दुनिया की हर सभ्यता का विकास और उसका संचार मंथन से ही होता है। सभ्यताएं भी इसी से जीवित और गतिमान रहती है। मंथन भारतीय परंपरा का भी हिस्सा रहा है। पौराणिक कथाओं और उपनिषदों में ऐसे हजारों उदाहरण मिल जाएंगे। प्रायः मंथन से हर बार देश और समाज को नयी दिशा मिलती है और वह समाज अथवा देश दोगुने उत्साह से अपने कर्म पथ पर आगे बढ़ता है। भारतीय संस्कृति और सभ्यता की इसी परंपरा को ध्यान में रखकर विगत दिनों मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल में लोक मंथन का आयोजन किया गया था, जिसका विषय-वस्तु देश-काल, स्थिति और राष्ट्र सर्वोपरि की भावना थी। इस वैचारिक महाकुंभ में देश-विदेश से आए सैकड़ों विद्वान और शोधार्थी शामिल हुए। तीन दिन तक चले इस वैचारिक समागम में कई बातें सामने निकलकर आयीं।
लोक मंथन का सार भी यही रहा कि सनातन धर्म ही भारतीयता की प्राणवायु है, जिस दिन इसका लोप होगा उसी दिन भारतीयता का भी लोप हो जाएगा। मंथन में यह बात भी उभरकर सामने आयी कि हमारा इतिहास एक हजार साल का नहीं है, वह केवल लुटेरों का है, आक्रमणकारियों का है और आतातायियों का है। हमारा इतिहास तो उसी दिन रुक गया, जिस दिन नालंदा विश्वविद्यायल को जलाया गया। इसके बाद भी हमारे मनिषियों ने आम जनमानस के मन से राष्ट्रीय अस्मिता को बिखरने नहीं दिया, इसी दौरान भक्ति आंदोलन ने आमजन को अपनी लोकसंस्कृति और मूल से जोड़े रखा।
इस कार्यक्रम के प्रथम दिन देश को औपनिवेशिक मानसिकता से मुक्त होने और जनसामान्य को इस देश की गरिमा तथा आत्म सम्मान का बोध कराने पर विशेष जोर दिया गया। प्रथम दिन उद्दघाटन समारोह के मुख्य अतिथि रहे स्वामी अवधेशानंद गिरी महराज ने अपने विचार रखते हुए कहा, ‘‘आज लोगों में बेतहाशा उपभोग की प्रवृत्ति आ गयी है, उनकी रोग प्रतिरोधक क्षमता और साहनशीलता घट रही है। अंजान भय, आशंका ने घर कर लिया है। संग्रह की भावना आ गयी है। वे अधिकारों के प्रति सचेत और कर्तव्यों के प्रति लापरवाह हुए हैं। आज सभी लोगों को अच्छा दिखने की ललक है अच्छा बनने की नहीं’’ स्वामी अवधेशानंद गिरी की इन बातों में विकृत होती भारती संस्कृति और पथ भ्रमित होते समाज का दर्द स्पष्ट झलक रहा था। इस प्रवृत्ति को देखते हुए कह सकते हैं कि लोगों को भारतीय अस्मिता से जोड़ने के लिए उन्हें राष्ट्रवाद और संस्कृति से जोड़ना अत्यावश्यक है। कार्यक्रम के प्रथम दिन और समारोह के विशिष्ठ अतिथि रहे मध्य प्रदेश के राज्यपाल महामहिम ओमप्रकाश कोहली ने भी देश पर आसन्न संकटों पर चिंता व्यक्त करते हुए कहां कि उपनिवेशवादी मानसिकता आज बाजार, उत्पादों, जीवन-शैली और भूमंडलीकरण के रूप में उपस्थित है। इससे निपटने के लिए स्वदेशी आंदोलन की जरूरत है। उन्होने कहा कि यदि राष्ट्रीय अस्मिता मजबूत है, तो औपनिवेशवादी मानसिकता का कोई भी प्रकार या स्वरूप उसे नुकसान नहीं पहुचा सकता। अपनी चिंताओं को व्यक्त करते हुए उन्होने कहा कि राष्ट्रीय अस्मिता और सनातन धर्म शाश्वत होने के बाद भी धूमिल पड़ते जा रहे हैं, जिसे सही समय पर साफ करने की जरूरत है।
इस मंथन का सार भी यही रहा कि सनातन धर्म ही भारतीयता की प्राणवायु है, जिस दिन इसका लोप होगा उसी दिन भारतीयता का भी लोप हो जाएगा। मंथन में यह बात भी उभरकर सामने आयी कि हमारा इतिहास एक हजार साल का नहीं है, वह केवल लुटेरों का है, आक्रमणकारियों का है और आतातायियों का है। हमारा इतिहास तो उसी दिन रुक गया, जिस दिन नालंदा विश्वविद्यायल को जलाया गया। इसके बाद भी हमारे मनिषियों ने आम जनमानस के मन से राष्ट्रीय अस्मिता को बिखरने नहीं दिया, इसी दौरान भक्ति आंदोलन ने आमजन को अपनी लोकसंस्कृति और मूल से जोड़े रखा, लेकिन अंग्रेजों ने इस पर गहन अध्ययन किया कि भारतीयों को उनके सनातन संस्कृति से कैसे अलग किया जाय, भारतीयता को कैसे विकृति किया जाय और अंत में वो इसमें कामयाब भी हुए जिसका आंशिक परिणाम आज के दौर में दिख रहा है। आज जरूरत है कि राष्ट्रीय अस्मिता के संरक्षण के साथ ही इसे आम जनमानस अपने व्यवहार और आचार-विचार में अभिव्यक्त भी करे।
इस वैचारिक महाकुंभ का प्रथम दिन का सार यह रहा कि औपनिवेशक मानसिकता में जी रहे समाज को इससे बाहर निकालकर भारत के सांस्कृतिक मूल्यों से जोड़ने पर जोर दिया गया। और ऐसे कार्यक्रमों के आयोजनों पर जोर दिया गया, क्योंकि ऐसे प्रयासों से ही भारत की आत्मा पुनर्जागृत होगी तथा देश-काल और स्थिति भारतीय संस्कृति के अनुरूप तैयार होगी।
(लेखक डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी रिसर्च फाउंडेशन में रिसर्च एसोसिएट हैं।)