आज बंगाल तथा बंगाल की मुख्यमंत्री दोनों चर्चा के केंद्र में हैं। बंगाल रक्तरंजित राजनीति, साम्प्रदायिक हिंसा तथा शाही इमाम द्वारा जारी फतवे के लिए चर्चा में है, तो पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी अपने मोदी विरोध के हठ तथा भ्रष्ट नेताओं के बचाव के चलते लगातार सुर्ख़ियों में हैं। दरअसल, नोटबंदी का फैसला जैसे ही मोदी सरकार ने लिया तभी से ममता, मोदी सरकार पर पूरी तरह से बौखलाई हुई हैं। ऐसा कोई दिन खाली नहीं जाता जब ममता मोदी पर व्यर्थ में निशाना न साधें।
खैर, अभी नोटबंदी के सदमे से ममता उभर पातीं, इससे पहले ही सीबीआई ने रोजवैली चिटफंड के करोड़ों के घोटाले में तृणमूल के दो सांसदों को गिरफ्तार कर लिया। जैसे ही, ये गिरफ्तारी हुई ममता पूरी तरह तिलमिला उठीं तथा जरूरत से ज्यादा उग्र प्रतिक्रिया देते हुए इस गिरफ्तारी को राजनीतिक बदला करार देने में बिलकुल देर नहीं कीं। हालांकि ममता शायद यह भूल गयीं कि यह पूरी जाँच सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर हो रही है, ऐसे में इसमें केंद्र सरकार की भूमिका बताना सिवाय अंधविरोधी रवैये के और कुछ नहीं कहा जा सकता। बावजूद इसके सांसदों की गिरफ्तारी के बाद तृणमूल के नेताओं ने जिस तरह से उपद्रव मचा रखा है, वह अपने आप में शर्मनाक कृत्य है। गिरफ्तारी के विरोध में यातायात को बाधित करना, ट्रेनों को रोक देना, भाजपा कार्यालय के सामने हिंसा फैलाना, आदि उपद्रव किस हद तक जायज हैं ? उससे भी बड़ी बात यह है कि यह सब कुछ ममता बनर्जी की बंगाल पुलिस के सामने होता रहा और वो मूकदर्शक बने तमाशा देखती रही।
पिछले साल मालदा की घटना के बाद राज्य की अन्य अनेक जगहों पर छोटी-बड़ी साम्प्रदायिक हिंसा होती रही है। हद तो तब हो गई, जब पिछले महीनें ममता नोटबंदी के विरोध के लिए दिल्ली में डेरा जमाई हुईं थीं, उसवक्त बंगाल का धूलागढ़ मुस्लिम समुदाय द्वारा हिन्दुओं पर की जा रही हिंसा की चपेट में था और ममता का शासन तंत्र इस हिंसा को रोकने में नाकाम साबित हुआ था। इस हिंसा पर भी ममता बनर्जी अपने मुस्लिम तुष्टिकरण के एजेंडे के कारण चुप्पी की चादर ओढ़े सोई हुई हैं।
इन्हीं सब के बीच टीपू सुल्तान मस्जिद के शाही इमाम बरकती ने देश के प्रधानमंत्री के खिलाफ़ बेहद आपत्तिजनक फतवा जारी कर दिया। इस असंवैधानिक, अक्षम्य, गैर क़ानूनी फतवे के जारी होने बाद भी बंगाल का नकारा पुलिस-प्रशासन उस इमाम को अभी तक गिरफ्तार करने का साहस नहीं जुटा पा रहा है। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या उस मौलवी को राजनीतिक संरक्षण प्राप्त है ? अथवा उसे इसलिए नहीं गिरफ्तार किया जा रहा है कि वो ममता के वोटबैंक का सुगम जरिया है ? ऐसा इसलिए है, क्योंकि यह शाही ईमाम पहले भी कई आपत्तिजनक फतवे के चलते चर्चा में रहें हैं और ममता के काफी करीबी माने जाते हैं।
नोटबंदी के बाद से ही केंद्र और बंगाल सरकार में तल्खी हर रोज बढ़ती जा रही है। ममता के इस व्यर्थ के उतावलेपन को समझना मुश्किल है। एक तरफ जहाँ बंगाल में हिंसा बढ़ती जा रही है, तालिबानी सोच पाँव पसार रही है, कानून व्यवस्था ताक पर है, वहीँ ममता बंगाल पर ध्यान देने की बजाय केंद्र सरकार पर बेजा आरोप लगाने में लगी हुई हैं।
जिस तरह नोटबंदी के बाद से ममता घबराई हुई हैं, मोदी सरकार पर व्यर्थ का गर्जन–तर्जन कर रहीं है, उससे यही लगता है कि ममता ने एकसूत्रीय अभियान के तहत मोदी की आलोचना कर के राष्ट्रीय राजनीति में खुद को स्थापित करने का पैंतरा चला है। दरअसल इन दिनों कांग्रेस की हालत पस्त है और वामपंथी दलों के पास कहने भर को भी कुछ नहीं है। इसलिए ममता समाजवादी गुट के साथ खुद को खड़ा कर मोदी विरोध का अगुआ बनने को बेताब हैं, लेकिन इस खोखले और बेजा विरोध में अतिरिक्त परिश्रम खपा रहीं बंगाल की मुख्यमंत्री ने जो रास्ता अख्तियार किया है, उसमें उन्हें किसी अन्य दल का न तो समर्थन मिल रहा है और न ही कोई दल उनको अगुआ मानने को तैयार ही है। ऐसे में, ममता का यह पैंतरा तो सफल होने से रहा। दरअसल अभी हाल ही में ममता बनर्जी ने जो राजनीतिक बयानबाजी मोदी के खिलाफ की है तथा मोदी हटाओ का जो नारा बुलंद किया है, उसमें किसी भी दल ने दिलचस्पी नहीं दिखाई है। कहना न होगा कि सियासत में नई राह व कद बढ़ाने की हड़बड़ी में मशगुल ममता शायद यह भूल रहीं हैं कि उनका दामन इतना पाक–साफ नहीं है कि वह राष्ट्रीय पटल पर अपनी राजनीति को चमका सकें।
