किसी भी नागरिक के लिए राष्ट्रीय प्रतीकों का सम्मान करना उसका पहला कर्तव्य होता है। अपने देश और संविधान के प्रति सम्मान का भाव रखने वाला नागरिक उनकी अवहेलना नहीं कर सकता। किंतु यह सब हो रहा है। देश में ऐसी स्थितियाँ बनाने के पीछे किसकी जिम्मेदारी माननी चाहिए। क्योंकि, प्रारंभ में वंदेमातरम् को लेकर कोई आपत्ति किसी को नहीं थी। स्वतंत्रता संग्राम में कंधे से कंधा मिलाकर अंग्रेजों से लड़ रहे मुसलमानों ने भी वंदेमातरम् का स्वर ऊंचा किया था। फिर क्या परिस्थितियाँ उत्पन्न हुईं कि मुस्लिम संप्रदाय वंदेमातरम् से दूर होता गया?
भारतीय संविधान में ‘वंदेमातरम्’ को राष्ट्रगान ‘जन-गण-मन’ के समकक्ष राष्ट्रगीत का सम्मान प्राप्त है। 24 जनवरी, 1950 को संविधान सभा ने ‘वन्देमातरम्’ गीत को देश का राष्ट्रगीत घोषित करने का निर्णय लिया था। यह अलग बात है कि यह निर्णय आसानी से नहीं हुआ था। संविधान सभा में जब बहुमत की इच्छा की अनदेखी कर वंदेमातरम् को राष्ट्रगान के दर्जे से दरकिनार किया गया, तब डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने वंदेमातरम् की महत्ता को ध्यान में रखते हुए ‘राष्ट्रगीत’ के रूप में इसकी घोषणा की।
बंगाल के कांतल पाडा गाँव में 7 नवंबर, 1976 को रचा गया यह गीत 1896 में कोलकाता में आयोजित कांग्रेस के अधिवेशन में पहली बार गाया गया। गीत के भाव ऐसे थे कि राष्ट्रऋषि बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय का लिखा ‘वंदेमातरम्’ स्वतंत्रता सेनानियों और क्रांतिवीरों का मंत्र बन गया था। 1905 में जब अंग्रेज बंगाल के विभाजन का षड्यंत्र रच रहे थे, तब वंदेमातरम् ही इस विभाजन और ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध बुलंद नारा बन गया था।
रविन्द्र नाथ ठाकुर ने स्वयं कई सभाओं में वंदेमातरम् गाकर ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध जन सामान्य को आंदोलित किया। वंदेमातरम् कोई सामान्य गीत नहीं है, यह आजादी का गीत है। यह क्रांति का नारा है। भारत के स्वतंत्रता संग्राम में इसका बहुत बड़ा योगदान है। किसी गीत का ऐसा गौरवपूर्ण इतिहास होने के बाद भी उसे यथोचित सम्मान नहीं देना, हमारी निष्ठाओं को उजागर करता है। यह हमारा दुर्भाग्य है कि राष्ट्रीय प्रश्नों पर भी देश के तथाकथित सेक्युलर दलों का क्षुद्र राजनीतिक स्वार्थ और संकीर्ण मानसिकता हावी हो जाती है। संविधान में राष्ट्रगीत का दर्जा प्राप्त होने के बाद भी वंदेमातरम् को हकीकत में समान दृष्टि से सम्मान नहीं दिया जाता।
