लेनिन रूस के लिए महत्वपूर्ण हो सकते हैं, भारत के हितार्थ लेनिन का कोई योगदान नहीं है। जबकि डॉ मुखर्जी एक ऊर्जावान चिंतक होने के अलावा प्रखर शिक्षाविद थे। महज 33 वर्ष की आयु में ही वे कोलकाता विश्वविद्यालय के कुलपति बन गए थे। जनसंघ की स्थापना से पहले भी वे लंबे समय तक बंगाल विधान परिषद में जनप्रतिनिधि के तौर पर रहे। इस देश की उन्नति और विकास क्रम में मुखर्जी का अभूतपूर्व योगदान रहा है। वे हर भारतीय के लिए सम्माननीय हैं। यदि उक्त अराजक तत्व, मुखर्जी की प्रतिमा पर स्याही फेंकने को लेनिन के मूर्तिभंजन का प्रतिशोध समझ रहे हैं, तो यह केवल उनके मानसिक दिवालियेपन का प्रतीक है। लेनिन और डॉ. मुखर्जी की कोई तुलना नहीं है।
रूसी क्रांति के सूत्रधार व्लादिमीर लेनिन इन दिनों अचानक सुखिर्यों में आ गए हैं। शताब्दी पूर्व रूस की अपनी खुनी क्रांति को लेकर ख्यात हुआ यह व्यक्ति अब दोबारा चर्चाओं में है। वर्तमान परिदृश्य को समझें उससे पूर्व थोड़ा पार्श्व समझ लेते हैं। हाल ही में संपन्न हुए त्रिपुरा विधानसभा चुनावों में भारतीय जनता पार्टी को विराट जीत प्राप्त हुई। अन्य राज्यों की तरह यहां भी बीजेपी ने प्रचंड विजयश्री हासिल की। जीत का जश्न अभी थमा नहीं था कि दो दिन में ही अगरतला के बेलोनिया कॉलेज चौराहे पर स्थापित लेनिन की प्रतिमा को कुछ अज्ञात तत्वों द्वारा तोड़ दिया गया। राजनीतिक विरोधियों के अनुसार भाजपा के कार्यकर्ताओं ने ही कथित रूप से यह काम किया।
लेनिन की जिस मूर्ति को हटाया गया वह करीब पांच साल पहले वहां लगाई गई थी। घटना के बाद से ही वामदलों में नाराज़गी है। वाम नेता डी राजा ने बयान देकर इस घटना को लोकतंत्र के विरुद्ध बताया। उन्होंने कहा कि यह सब जीत के बाद की जाने वाली हिंसा है जो कि विध्वंसक है। हालांकि भाजपा ने भी अपना पक्ष बकायदा रखते हुए कहा कि समाजवादी विचारधारा के प्रति यह जनता का आक्रोश है जो इस रूप में सामने आया है। राज्यसभा सदस्य सुब्रहमण्यम स्वामी ने कहा कि लेनिन एक विदेशी व्यक्ति थे, उनकी मूर्ति का हमारे देश में क्या औचित्य है। अब जो भी हो, लेकिन इसमें कोई दोराय नहीं कि ऐसी अराजकता के लिए देश में कोई स्थान नहीं होना चाहिए।
भाजपा नेता सुब्रमणियम स्वामी की यह दलील तर्कसंगत प्रतीत होती है कि लेनिन की प्रतिमा कम्युनिस्ट पार्टी के मुख्यालय के भीतर हो तो समझ में आता है लेकिन इसका बीच चौराहे पर क्या काम। इस देश के विकास, स्वतंत्रता संग्राम, प्रगति की यात्रा में आखिर लेनिन का ऐसा क्या योगदान है जो उनकी प्रतिमा को सार्वजनिक रूप से चौराहे पर स्थापित किया गया। निश्चित ही यह अप्रासंगिक बात है। यहां यह भी उल्लेख करना जरूरी होगा कि इसी त्रिपुरा में जब भाजपा के 11 कार्यकर्ताओं की हत्या कर दी गई थी, तब ये वामपंथी क्यों चुप थे जो अब एक निर्जीव मूर्ति के ढहाए जाने पर आग-बबूला हो रहे हैं।
निश्चित ही भाजपा की संस्कृति कभी भी हिंसा की नहीं रही है। लेकिन यदि एक मूर्तिभंजन को हिंसा कहकर पुकारा जा रहा है तो फिर ऐसे में वामदलों को अपनी जानकारी दुरुस्त कर लेनी चाहिये। मार्क्सवादियों के कारण ही त्रिपुरा में बीजेपी के 9 कार्यकर्ताओं ने जान से हाथ धोया था। दूसरी तरफ कर्नाटक में भाजपा के 24 कार्यकर्ता मारे गए। यह सब कांग्रेस के ही शासनकाल में हुआ। इसे लेकर कहीं भी विरोध के स्वर क्यों नहीं सुनाई दिए। जहां तक लेनिन का सवाल है, लेनिन स्वयं अपने आप में एक अराजक तत्व थे। वे सैकड़ों लोगों की मौत के जिम्मेदार थे।