गौरतलब है कि वर्तमान में देश में एक मजबूत व स्थायी सरकार है। मोदी सरकार के पास पूर्ण बहुमत है। ऐसे में सभी राजनीतिक दल एक साथ भी आ जाएँ तो सरकार को टस से मस नहीं कर सकते। दूसरी बात क्या ममता यह करेंगी बीजेपी किसे प्रधानमंत्री बनाएं ? या फिर एक मुख्यमंत्री अपनी पसंद का प्रधानमंत्री तय करेगा ? ममता को यह प्रस्ताव पेश करने से पहले यह स्पष्ट करना चाहिए कि देश पर कौन-सा ऐसा संकट आ पड़ा है कि राष्ट्रपति दखल दें ? शायद यही सब कारण है कि ममता के इस प्रस्ताव को भी अन्य बीजेपी विरोधी दलों ने तरजीह नहीं दी।
किसी भी मुख्यमंत्री का यह दायित्व होता है कि वह अपने राज्य मे शासन व्यवस्था को मजबूत रखे, लेकिन आज बंगाल की हालत बदतर होती जा रही है। प्रायः राज्य में साम्प्रदायिक हिंसा, भ्रष्टाचार, दमन, शोषण आदि की खबरें सामने आ रहीं हैं। बंगाल की समूची शासन व्यवस्था ममता की तानाशाही रवैये के चलते ताक पर है। कहना गलत नहीं होगा कि पश्चिम बंगाल की सियासत में वामपंथियों के जाने के बाद निज़ाम तो बदला है, लेकिन उसके बाद भी वहां की स्थिति जस की तस बनी हुई है। भ्रष्टाचार, बेरोजगारी, हिंसा, आज भी उसी तरह काबिज़ हैं, जहाँ वामपंथी छोड़ कर गये थे।
बंगाल की राजनीति पहले भी रक्तरंजित रहीं है। ममता खुद भी बंगाल में वामपंथियों द्वारा की गयी हिंसा के खिलाफ आवाज उठाती रही हैं। आज उन्ही की पार्टी के लोग बीजेपी के दफ्तरों पर हमला कर कार्यकर्ताओं को मारपीट रहें हैं और पुलिस चुप्पी साधे तमाशा देख रही है। बंगाल को बदलने का दावा करने वाली ममता, बंगाल को तो अभीतक नहीं बदल पाई, लेकिन खुद उसी रंग में रंग गई हैं, जो वामपंथियों का था।
पिछले साल मालदा की घटना के बाद राज्य की अन्य अनेक जगहों पर छोटी-बड़ी साम्प्रदायिक हिंसा होती रही है। हद तो तब हो गई जब पिछले महीनें ममता नोटबंदी के विरोध के लिए दिल्ली में डेरा जमाई हुईं थी, उसवक्त बंगाल का धूलागढ़ मुस्लिम समुदाय द्वारा हिन्दुओं पर की जा रही हिंसा की चपेट में तबाह हो रहा रहा था, लेकिन ममता का शासन तंत्र इस हिंसा को रोकने में नाकाम साबित हुआ था। लेकिन इस हिंसा पर भी वो अपने मुस्लिम तुष्टिकरण के एजेंडे के कारण चुप्पी की चादर ओढ़े सोई हुई हैं।
यह विडम्बना ही है कि ममता संघीय ढांचे की आड़ में बैठकर मोदी सरकार पर हमला करते हुए यह बेबुनियाद आरोप लगाती हैं कि प्रधानमंत्री मोदी संघीय ढांचे के लिए खतरा हैं, जबकि खुद ममता के कई ऐसे काम तथा कई ऐसे बयान सामने आयें हैं, जो सीधे तौर पर संघीय ढांचे को तहस–नहस करने वालें हैं। ध्यान दें तो कुछ सप्ताह पहले सेना के नियमित अभ्यास को बड़े नाटकीय ढंग से ममता ने तख्तापलट की साज़िश बताते हुए सेना को भी आरोपों की जद में ले लिया था। वे आये दिन किसी भी छोटी–मोटी घटना पर बगैर कुछ विचार किये सीधे तौर पर यह कहने से नहीं चूकती कि प्रधानमंत्री उनकी जान के पीछे पड़े हैं। क्या ममता यह बताएंगी कि देश के प्रधानमंत्री पर ऐसे मनगढंत आरोप लगाने के पीछे आधार क्या है और इससे संघीय ढाँचे को कौन-सी मजबूती मिल रही है ? ममता बनर्जी को संघीय ढांचे और संविधान की कितनी चिंता है, इसका अंदाज़ा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि उन्होंने केंद्र सरकार की योजनाओं में सहयोग करने तक से इंकार कर दिया है। ममता की यह छिछली और दोयम दर्जे की राजनीति भर्त्सना योग्य है। यह सब देखते हुए कहना होगा कि भाजपा-नीत केंद्र सरकार के प्रति ममता का बेजा राजनीतिक द्वेष, व्यर्थ का घमंड बंगाल की जनता तथा संघीय ढांचे के लिए बेहद खतरनाक साबित होता जा रहा है। यह स्थिति चिंताजनक है।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)