वंदेमातरम् को सम्मान देने का जब भी प्रश्न उठाया जाता है, सेक्युलरों द्वारा राजनीति शुरू हो जाती है। भला है कि इस बार किसी संगठन या राजनीतिक पार्टी ने वंदेमातरम् के सम्मान के प्रश्न को नहीं उठाया है। एक मामले की सुनवाई करते हुए मद्रास उच्च न्यायालय ने तमिलनाडु के स्कूल, सरकार और निजी कार्यालयों में वंदेमातरम् गाना अनिवार्य कर दिया है। उच्च न्यायालय का यह निर्णय उपेक्षा के शिकार राष्ट्रगीत वंदेमातरम् का सम्मान बढ़ाएगा।
संविधान का सम्मान करने वालों को न्यायालय के इस निर्णय का खुलकर स्वागत करना चाहिए। क्योंकि, न्यायालय ने अपनी ओर से अलग से कुछ विशेष नहीं कहा है, बल्कि राष्ट्रगीत के लिए यह सम्मान संविधान में ही वर्णित है। जिन लोगों को वंदेमातरम् का विरोध करना है तो उन्हें यह भी स्वीकार कर लेना चाहिए कि भारत के संविधान में उनकी निष्ठाएं नहीं है।
बहरहाल, मद्रास उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति एमवी मुरलीधरन ने अपने निर्णय में कहा है कि विद्यालयों में सप्ताह में कम से कम दो बार और कार्यालयों में महीने में कम से कम एक बार राष्ट्रगीत गाया जाना चाहिए। न्यायालय ने अपने निर्णय को विवाद से बचाने के लिए कह दिया है कि ‘यदि किसी व्यक्ति या संस्थान को राष्ट्रगीत गाने में किसी प्रकार की समस्या है, तो उसे जबरन गाने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता है। बशर्ते उनके पास राष्ट्रगीत न गाने के लिए पुख्ता वजह हो।’ न्यायालय की इस टिप्पणी के बाद प्रश्न उत्पन्न होता है कि आखिर किसे वंदेमातरम् के गायन से आपत्ति हो सकती है? ऐसा कौन-सा कारण है कि राष्ट्रगीत के गायन में समस्या उत्पन्न होती है? इस तरह का प्रश्न ही अपने आप में राष्ट्रीय प्रतीक का अपमान करने वाला है।
किसी भी नागरिक के लिए राष्ट्रीय प्रतीकों का सम्मान करना उसका पहला कर्तव्य होता है। अपने देश और संविधान के प्रति सम्मान का भाव रखने वाला नागरिक उनकी अवहेलना नहीं कर सकता। किंतु यह सब हो रहा है। देश में ऐसी स्थितियाँ बनाने के पीछे किसकी जिम्मेदारी माननी चाहिए। क्योंकि, प्रारंभ में वंदेमातरम् को लेकर कोई आपत्ति किसी को नहीं थी। स्वतंत्रता संग्राम में कंधे से कंधा मिलाकर अंग्रेजों से लड़ रहे मुसलमानों ने भी वंदेमातरम् का स्वर ऊंचा किया था। फिर क्या परिस्थितियाँ उत्पन्न हुईं कि मुस्लिम संप्रदाय वंदेमातरम् से दूर होता गया?
