मंथन भारत का आधारभूत तत्व है, इसलिए विमर्श के बिना भारत की कल्पना भी की जाएगी तो वह अधूरी प्रतीत होगी। यहां लोकतंत्र शासन व्यवस्था की सफलता का कारण भी यही है कि वेद, श्रुति, स्मृति, पुराण से लेकर संपूर्ण भारतीय वांग्मय, साहित्य संबंधित पुस्तकों और चहुंओर व्याप्त संस्कृति के विविध आयामों में लोक का सुख, लोक के दुख का नाश, सर्वे भवन्तु सुखिन: और जन हिताय-जन सुखाय की भावना ही सर्वत्र दृष्टिगत होती है।
इसे इस रूप में भी देखा जा सकता है कि सत्ता की प्राप्ति और स्वयं के सुख एवं भोग की कामना से दुनिया में आज तक अनेक युद्ध हुए हैं। राज्य विस्तार और अपने विचार को ही सत्य मानकर दूसरे पर उसे थोपने के लिए लगातार प्रयत्न किए जाते रहे और जो आज भी यथावत किए जा रहे हैं। परिणामस्वरूप जिसके कारण विश्व से युद्ध एवं विनाश की लीला समाप्त होने का नाम नहीं ले रही है। किंतु इस सब के बीच भारत ने कभी सुख की कामना से न कभी पहले किसी अन्य देश पर आक्रमण किया और न हीं 1947 बाद अस्तित्व में आए राज्यीय अवधारणाओं के नवीन भारत ने किसी देश पर अपना विचार थोपा। बल्कि जो संविधान अंगीकार किया, उसमें सभी के लिए समादर और पंथ निरपेक्ष की भावना समाहित की गई । यानि एक राज्य के रूप में भारत सभी विचारधाराओं का समान आदर करेगा, ऐसा नहीं होगा कि वह किसी विशेष का ही सहचर बन जाए। अपने आचरण से भारत ने यह बात सिद्ध भी की है। भारत बहुवचनीय अर्थों में अपने लोक से, जनता से, आवाम से, जन समूह से यही कामना करता है कि विविध पंथ, मत दर्शन अपने भेद नहीं वैशिष्ट्य हमारा, एक-एक को ह्दय लगाकर विराट शक्ति प्रगटाओ।
भोपाल में होने जा रहे लोकमंथन आयोजन से यह विश्वास स्वत: ही दृढ़ होता है कि इसमें शामिल हो रहे बुद्धिजीवियों, चिन्तकों, मनीषियों, अध्येताओं के परस्पर विचार-विमर्श से भारत के साथ विश्व को नई दृष्टि मिलेगी। यह तीन दिवसीय विमर्श गहरी वैचारिकता की वजह से हमारे राष्ट्र के उन्नयन में सहायक सिद्ध होगा। समता, संवेदनात्मकता, प्रगति, सामाजिक न्याय, सौहार्द्र और सद्भाव की आकांक्षा राष्ट्रीयता के मूलमंत्र है। इसी भावना के साथ सामाजिक बदलाव और समाज का विकास इस राष्ट्रीय विमर्श का जो मूल उद्देश्य है, वह साकार रूप में आकर पूर्णत: सिद्ध होगा।
वस्तुत: चेतना का विस्तार ही भारत का लक्ष्य है और इसके लिए भारत बार-बार विमर्श का आह्वाहन करता रहा है। इस बार यह विमर्श एक विशद् रूप में लोकमंथन के नाम से भोपाल में हो रहा है। इस परंपरा को आप ऋग्वेद काल से ही सतत देख सकते हैं। उस समय में हुए महर्षि पाणिनी, पतंजलि व महर्षि यास्क जैसे वेदों के विश्रुत विद्वानों ने अपनी ज्ञान साधना, प्रतिभा एवं पुरूषार्थ के बल पर अष्टाध्यायी, महाभाष्य एवं निरूक्त आदि अनेक महत्वपूर्ण ग्रन्थों का प्रणयन किया। इनमें निरुक्त वैदिक साहित्य के शब्द-व्युत्पत्ति (etymology) का विवेचन करता है। निरुक्त में शब्दों के अर्थ निकालने के लिये छोटे-छोटे सूत्र दिये हुए हैं। इसके साथ ही इसमें कठिन एवं कम प्रयुक्त वैदिक शब्दों का संकलन (glossary) भी है।