खैर, यदि वामपंथियों के मन में इतनी ही संवेदना है और हिंसा के प्रति इतना ही विरोध है, तो कश्मीरी पंडितों पर हुए अत्याचार के समय यह संवेदना कहां गायब हो गई थी। वामपंथ की बुनियाद को लेनिन ने ही मजबूत किया था। वामपंथी विचारधारा और कार्यशैली सदा से अतार्किक और अराजक रही है। इस पूरे मामले में नाटकीय और अत्यंत हैरान कर देने वाला मोड़ तब आया जब कोलकाता में जनसंघ (वर्तमान भाजपा) के संस्थापक डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी की एक प्रतिमा को क्षति पहुँचाई गई। मूर्ति के चेहरे पर हथौड़े से प्रहार किए गए। स्याही भी फेंकी गई। यह वारदात जिन तत्वों ने की वे अपने हाथों में लेनिन के मूर्तिभंजन का विरोध करते हुए तख्तियां लिखकर घूम रहे थे। हालांकि इन छात्रों को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया है, लेकिन इस घटना ने कई सवालों को जन्म दे दिया।
सबसे अहम सवाल यह है कि लेनिन की मूर्ति हटाने का प्रतिशोध श्यामा प्रसाद मुखर्जी की प्रतिमा से अभद्रता करके लेने का क्या तुक है। लेनिन एक विदेशी व्यक्ति थे, जिनका इस देश पर ना कोई अधिकार है, ना ही इस देश की विकास-यात्रा में उनका कोई योगदान है। सवाल तो यह भी है कि किसी सड़क के चौराहे पर लेनिन की प्रतिमा इतने समय तक भी क्यों बनी रही। इस मूर्ति की स्थापना के समय ही इसका विरोध हो जाना चाहिये था। दूसरी चीज कि श्यामा प्रसाद मुखर्जी की प्रतिमा से बदसलूकी करके अराजक तत्वों को क्या हासिल हो गया होगा। मुखर्जी और लेनिन की तो तुलना का कोई प्रश्न ही नहीं बनता है। दोनों के बीच कभी तुलना की ही नहीं जा सकती।
लेनिन रूस के लिए महत्वपूर्ण हो सकते हैं, लेकिन भारत में उनका क्या काम! भारत के हितार्थ उनका कोई योगदान नहीं है। जबकि डॉ मुखर्जी एक ऊर्जावान चिंतक होने के अलावा प्रखर शिक्षाविद थे। महज 33 वर्ष की आयु में ही वे कोलकाता विश्वविद्यालय के कुलपति बन गए थे। जनसंघ की स्थापना से पहले भी वे लंबे समय तक बंगाल विधान परिषद में जनप्रतिनिधि के तौर पर रहे। इस देश की उन्नति और विकास क्रम में मुखर्जी का अभूतपूर्व योगदान रहा है। वे हर भारतीय के लिए सम्माननीय हैं। यदि उक्त अराजक तत्व, मुखर्जी की प्रतिमा पर स्याही फेंकने को लेनिन के मूर्तिभंजन का प्रतिशोध समझ रहे हैं, तो यह केवल उनके मानसिक दिवालियेपन का प्रतीक है। यह एक बचकानी और प्रतिक्रियावादी हरकत से बढ़कर और कुछ नहीं है।
दरअसल वामपंथी सोच का अर्थ ही प्रतिक्रियात्मक सोच है। इनके विरोध का कोई आधार नहीं होता। वे केवल विरोध करने के लिए विरोध करते हैं। असल में लेनिन की अनावश्यक मूर्ति को हटाने से वामपंथियों का खोखलापन एक बार फिर से उजागर हो गया है। अब वे बौखलाहट में कुछ भी करने और किसी भी स्तर पर उतरने को आमादा हो गए हैं। देश के टुकड़े करने और देश को बरबाद करने के नारे देने वाले इन अराजक तत्वों ने सोचा भी नहीं होगा कि त्रिपुरा इनकी पकड़ से छूट जाएगा। बरसों की वामपंथी गुलामी के बाद त्रिपुरा की जनता भी अब खुद को आज़ाद ही अनुभव कर रही है। त्रिपुरा की हार को वामदल पचा नहीं पा रहे हैं और विचलित होकर ऊटपटांग प्रतिक्रियाएं दे रहे हैं।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)