआ गत दस-बारह वर्षों से अटका पड़ा था, जिसे अंततः मोदी सरकार ने समझौते का रूप देने का महत्वपूर्ण कार्य किया।
हम पहले भी संयुक्त सैन्य अभ्यास करते रहे हैं और लॉजिस्टिक्स सपोर्ट लेते रहे हैं, लिमोआ समझौते से इसमें गति आएगी तथा परस्पर सैन्य सहयोग का वित्तीय लेखा जोखा एक ठोस प्रारूप में सामने आयेगा। दक्षिण चीन सागर में चीन की दादागिरी का प्रत्युत्तर इससे बेहतर तरीके से नहीं दिया जा सकता। सामरिक विशेषज्ञ सी राजमोहन अपनी पुस्तक Modi’s World में कहते हैं कि अमेरिका भारत की विदेश नीति का उत्तर प्रदेश है। यानि जिस तरह लोक सभा चुनावों में दिल्ली का रास्ता उत्तर प्रदेश से होकर जाता है, उसी प्रकार वैश्विक राजनीति में अमेरिका के प्रभाव को हम नकार नहीं सकते। अटल जी ने शायद इसीलिए अमेरिका को भारत का स्वाभाविक सहयोगी कहा था।
जब सीरिया में दाइश को नेस्तनाबूत करने के लिए अमरीकी और रूसी सेनाओं ने कमर कसी तो देश के कई रक्षा विशेषज्ञ इस पर सहमत थे कि भारत को भी इस अभियान में हिस्सा लेना चाहिये। पूर्व में भी कई बार यह कहा गया कि सन् 1971 के बाद से भारत ने कोई पारम्परिक युद्ध नहीं लड़ा है जिससे सशस्त्र सेनाओं की धार कुंद हो रही है। कारगिल को भी तकनीकी रूप से पूर्ण युद्ध की बजाए लोकल कॉनफ्लिक्ट कहा जाता रहा है। ऐसे में लिमोआ समझौता भविष्य के सैन्य अभियानों की रूपरेखा प्रदान करता है। भारतीय सेना ने पहली बार प्रथम विश्व युद्ध में ब्रिटिश इंडियन आर्मी के रूप में भारतीय उपमहाद्वीप से बाहर कदम रखा था। दो साल पहले गल्लिपोली में उन हुतात्माओं को स्मरण किया गया था जो सौ साल पहले expeditionary force के रूप में लड़े थे। शांति प्रिय लोकतांत्रिक देश कभी एक दूसरे के खिलाफ सैन्य अभियान छेड़ेंगे इसकी सम्भावना नगण्य है किन्तु जिहादी ताकतों को रोकने के लिए अंतर्राष्ट्रीय घेराबंदी की जरूरत महसूस की जा रही है। भविष्य में भारत को भी विश्व भर में स्थित अमरीकी सैन्य ठिकानों से सहायता लेनी पड़ेगी।
हम पहले भी संयुक्त सैन्य अभ्यास करते रहे हैं और लॉजिस्टिक्स सपोर्ट लेते रहे हैं, लिमोआ समझौते से इसमें गति आएगी तथा परस्पर सैन्य सहयोग का वित्तीय लेखा जोखा एक ठोस प्रारूप में सामने आयेगा। दक्षिण चीन सागर में चीन की दादागिरी का प्रत्युत्तर इससे बेहतर तरीके से नहीं दिया जा सकता। सामरिक विशेषज्ञ सी राजमोहन अपनी पुस्तक Modi’s World में कहते हैं कि अमेरिका भारत की विदेश नीति का उत्तर प्रदेश है। यानि जिस तरह लोक सभा चुनावों में दिल्ली का रास्ता उत्तर प्रदेश से होकर जाता है उसी प्रकार वैश्विक राजनीति में अमेरिका के प्रभाव को हम नकार नहीं सकते। आदरणीय अटल जी ने शायद इसीलिए अमेरिका को भारत का स्वाभाविक सहयोगी कहा था। सन् 1998 से 2000 तक स्ट्रोब टैलबॅट और जसवंत सिंह सात देशों में चौदह बार मिले थे।
बहुत से विचारक इसी उधेड़बुन में रत हैं कि अमरीका भारत को नाटो जैसा सहयोग देगा या नहीं। जल्दबाजी में नफा नुकसान का आंकलन करने की बजाए यदि हम द्विपक्षीय सम्बन्धों का स्वरूप देखें तो पता चलेगा कि लिमोआ भविष्य में अमरीका से तकनीकी सहायता साझा करने पृष्ठभूमि भी तैयार करता है। हम अमेरिका से दो और फाउंडेशनल समझौते करने की ओर अग्रसर हैं: एक- कम्युनिकेशन एंड इनफार्मेशन सिक्यूरिटी मेमोरेंडम ऑफ़ एग्रीमेंट (CISMOA) और दूसरा- बेसिक एक्सचेंज एंड कॉ-ऑपरेशन एग्रीमेंट (BECA). सन् 1974 में विख्यात और बहुत हद तक कुख्यात हेनरी किसिंजर ने कहा था कि अमरीका विश्व को जो योगदान दे सकता है और जो दुनिया अपेक्षा भी करती है वह है अमरीका की तकनीकी क्षमता। इस सन्दर्भ में एश्टन कार्टर के दिमाग की उपज डीटीटीआई यानि डिफेन्स टेक्नोलॉजी एंड ट्रेड इनिशिएटिव कायदे से एक सन्धि न होने के बावजूद भारत के लिए विशेष रूप से लाभदायक है। लॉजिस्टिक्स एग्रीमेंट डीटीटीआई को सफलता की ओर अग्रसर करने की प्रतिबद्धता को दर्शाता है।
(ये लेखक के निजी विचार हैं।)