ऋग्वेदभाष्य भूमिका में सायण ने कहा है ‘अर्थावबोधे निरपेक्षतया पदजातं यत्रोक्तं तन्निरुक्तम्’ अर्थात् अर्थ की जानकारी की दृष्टि से स्वतंत्र रूप से जहाँ पदों का संग्रह किया जाता है, वही निरुक्त है। वैदिक शब्दों के दुरूह अर्थ को स्पष्ट करना ही निरुक्त का प्रयोजन है। पाणिनि शिक्षा में “निरुक्त श्रोत्रमुचयते” इस वाक्य से निरुक्त को वेद का कान बतलाया है। संस्कृत के प्राचीन व्याकरण (grammarian) यास्क को इसका जनक माना गया है। वे एक स्थान पर पत्नी की व्याख्या करते हुए लिखते हैं कि जो पति को पतन से बचाए वह पत्नि है। इसी प्रकार एक अन्य स्थान पर महर्षि यास्क तर्क के महत्व को शब्दों से प्रस्तुत करते हैं, जो विविध पक्षों का अवलम्बन करते हुए चेतना के विस्तार तक जाता है। यानी कि शब्दों के इस महत्व को भारतीय ऋषियों ने जानकर उसके निर्माण और उसके व्यवहार पर सदियों पूर्व ही जोर देना आरंभ कर दिया था। इस प्रकार शब्दवार संस्कृत और उससे निकली जितनी भी भारतीय भाषाएँ हैं, सभी को देखा जा सकता है, हर शब्द और वाक्य का अपना महत्व और गूढ़ अर्थ है। लोक को भी हम इस संदर्भ में देख सकते हैं। यह लोक देश की जनता का प्रतिनिधित्व करता है, यह देश की चेतना का आधार है, यही लोक शब्द वह शब्द है जो हमें स्वयं से दूसरे के साथ परस्पर एकाकार करने में हमारी मदद करता है। इसलिए लोक से बना लोकमंथन सही मायनों में ‘राष्ट्र सर्वोपरि’ (Nation First) की सघन भावना से ओतप्रोत विचारकों, अध्येताओं और शोधार्थियों के लिए आपसी संवाद का तानाबाना बुनने के लिए एक मंच के रूप में आज प्रकट हुआ है, जिसमें देश के वर्तमान मुद्दों पर विचार-विमर्श और मनन-चिन्तन किया जायेगा।
वेद का मंत्र भी यही कहता है कि सं गच्छध्वं सं वदध्वं, सं वो मनांसि जानताम्। देवा भागं यथा पूर्वे संजानाना उपासते – ऋग्. १०.१९१.२। अर्थात् (हे जना:) हे मनुष्यो, (सं गच्छध्वम्) मिलकर चलो। (सं वदध्वम्) मिलकर बोलो । (वः) तुम्हारे, (मनांसि) मन, (सं जानताम्) एक प्रकार के विचार करे । (यथा) जैसे, (पूर्वे) प्राचीन, (देवा:) देवो या विद्वानों ने, (संजानाना:) एकमत होकर, (भागम्) अपने – अपने भाग को, (उपासते) स्वीकार किया, इसी प्रकार तुम भी एकमत होकर अपना भाग स्वीकार करो ।
सीधे-सीधे इसे इस अर्थ से समझें कि (हे मनुष्यों) मिलकर चलो। मिलकर बोलो। तुम्हारे मन एक प्रकार के विचार करें। जिस प्रकार प्राचीन विद्वान एकमत होकर अपना-अपना भाग ग्रहण करते थे, (उसी प्रकार तुम भी एकमत होकर अपना भाग ग्रहण करो)। वास्तव में यही संगठन का और परस्पर संवाद का वह मंत्र है जिसके माध्यम से लोक अपने अस्तित्व को साक्षात प्रकट करता है। इसलिए भोपाल में होने जा रहे लोकमंथन आयोजन से यह विश्वास स्वत: ही दृढ़ होता है कि इसमें शामिल हो रहे बुद्धिजीवियों, चिन्तकों, मनीषियों, अध्येताओं के परस्पर विचार-विमर्श से भारत के साथ विश्व को नई दृष्टि मिलेगी। यह तीन दिवसीय विमर्श गहरी वैचारिकता की वजह से हमारे राष्ट्र के उन्नयन में सहायक सिद्ध होगा। समता, संवेदनात्मकता, प्रगति, सामाजिक न्याय, सौहार्द्र और सद्भाव की आकांक्षा राष्ट्रीयता के मूलमंत्र है। इसी भावना के साथ सामाजिक बदलाव और समाज का विकास इस राष्ट्रीय विमर्श का जो मूल उद्देश्य है, वह साकार रूप में आकर पूर्णत: सिद्ध होगा।
(लेखक ‘केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड’ की एडवाइजरी कमेटी के सदस्य एवं पत्रकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)