लोक मंथन : औपनिवेशिक मानसिकता से मुक्ति का सार्थक प्रयास

लोकहित में चिंतन और मंथन भारत की परंपरा में है। भारत के इतिहास में ऐसे अनेक उदाहरण उपलब्ध हैं, जिनमें यह परंपरा दिखाई देती है। महाभारत के कुरुक्षेत्र में श्रीकृष्ण-अर्जुन संवाद से लेकर नैमिषारण्य में ज्ञान सत्र के लिए 88 हजार ऋषि-विद्वानों का एकत्र आना, लोक कल्याण के लिए ही था। भारत में चार स्थानों पर आयोजित होने वाले महाकुम्भ भी देश-काल-स्थिति के अनुरूप पुरानी रीति-नीति छोड़ने और नये नियम समाज तक पहुंचाने के माध्यम हैं। ज्ञान परंपरा से समृद्ध भारत और उसकी संतति का यह दुर्भाग्य रहा कि ज्ञात-अज्ञात कारणों से उसकी यह परंपरा कहीं पीछे छूट गई थी और यह सौभाग्य है कि अब फिर से वह परंपरा जीवित होती दिखाई दे रही है। भारत की चिंतन-मंथन की ऋषि परंपरा को आगे बढ़ाने का सौभाग्य भी विचारों की उर्वर भूमि मध्यप्रदेश को प्राप्त हुआ है। पिछले चार-पाँच वर्षों से ज्ञान सत्र आयोजित करने में मध्यप्रदेश की अग्रणी भूमिका रही है। अंतरराष्ट्रीय धर्म-धम्म सम्मेलन, मूल्य आधारित जीवन पर अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी, सिंहस्थ महाकुंभ की धरती पर विचार महाकुंभ का आयोजन और अब ‘राष्ट्र सर्वोपरि’ की भावना से ओतप्रोत विचारकों एवं कर्मशीलों का राष्ट्रीय विमर्श ‘लोकमंथन : देश-काल-स्थिति’ का आयोजन, यह सब आयोजन नये भारत के निर्माण की राह तय करने वाले हैं। बौद्ध धर्म के गुरु एवं तिब्बत सरकार के पूर्व प्रधानमंत्री सोमदोंग रिनपोछे भी मानते हैं कि लोकमंथन से भारतीय इतिहास में नये युग का सूत्रपात हुआ है। निश्चित ही लोकमंथन ‘औपनिवेशिक मानसिकता’ से मुक्ति और भारतीयता की अवधारणा को पुष्ट करने की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण प्रयास है।

दुनिया के अनेक विद्वान यह मानते हैं कि निकट भविष्य में भारत ही विश्व का नेतृत्व करेगा। लेकिन, यह सदी भारत की तब ही हो सकेगी, जब भारत उपनिवेशवाद से पूरी तरह मुक्त हो पाएगा। इसलिए औपनिवेशिक मानसिकता से मुक्ति के लिए इस समय लोकमंथन का आयोजन एक सार्थक प्रयास है। यह प्रयास तब ही रंग लाएगा जब लोकमंथन से निकले लोकामृत का प्रभाव आचार-व्यवहार में उतरता दिखाई देगा। इस बात की उम्मीद है कि लोकमंथन में शामिल हुए देश-दुनिया के तकरीबन 800 विद्वान, शोधार्थी, विचारक एवं कर्मशील अपने साथ लोकामृत को समाज के बीच लेकर जाएंगे।

एक और महत्त्वपूर्ण बात रेखांकित करने की आवश्यकता है कि प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान इस तरह के आयोजनों में सक्रियता से शामिल रहते हैं। प्राचीन काल में ज्ञान परंपरा के आयोजनों के लिए शासकों की भूमिका महत्त्वपूर्ण रहती थी। हमें ज्ञात है कि राजा जनक विद्वानों को आमंत्रित कर शास्त्रार्थ सभाओं का आयोजन करते थे। अवंतिका के राजा विक्रमादित्य विद्वानों का सत्संग करते थे। विक्रमादित्य ने अपने राज्य के संचालन के लिए विद्वानों की मंडली से मार्गदर्शन प्राप्त करते थे। ऋषि-मुनियों को बुलाकर सामयिक सामाजिक स्थितियों पर चिंतन करना और भविष्य की राह तय करना राजाओं का प्रमुख कार्य हुआ करता था। हालांकि, हम लोकतंत्र में मुख्यमंत्री-प्रधानमंत्री को राजा तो नहीं कह सकते। मध्यप्रदेश के शासक की भूमिका में शिवराज सिंह चौहान ने और सराहनीय कदम उठाया है। प्रदेश के सर्वोच्च सदन विधानसभा के परिसर को उन्होंने प्रबुद्ध वर्ग के लिए खोल दिया है। विधानसभा में राजनेताओं के साथ-साथ अब प्रबुद्ध वर्ग भी लोक कल्याण के विमर्श के लिए एकत्र आ रहे हैं, यह पहली बार है। मूल्य आधारित जीवन पर विमर्श करने के बाद अब ‘लोकामृत’ के लिए लोकमंथन भी विधानसभा परिसर में आयोजित किया गया।

