विपक्ष की एकता का आधार ही नकारात्मक है। ये केवल भाजपा या नरेंद्र मोदी को हटाने के नाम पर चुनाव लड़ना चाहते हैं। इनके पास जनकल्याण के लिए कोई वैकल्पिक एजेंडा नहीं है। इन्होंने आज तक किसी सकारात्मक बिंदु पर चर्चा ही नहीं की है। यहाँ तक कि एक दूसरे के प्रति इनमें सम्मान या विश्वास की भावना तक नहीं है। ये अभी एकदूसरे के प्रति इतने अविश्वास और वैमनस्य से भरे हुए हैं, ऐसे में अगर इन्हें सत्ता मिल जाती है, तो ये आपसी लड़ाई में देश का क्या हश्र करेंगे, इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती।
गत मई में हुआ कुमारस्वामी का शपथ ग्रहण समारोह विपक्ष के लिए किसी उत्सव से कम नहीं था। विपक्ष का शायद ही कोई बड़ा नेता ऐसा रहा हो, जिसने वहां अपनी उपस्थिति दर्ज नहीं कराई हो। जिनको कर्नाटक में कोई ठीक से जानता पहचानता नहीं था, वह भी विजेता भाव के प्रदर्शन में पीछे नहीं थे।
ऐसा लग रहा था जैसे इस शपथ-ग्रहण के मंचे पर विपक्ष का महागठबन्धन आकार ले चुका है। लेकिन धीरे धीरे यह तस्वीर धुंधली पड़ने लगी। सबसे पहले वही गठबंधन सरकार पर फफक-फफक कर रोये थे, जिनके शपथ ग्रहण के उपलक्ष्य में यह सब उत्सव हुआ था। कुमारस्वामी का कहना था कि कांग्रेस के दबाव से वह आजिज हुए जा रहे हैं।
कुमारस्वामी के रोने के बाद से विपक्षी महागठबन्धन पर जैसे ग्रहण लग गया था। ममता बनर्जी, शरद पवार, नवीन पटनायक, चंद्रशेखर राव ने साफ कर दिया कि प्रधानमंत्री का नाम आमचुनाव के बाद तय होगा। इसका साफ मतलब था कि इनको कांग्रेस के नेतृत्व में चुनाव लड़ना मंजूर नहीं है। रही सही कसर बसपा प्रमुख मायावती ने पूरी कर दी।
बैंगलोर के विपक्षी उत्सव के बाद माना जा रहा था कि मायावती और सोनिया गांधी की मित्रता मुकम्मल हो गई है। इस गठबन्धन का पहला प्रयोग मध्यप्रदेश, छतीसगढ़ और राजस्थान में होने का आकलन था। कांग्रेस इसे लेकर खुश थी। उसे लगा कि बैंगलोर की गर्मजोशी कामयाब साबित होगी। लेकिन मायावती के झटके ने बैंगलोर की बातों को व्यर्थ बना दिया। बैंगलोर की विपक्षी बयार बहुत जल्दी बेअसर होने लगी है।
मायावती ने कांग्रेस के साथ गठबन्धन पर फिलहाल विराम लगा दिया है। ऐसा नहीं कि वह केवल इससे अलग होने की बयानबाजी कर रही हैं, बल्कि वह कांग्रेस को दरकिनार करने की लाइन पर चलने का संकेत भी दे रही हैं। छतीसगढ़ में उन्होंने कांग्रेस को पुछा तक नहीं और अजित जोगी की पार्टी से समझौता कर लिया। कांग्रेस देखती ही रह गई। मायावती ने कहा कि कांग्रेस बसपा को खत्म करने की साजिश रच रही है। इसलिए मध्यप्रदेश और राजस्थान में बसपा अकेले चुनाव में उतरेगी।
बसपा के इस फैसले से महागठबन्धन की अटकलों पर उल्टा असर हुआ है। इसके लिए केवल मायावती को ही दोष नहीं दिया जा सकता। सभी नेता इसके लिए जिम्मेदार है। सभी अपने-अपने हित में लगे हैं। एकदूसरे के प्रति अविश्वास में कोई कमी नहीं आई है। महागठबंधन की विपक्षी नेता केवल चर्चा ही करते रहे। इसे लेकर कोई भी गंभीर नहीं था। न तो कोई सार्थक एजेंडा सामने रखा गया है और न ही यह तय है कि गठबंधन का नेता कौन होगा।
