सिद्धारमैया को यह भी बताना चाहिए कि 2013 में जब केंद्र की मनमोहन सिंह सरकार ने इस प्रस्ताव को मानने से इनकार कर दिया था, तब आज पुनः उसे लाने की क्या आवश्यकता थी ? क्या यह माना जाए कि राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस ऐसे ही हथकंडों से चुनाव जीतने का प्रयास करेगी।
कर्नाटक में पांच वर्ष तक शासन करने के बाद भी कांग्रेस उपलब्धियों के नाम पर खाली हाथ है। यह विरोधियों का आरोप नहीं, उसकी खुद की कवायद से उजागर हुआ। अब वह धर्म विभाजन के आधार पर अपनी सत्ता बचाने का अंतिम प्रयास कर रही। मुख्यमंत्री सिद्धरमैया ने लिंगायत समुदाय को धार्मिक अल्पसंख्यक का दर्जा देने का प्रस्ताव पारित किया। कांग्रेस की त्रासदी समझी जा सकती है। देश के करीब सात प्रतिशत इलाके और चार राज्यों में उसकी सत्ता बची है। इसमें कर्नाटक भी है। इसके लिए वह विभाजनकारी चाल चलने में संकोच नहीं किया ।
वैसे, प्रायः यह देखा गया है कि चुनाव के समय इस प्रकार के कदम का कोई लाभ नहीं मिलता। ऐसा करने वाली सरकार आमजन को नासमझ मान कर चलती है, जबकि नासमझी वो खुद कर रही होती है। यदि लिंगायत के प्रति ऐसी हमदर्दी थी, तो इसके लिए चुनाव के ठीक पहले का समय क्यों चुना गया। मतलब साफ है, कांग्रेस की सरकार जानती है कि वह विभाजन के इस प्रस्ताव पर अमल करने की स्थिति में नहीं है।
ऐसे में, इसका दोहरा नुकसान होगा। एक सरकार की छवि पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। यह माना जायेगा कि उसके पास अपनी उपलब्धियां बताने के लिए कुछ नहीं है। दूसरा यह कि इतने हल्के ढंग से यह विषय उठाने से लिंगायत समुदाय भी खुश नहीं हो सकता। क्योकि यह विशुद्ध राजनीतिक चाल है।
इसके अलावा सिद्धारमैया को यह भी बताना चाहिए कि 2013 में जब केंद्र की मनमोहन सिंह सरकार ने इस प्रस्ताव को मानने से इनकार कर दिया था, तब आज पुनः उसे लाने की क्या आवश्यकता थी ? क्या यह माना जाए कि राहुल गांधी की कमान में कांग्रेस ऐसे ही हथकंडों से चुनाव जीतने का प्रयास करेगी। गुजरात में जनेऊधारी हिन्दू, पूर्वोत्तर में चर्च से नजदीकी और कर्नाटक में धर्म के आधार पर विभाजन। लेकिन इस संदर्भ में गुजरात और पूर्वोत्तर का परिणाम भी कांग्रेस को देख लेना चाहिए।
गुजरात, मेघालय, नागालैंड, त्रिपुरा आदि सभी जगह कांग्रेस को विफलता ही मिली। ऐसे में, कर्नाटक का अनुमान लगाया जा सकता है। यहां कांग्रेस ने लिंगायत समुदाय नहीं, बल्कि भाजपा नेता येदियुरप्पा को ध्यान में रखकर विभाजन किया है। कर्नाटक में सत्रह प्रतिशत लिंगायत हैं, येदियुरप्पा इस समुदाय के लोकप्रिय नेता हैं।
लेकिन, कांग्रेस की चाल को नाटक से ज्यादा अहमियत नहीं मिल रही है। क्योंकि, राज्य सरकार की भूमिका इस संबन्ध में केवल प्रस्ताव पारित करने तक सीमित है। इस के क्रियान्वयन हेतु केंद्र की मंजूरी के साथ ही संविधान में संशोधन भी आवश्यक होगा। अतः फिलहाल इसकी कोई संभवना नहीं है। लेकिन, कांग्रेस की कर्नाटक सरकार ने अपनी दूषित और विभाजनकारी मानसिकता का परिचय तो दे ही दिया है।
लिंगायत या वीरशैव का आदि स्रोत भारतीय दर्शन ही है, जिसमें भगवान शिव सर्वत्र पूज्य हैं। भारतीय राष्ट्र को इन धार्मिक तत्वों ने सदैव जोड़ कर रखा है। यहां तक कि विदेशी आक्रांता भारत को राजनीतिक रूप से गुलाम बनाने में अवश्य सफल रहे थे, लेकिन विविधता के बाबजूद भारत एक राष्ट्र बना रहा।
वास्तव में, कांग्रेस के मुख्यमंत्री सिद्धारमैया ने वह कार्य किया है, जिसका साहस विदेशी आक्रांता भी नहीं कर सके। केवल कुर्सी के लिए ऐसी कुटिलता का प्रदर्शन किया गया। अब बाजी कर्नाटक के आमजन के हाथ में है। खासतौर पर लिंगायत समुदाय के लोगों को आगे बढ़ कर इस विभाजनकारी कदम का मतदान के द्वारा जबाब देना होगा।
(लेखक हिन्दू पीजी कॉलेज में एसोसिएट प्रोफेसर हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)