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बहरहाल, लोकमंथन बाकी सब आयोजनों से अलग रहा। इस राष्ट्रीय आयोजन में विचारकों के साथ-साथ कर्मशील भी एकत्र हुए। सबने मिलकर यह विचार किया कि कला, साहित्य, फिल्म, नाटक, इतिहास, शिक्षा और अन्यान्य क्षेत्रों में व्याप्त औपनिवेशिक मानसिकता से मुक्ति की राह क्या हो सकती है ? यह मुक्ति इसलिए आवश्यक है, क्योंकि भारत के उन्नयन में औपनिवेशिक मानसिकता ही सबसे बड़ी बाधा है। भारत की समस्याओं का समाधान इसलिए नहीं निकल पा रहा है, क्योंकि हम प्रत्येक समस्या को पश्चिम के दृष्टिकोण से देखने के आदी हो चुके हैं, जबकि आवश्यकता है कि हम अपनी समस्या को अपनी दृष्टि से देखें। औपनिवेशिकता हम पर इस कदर हावी है कि अपनी भाषा, अपना ज्ञान, अपनी संस्कृति, अपनी परम्पराएं हमें पश्चिम के मुकाबले निर्बल जान पड़ती हैं। यह भ्रम दूर करना आवश्यक है। रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने इस खतरे को भांपकर 1930 में ही इस ओर इशारा किया था। उन्होंने लिखा था कि ब्रिटिश आक्रमण के साथ आई औपनिवेशिक दासता सबसे बड़ी चुनौती है। इसे देश से भगाना अधिक कठिन होगा, क्योंकि जब भी हम इसके विरुद्ध खड़े होंगे, यह रूप बदल लेगी। वहीं, 1931 में कृष्णचंद्र भट्टाचार्य भी लिखते हैं- ‘राजनीतिक दासता दिखाई पड़ती है, लेकिन सांस्कृतिक दासता दिखाई नहीं पड़ती और इसे हम बिना किसी वाद-विवाद के स्वीकार कर लेते हैं।’ इसलिए इस मानसिक उपनिवेशवाद से मुक्ति पाने के लिए विचार-मंथन जरूरी है। औपनिवेशिक मानसिकता से मुक्ति इसलिए भी आवश्यक है, क्योंकि भारत का स्वतंत्र चिंतन न केवल भारतीय समाज, बल्कि विश्व समाज के हित में है। आज विश्व समाज के सामने जितने भी प्रकार के प्रश्न खड़े हैं, उनका समाधान भारतीय चिंतन से ही संभव है। महामना पंडित मदनमोहन मालवीय कहते थे, ‘मुझे विश्व की चिंता है, इसलिए भारत की चिंता करता हूँ, क्योंकि विश्व के सभी प्रश्नों का उत्तर भारत से ही मिलेगा।‘ दुनिया के अनेक विद्वान यह मानते हैं कि निकट भविष्य में भारत ही विश्व का नेतृत्व करेगा। लेकिन, यह सदी भारत की तब ही हो सकेगी, जब भारत उपनिवेशवाद से पूरी तरह मुक्त हो पाएगा। इसलिए औपनिवेशिक मानसिकता से मुक्ति के लिए इस समय लोकमंथन का आयोजन एक सार्थक प्रयास है। यह प्रयास तब ही रंग लाएगा जब लोकमंथन से निकले लोकामृत का प्रभाव आचार-व्यवहार में उतरता दिखाई देगा। इस बात की उम्मीद है कि लोकमंथन में शामिल हुए देश-दुनिया के तकरीबन 800 विद्वान, शोधार्थी, विचारक एवं कर्मशील अपने साथ लोकामृत को समाज के बीच लेकर जाएंगे।

(लेखक माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)