दिग्विजय सिंह ने जाने किस आधार पर कहा था कि मायावती पर मोदी सरकार का बहुत दबाव है। बताया जाता है कि मायावती पर गठबंधन हेतु मनोवैज्ञानिक दबाव बनाने के लिए कांग्रेस द्वारा दिग्विजय से ऐसा बयान दिलवाया गया। रणनीति यह थी कि बसपा पर दबाव बना तो ठीक, वर्ना इसे दिविजय का निजी बयान बता कर मसले को संभाला जाएगा। लेकिन मायावती तो कांग्रेस से दूरी रखने का निर्णय पहले ही कर चुकी थीं। उन्होंने कहा कि कांग्रेस का अहंकार सिर चढ़कर बोल रहा है। उस ने हमेशा दगा कर पीठ में छुरा घोंपा है। वह हमारी पार्टी को समाप्त करने का षड्यंत्र कर रही है। मायावती ने राजस्थान और मध्यप्रदेश में गठबंधन न करने की घोषणा कर दी।
जाहिर है कि विपक्ष की एकता का आधार ही नकारात्मक है। ये केवल भाजपा या नरेंद्र मोदी को हटाने के नाम पर चुनाव लड़ना चाहते हैं। इनके पास जनकल्याण के लिए कोई वैकल्पिक एजेंडा नहीं है। इन्होंने आज तक किसी सकारात्मक बिंदु पर चर्चा ही नहीं की है। यहाँ तक कि एक दूसरे के प्रति इनमें सम्मान या विश्वास की भावना तक नहीं है। ये अभी एकदूसरे के प्रति इतने अविश्वास और वैमनस्य से भरे हुए हैं, ऐसे में अगर इन्हें सत्ता मिल जाती है, तो ये आपसी लड़ाई में देश का क्या हश्र करेंगे, इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती।
जिस प्रान्त में जिस पार्टी का प्रभाव है, वह किसी अन्य को तरजीह ही नहीं देना चाहती। पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी कांग्रेस और वामपंथियों को उभरने का मौका नहीं देना चाहतीं। उत्तर प्रदेश में सपा और बसपा के बीच दशकों की दुश्मनी के घाव मिटना आसान नहीं है।
प्रायः सभी प्रदेशों में यही स्थिति है। विपक्षी पार्टियां एक दूसरे को कमजोर करके अपना वर्चस्व बढ़ाने का प्रयास करना चाहती हैं, जिससे उन्हें सौदेबाजी में आसानी हो। इस मसले पर कांग्रेस की भूमिका से भी अन्य पार्टियां निराश हैं। उन्हें लग रहा है कि कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के तौर-तरीके और बयान सहयोगियों की भी छवि बिगाड़ देंगे। इसलिए उनसे दूरी बनाकर ही रहना उचित होगा।
इसी प्रकार मायावती का सपा पर विश्वास न करना भी स्वाभाविक है। सपा के साथ एका रखने का जो उनका इतिहास रहा है, उसे वे कभी नहीं भूल सकतीं। इसीलिए कुछ समय पहले उन्होंने सपा को सन्देश देते हुए कहा था कि वह किसी की बुआ नहीं हैं, सम्मानजनक सीटें मिलने पर ही समझौता करेंगी। इससे भी जाहिर हो गया है कि इन दलों के आपसी अविश्वास के चलते महागठबन्धन की खिचड़ी पकना आसान नहीं है।
(लेखक हिन्दू पीजी कॉलेज में एसोसिएट प्रोफेसर हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)