मुहर्रम के लिए दुर्गा प्रतिमा विसर्जन की तिथि बदलना एक परिपक्व और निष्पक्ष निर्णय कतई नहीं है। अगर ममता सरकार को इन दोनों पर्वों के साथ होने से राज्य में अशांति का भय है तो उन्हें क़ानून व्यवस्था को दुरुस्त करना चाहिए न कि इसकी आड़ में मुस्लिम तुष्टिकरण का कार्ड खेलना चाहिए। एक प्रदेश के सर्वोच्च जनप्रतिनिधि पद पर बैठे व्यक्ति से ऐसे बचकाने, पक्षपाती और एकतरफा निर्णय की अपेक्षा कभी नहीं की जा सकती। ममता को अंदाजा नहीं है कि बंगाल जैसे दुर्गा पूजा के लिए प्रसिद्ध राज्य में प्रतिमा विसर्जन करना से ऐसा खिलवाड़ उनकी बड़ी राजनीतिक भूल साबित हो सकती है।
पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी फिर सुर्खियों में हैं। कहना चाहिये कि विवादों में हैं। हमेशा की तरह इस बार भी आधारहीन और बेसिर पैर की बातों को लेकर। दरअसल इसबार मुहर्रम और दुर्गा मूर्ती विसर्जंन की तारीख एक ही दिन पड़ रही है। ममता ने मोहर्रम को प्राथमिकता देते हुए इस बार मुहर्रम के दिन दुर्गा प्रतिमा विसर्जन पर रोक लगा दी है। घोषणा के अनुसार मोहर्रम के कारण इस साल दुर्गा पूजा के बाद होने वाले मूर्ति विसर्जन पर 30 सितंबर की शाम 6 बजे से लेकर 1 अक्टूबर तक पूरे दिन रोक रहेगी।
पिछले साल भी कुछ ऐसी ही स्थिति बनी थी जब मुहर्रम से एक दिन पहले दशहरा पर्व था और ममता की सरकार ने मूर्ति विसर्जन पर ऐसा ही प्रतिबंध जारी किया था। तब ममता के इस बेतुके प्रतिबंध को कोलकाता हाईकोर्ट में चुनौती दी गई थी और कोर्ट ने ममता सरकार को बुरी तरह फटकार लगाते हुए टिप्पणी की थी कि इस प्रकार के प्रतिबंध निराधार हैं जो किसी वर्ग विशेष को उपकृत करने के लिए लगाए गए हैं। इस बार भी ऐसा ही हुआ है। ममता ने अल्पसंख्यक वर्ग को रिझाने, खुश करने के लिए उन्हें प्राथमिकता देते हुए दुर्गा प्रतिमा विसर्जन को मुहर्रम के दिन न करने का फरमान सुना दिया। जाहिर है, हिंदू बाहुल्य और हिंदू मूल के इस देश में ऐसे फैसलों का विरोध तो होना ही था। ममता बनर्जी केवल मुस्लिमों को ही अपना आधार, अपनी प्राथमिकता मानती हैं और उन्हीं के लिए काम करती हैं।
वोटबैंक की राजनीति का ये घिसापिटा पुराना फार्मूला ममता अपना जरूर रही हैं, लेकिन इसका बहुत अधिक लाभ नहीं मिलने वाला क्योंकि तुष्टिकरण अपने आप में अब कोई अर्थ नहीं रखता। पहली तो बात यह कि जिस मुस्लिम वर्ग को अशिक्षित एवं भावनाओं में बहने वाला समझकर ममता रिझाने की नाकाम कोशिश कर रही हैं, वह स्वयं अब बदल रहा है। मोदी सरकार की नीतियों के कारण मुस्लिम पिछड़ेपन के दायरे से बाहर आ रहे हैं और अपनी ही कुरीतियों से निकलने की छटपटाहट उनमें दिखाई दे रही हैं। इसका एक आदर्श उदाहरण हमारे सामने है जब हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने तीन तलाक जैसी इस्लामिक रुढि़वादी कुप्रथा पर रोक लगाई तो मुस्लिमों के एक बड़े वर्ग ने इसका स्वागत किया और सहमति जताई।
मुस्लिम पर्सनल लॉ जैसी दकियानूसी स्वयंभू संस्थाएं जरूर बौखलाईं, लेकिन उनके बौखलाने का अर्थ नहीं है क्योंकि इस देश में उच्चतम न्यायालय से बड़ी कोई न्यायिक संस्था नहीं है। यहां यह जानना रोचक होगा कि तीन तलाक पर रोक लगने के मूल में मुस्लिम महिलाओं का ही योगदान है, जिन्होंने लगातार अदालत के दरवाजे खटखटाए। सरकार भी इसपर पूर्णतः संवेदनशीलता के साथ बढ़ती रही। सोशल मीडिया पर भी इस अमानवीय कुरीति के खिलाफ लगातार माहौल बना और इसकी सुखद परिणिति इस रूप में सामने आई कि कमोबेश एक जनांदोलन खड़ा हो गया जिसने मुस्लिम महिलाओं को तीन तलाक की बेड़ियों से आजाद कराया।
