असहयोग, अहिंसा तथा शांतिपूर्ण प्रतिकार को अपने शस्त्र के रूप में अंग्रेजों के खिलाफ़ उपयोग करने वाले महात्मा गांधी स्वामीजी के साहित्य से प्रेरणा लेते थे। वह स्वामीजी के बारे में लिखते हैं कि, ”स्वामी विवेकानंद के कार्यों को पढ़ने के बाद, देश के लिए उनकी देशभक्ति में हजार गुणा वृद्धि हुई थी।” कलेक्टेड वर्क्स ऑफ़ महात्मा गाँधी में वह अनेक बार स्वामीजी की चर्चा करते हैं।
स्वामी विवेकानंद को अनेकों लोग एक आध्यात्मिक नेता के तौर पर देखते है। लेकिन उनका भारतीय स्वाधीनता आंदोलन में योगदान अभी भी आम जनमानस के से अनभिज्ञ है। 12 जनवरी 1863 को बंगाल के कलकत्ता में माता भुवनेश्वरी देवी और पिता विश्वनाथ दत्त के घर जन्में नरेंद्रनाथ दत्त जो बाद में स्वामी विवेकानंद के नाम से जाने गए मात्र 39 वर्ष 5 महीने और 24 दिन के जीवन में अगर उन्हीं के शब्दों में कहूँ तो 1500 वर्ष का कार्य कर गए।
स्वामी विवेकानंद 25 साल की उम्र में ही परिव्राजक सन्यासी के रूप में भारत भ्रमण पर निकल गए थे। भारत उस समय पराधीन था। हम पर अंग्रेज़ो का शासन था। अपने लगभग साढ़े चार वर्ष के भ्रमण के दौरान उन्होंने देखा की वर्षों की गुलामी के कारण हर एक भारतीय के अंदर आत्मविश्वास , आत्म–सम्मान ,आत्म–गौरव और स्वावलम्बन पूर्णतः समाप्त हो गया है।
स्वामीजी को अपना कार्य स्पष्ट हो गया था वो राजनीति से दूर रहकर हर भारतवासी में आत्मविश्वास जगाने का कार्य करने वाले थे। स्वामीजी ने यह आत्मविश्वास जगाने का, चरित्र–निर्माण का और मनुष्य–निर्माण का कार्य पूरे जीवन भर अनेक कष्ट, कठिनाइयों को सहते हुए भी किया क्योंकि इसके बिना आत्मविश्वास जागृत नहीं होता और बिना आत्मविश्वास के आत्मनिर्भर बनना संभव नहीं है जो स्वाधीनता के लिए अत्यावश्यक है।
असहयोग, अहिंसा तथा शांतिपूर्ण प्रतिकार को अपने शस्त्र के रूप में अंग्रेजों के खिलाफ़ उपयोग करने वाले महात्मा गांधी स्वामीजी के साहित्य से प्रेरणा लेते थे। वह स्वामीजी के बारे में लिखते हैं कि, ”स्वामी विवेकानंद के कार्यों को पढ़ने के बाद, देश के लिए उनकी देशभक्ति में हजार गुणा वृद्धि हुई थी।” कलेक्टेड वर्क्स ऑफ़ महात्मा गाँधी में वह अनेक बार स्वामीजी की चर्चा करते हैं।
महात्मा खुद स्वामीजी से मिलना चाहते थे लेकिन मनोकामना पूरी नहीं हुई
महात्मा गांधी अपनी आत्मकथा ‘सत्य के साथ मेरे प्रयोग’ में लिखते हैं कि अपने कलकत्ता प्रवास के दौरान वो एक दिन स्वामी विवेकानंद से मिलने के लिए बहुत उत्साह के साथ पैदल ही बेलुड़ मठ की ओर चल पड़े थे, लेकिन उनको यह जानकर बहुत निराशा हुई कि स्वामीजी अस्वस्थ हैं और उनकी मुलाकत स्वामीजी से नहीं हो पाई।
हालांकि स्वामीजी की शिष्या भगिनी निवेदिता से गांधी जी दो बार मिले थे और विभिन्न मुद्दों पर चर्चा भी की थी जो अधिक सफल नहीं रही, लेकिन गाँधी जी ने भगिनी निवेदिता के हिन्दू धर्म के प्रति अत्यंत स्नेह की प्रशंसा की थी और उनके द्वारा रचित पुस्तकों का अध्ययन भी किया था।
स्वामीजी के निधन के काफी बाद एक बार पुनः 30 जनवरी 1921 को स्वामीजी की जयंती कार्यक्रम में भाग लेते हुए गांधी जी ने बेलुड़मठ में भाषण देते हुए कहा था कि, “उनके हृदय में दिवंगत स्वामी विवेकानंद के लिए बहुत सम्मान है। उन्होंने उनकी कई पुस्तकें पढ़ी हैं और कई मामलों में उनके आदर्श इस महान विभूति के आदर्शों के समान ही हैं। यदि विवेकानंद आज जीवित होते तो राष्ट्र जागरण में बहुत सहायता मिलती। किंतु उनकी आत्मा हमारे बीच है और उन्हें स्वराज स्थापना के लिए हरसंभव प्रयास करना चाहिए”। इन शब्दों से स्पष्ट होता है कि गाँधी जी स्वामीजी से कितने प्रभावित थे।
स्वामीजी द्वारा गरीब , वंचित , शोषितों के लिए किए गए काम और उनके प्रति आत्मीय विचारों को गांधीजी अपने केरल प्रान्त के शहर कोल्लम (Kollam), जिसे पहले क्विलोन (Quilon) कहा जाता था, में 12 मार्च 1925 को दिए अपने एक भाषण में याद करते हैं। वह कहते हैं कि जैसी सहानुभूति स्वामीजी को अपने ही समृद्ध भाइयों के हाथों “दबाए गए” दरिद्रों के साथ थी उन्हें भी वैसी ही सहानुभूति है।
स्वामी विवेकानंद का प्रभाव अनेक ऐसे नेताओं पर रहा जिनकी स्वाधीनता आंदोलन में सक्रिय सहभागिता रही। भले वह उनके जीवन काल के दौरान हो या बाद में।
(लेखक विवेकानंद केंद्र के उत्तर प्रान्त के युवा प्रमुख हैं और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में शोधकर्ता हैं। यह उनके निजी विचार हैं।)