वर्ष 1923 में काकीनाड कांग्रेस अधिवेशन में मौलाना अहमद अली के विरोध को महत्त्व नहीं दिया गया होता तो आज मुस्लिम समाज राष्ट्रगान की तरह राष्ट्रगीत को भी बिना किसी झिझक के सम्मान दे रहा होता। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता मौलाना अहमद अली ने अपनी संकीर्ण और कठमुल्ली सोच का प्रदर्शन करते हुए हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत के हिमालय पं. विष्णु दिगम्बर पलुस्कर को वंदेमातरम् गाने के बीच में टोका। किंतु, पलुस्कर ने वंदेमातरम् का सम्मान रखते हुए अपना गायन जारी रखा और पूरा गीत गाने के बाद ही रुके। 1896 में कोलकाता में आयोजित कांग्रेस के अधिवेशन के बाद से प्रत्येक अधिवेशन में वंदेमातरम् गाने की परंपरा बन गई थी, जो मौलाना अहमद की आपत्ति के बाद टूट गई। इसके बाद से ही वंदेमातरम् को लेकर मुस्लिम संप्रदाय में दुविधा खड़ी हो गई।
एक जमाने में वंदेमातरम् का आह्वान करने वाले लोग राष्ट्रभक्त कहलाते थे, लेकिन आज सेक्युलर समूहों ने ऐसी स्थितियां पैदा कर दी हैं कि वंदेमातरम् के लिए आग्रह करने वाला प्रत्येक व्यक्ति या संस्था सांप्रदायिक हो जा रही है। आखिर वंदेमातरम् का सांप्रदायिकता से क्या संबंध है? सेक्युलरों ने वोटबैंक की राजनीति को साधने के लिए देश के ओजस्वी स्वर ‘वंदेमातरम्’ को सांप्रदायिक और विवादित बना दिया। इसी कारण न्यायालय को उक्त टिप्पणी करनी पड़ी। इसके साथ ही उसे कहना पड़ा कि युवा ही इस देश की भविष्य हैं और कोर्ट को विश्वास है कि इस आदेश को सही भाव और उत्साह के साथ ही लिया जाए।
वंदेमातरम् के गायन की अनिवार्यता का निर्णय सुनाते समय मद्रास उच्च न्यायालय ने यह भी कहा कि अगर लोगों को यह लगता है कि राष्ट्रगीत को संस्कृत या बंगाली में गाया जाना कठिन है तो वे इसका तमिल में अनुवाद कर सकते है। यहाँ भी न्यायालय ने भाषायी विवाद से बचने के लिए यह गैर-जरूरी टिप्पणी की है। राष्ट्रगीत का एक ही स्वरूप और एक ही भाषा रहे तो ज्यादा अच्छा रहेगा। यह बात सही है कि हमें अपनी मातृभाषा में गीत गाने में अधिक सहजता होती है। इसी कारण प्रारंभ में वंदेमातरम् के अन्य भाषाओं में अनुवाद भी हुए।
अरबिंदो घोष ने इस गीत का अनुवाद अंग्रेजी में किया और आरिफ मोहम्मद खान ने उर्दू में अनुवाद किया। लेकिन, यह सब अनुवाद वंदेमातरम् के राष्ट्रगीत बनने से पूर्व हुए हैं। राष्ट्रगीत के रूप में संस्कृत में लिखे वंदेमातरम् को ही मान्यता है। वंदेमातरम् इतना लोकप्रिय गीत है कि इसे विभिन्न लय में गाया गया है। इसलिए तमिल में या अन्य किसी भारतीय भाषा में इसका अनुवाद होना अच्छा ही है। बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय ने वंदेमातरम् के प्रथम दो पद संस्कृत में और शेष पद बांग्ला भाषा में लिखे थे। मद्रास उच्च न्यायालय जिस मामले (के. वीरामनी प्रकरण) की सुनवाई कर रहा था, उसका संबंध भी इसी बात से है कि राष्ट्रगीत प्रारंभ में किस भाषा में लिखा गया था।
बहरहाल, मद्रास उच्च न्यायालय से आया निर्णय शुभ है, उसका स्वागत किया जाना चाहिए। वंदेमातरम् का संबंध किसी धर्म या संप्रदाय से नहीं है। हमें यह भ्रम भी कतई नहीं रखना चाहिए कि यह किसी देवी-देवता की वंदना है। वंदेमातरम् शुद्धतौर पर अपने देश भारत के प्रति अपनी भावनाओं का प्रकटीकरण है। इस संबंध में महात्मा गाँधी के विचार उल्लेखनीय हैं। उन्होंने लिखा है- ‘मुझे यह पवित्र, भक्तिपरक और भावनात्मक गीत लगता है। कवि ने हमारी मातृभूमि के लिए जो सार्थक विशेषण प्रयुक्त किए हैं, वे एकदम अनुकूल हैं, इनका कोई सानी नहीं है।’
(लेखक माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में सहायक प्राध्यापक हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)