सुप्रीम कोर्ट ने ऐतिहासिक फैसला दिया और तीन तलाक अमान्य हो गया। जरा सोचिये कि यदि मुस्लिम स्वयं सहयोग नहीं करते तो क्या इस निर्णय पर सहजता से अमल होना आसान होता। शायद नहीं। उल्टे देश में अभी तक सांप्रदायिक हिंसा व्याप्त हो गई होती। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। कारण साफ है, मुस्लिम स्वयं ही पिछड़ेपन के दायरे से बाहर निकल रहा है और खुद के ही धर्मगुरु, धार्मिक आख्यानों को खारिज कर रहा है। ऐसे में ममता बनर्जी का पुराना तुष्टिकरण का फामूर्ला निर्मूल एवं आधारहीन प्रतीत होता है।
इसमें कोई संदेह नहीं है कि ममता बनर्जी सदा से हिंदू विरोधी कार्य करती रही हैं और उनका पूरा झुकाव हिंदू विरोधी गतिविधियों को बढ़ाने में रहता है, लेकिन उनका दर्जा कोर्ट से बढ़कर नहीं है। केवल मुर्हरम को प्राथमिकता देने के लिए बंगाल के सबसे बड़े पर्व दुर्गा प्रतिमा विसर्जन को ताक पर रख देना ममता की अधीरता को तो दिखाता ही है, साथ ही उनकी राजनीतिक समझ के अधकचरेपन की ओर भी इशारा करता है।
जिस राज्य का सबसे बड़ा पर्व दुर्गा पूजा हो, जहां बहुसंख्यक वर्ग इसे लेकर भावुक हो, वहां दुर्गा प्रतिमा विसर्जन पर एक दिन की रोक लगाकर ममता ने स्वयं ही अपना राजनीतिक नुकसान कर लिया है। वे शायद इस गलतफहमी में हैं कि मुर्हरम की कीमत पर दुर्गा विसर्जन को पीछे करने से सारे मुस्लिम वोट उन्हें मिल जाएंगे, लेकिन वे इसका दूसरा पहलू नहीं देख पा रही हैं कि इससे उनका ही जनाधार बिगड़ जाएगा।
भाजपा ने उनके निर्णय पर पलटवार करते हुए कहा कि ममता बनर्जी वोटबैंक की राजनीति कर रही हैं। दिल्ली से भाजपा प्रवक्ता तेजिंदर बग्गा ने ममता के इस बेतुके फैसले के खिलाफ मोर्चा भी खोल दिया। उन्होंने 1 अक्टूबर के लिए दिल्ली से कोलकाता की विमान यात्रा का टिकट बुक करा लिया है और सोशल मीडिया पर उसका फोटो भी शेयर किया है।
उन्होंने स्पष्ट कहा है कि वे विसर्जन में शामिल होने के लिए स्वयं बंगाल आएंगे और देखना चाहेंगे कि आखिर इसे कौन रोकता है। उनके इस ट्वीट को हज़ारों लाइक्स मिल चुके हैं और देशभर में ममता के फैसले के खिलाफ जनाक्रोश बढ़ता जा रहा है। जगह-जगह विरोध प्रदर्शन, पुतला दहन किए जा रहे हैं और ममता के खिलाफ नारेबाजी की जा रही है।
अब सवाल यह उठता है कि आखिर ममता को ऐसा करने की क्या जरूरत आन पड़ी। इसके मूल में उनकी राजनीतिक असुरक्षा और भाजपा के देश भर में तेजी से बढ़ते प्रभाव के कारण पनपी हीनता काम कर रही है। हाल के दिनों ममता का सारा राजनीतिक जोर हिंदू विरोधी राजनीति पर केन्द्रित होकर रह गया है।
अब, चूंकि देश में हिंदुत्व का प्रमुखता से डंका बज रहा है, ऐसे में ममता की बौखलाहट स्वाभाविक है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ कई बार अशोभनीय एवं अपमानजनक टिप्पणी करके ममता स्वयं की राजनीतिक कमजोरी और असुरक्षा को पहले ही प्रकट कर चुकी हैं। निश्चित ही मुहर्रम के लिए दुर्गा प्रतिमा विसर्जन की तिथि बदलना एक परिपक्व और निष्पक्ष निर्णय कतई नहीं है। अगर ममता सरकार को इन दोनों पर्वों के साथ होने से राज्य में अशांति का भय है तो उन्हें क़ानून व्यवस्था को दुरुस्त करना चाहिए न कि इसकी आड़ में मुस्लिम तुष्टिकरण का कार्ड खेलना चाहिए।
एक प्रदेश के सर्वोच्च जनप्रतिनिधि पद पर बैठे व्यक्ति से ऐसे बचकाने, पक्षपाती और एकतरफा निर्णय की अपेक्षा कभी नहीं की जा सकती। यह देश संप्रभुता के नियमों को साथ लेकर चलता है, ऐसे में यहां पक्षपात की कोई गुंजाइश नहीं होना चाहिये। जहां तक उक्त पर्वों की बात है, बीजेपी महासचिव बासु ने ठीक ही कहा कि इसके लिए दोनों के पृथक रास्ते निर्धारित किए जा सकते थे और समस्या का हल निकाला जा सकता था। उत्तर प्रदेश में इस प्रकार की व्यवस्था बनी हुई है। लेकिन, बहुमत को ताक पर रखकर अल्पसंख्यकों के तुष्टिकरण के लिए ही ममता बनर्जी ने यह कदम उठाया जो कि केवल उनकी राजनीतिक असुरक्षा को प्रकट करता है।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)