कोरोना काल में ममता की संकीर्ण राजनीति का शिकार बंगाल

कोरोना ने मानवता के समक्ष एक असाधारण संकट खड़ा कर दिया है इससे निबटने के लिए प्रयास भी असाधारण ही करने होंगे। जहां एक तरफ तो यह कहा जा रहा है कि कोरोना से निबटने में केवल सरकार की नहीं अपितु जनता की भी उतनी ही महत्वपूर्ण भूमिका है वही एक चुनी चुनी हुई  मुख्यमंत्री अगर अपने राजनीतिक दुराग्रहों के चलते घोर लापरवाही बरत रही है,  तो यह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है।

पूरा विश्व कोरोना के भयंकर संक्रमण के दौर से गुजर रहा है, भारत भी इससे अछूता नहीं है। भारत ने अभी तक अपनी प्रबंधन क्षमता एवं प्रबल इच्छाशक्ति से कोरोना का डटकर मुकाबला किया है तथा यह कहना भी अतिशयोक्ति नहीं होगा कि भारत इस व्याधि को नियंत्रित रखने में काफी हद तक कामयाब भी नजर आ रहा है।

कोरोना को पूरी तरह परास्त करने के लिए संघीय प्रणाली वाले भारत में सभी राज्य सरकारों का सक्रिय एवं सकारात्मक रहना अत्यंत आवश्यक है। केंद्र सरकार के साथ-साथ जब तक राज्य सरकारें अपनी पूरी प्रतिबद्धता के साथ कोरोना की इस जंग में अपनी उपयुक्त भूमिका नहीं निभाएंगी तब तक कोरोना का खतरा टलेगा नही।

ममता बनर्जी (फोटो साभार : Money Control)

बंगाल की ममता बनर्जी सरकार का रवैया कोरोना काल में कुछ इस तरह का नजर आ रहा है,  जिससे यह लगने लगा है कि कहीं बंगाल कोरोना की इस लड़ाई में कमजोर कड़ी साबित ना हो जाए। यह सर्व विदित है है कि ममता बनर्जी ने पिछले सालों में केंद्र की मोदी सरकार के साथ न केवल संवैधानिक मर्यादाओं का उल्लंघन किया है, अपितु असंगत  विरोध के चलते संघीय ढांचे पर  भी प्रहार करती भी नजर आई हैं।

वैश्विक महामारी कोरोना के संक्रमण काल में किसी भी जिम्मेदार मुख्यमंत्री से यह अपेक्षा की जाती है कि वह दलगत राजनीति को तिलांजलि देकर राष्ट्रहित में सहयोगात्मक व सकारात्मक रुख अख्तियार करे, इस संदर्भ में ममता की अमानवीय  राजनीति का विश्लेषण करना अत्यंत आवश्यक  है।

मार्च माह के आरंभ में जब कोरोना भारत में दस्तक दे चुका था तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने सभी होली मंगल मिलन के कार्यक्रम रद्द कर देश के लोगों से यह आह्वान किया था कि होली पर एक साथ इकट्ठे ना हों। परंतु ममता बनर्जी कोरोना वायरस की संवेदनशीलता समझते हुए भी अपनी तुष्टिकरण की राजनीति से बाज नहीं आईं एवं उन्होंने इसे दिल्ली दंगों को छिपाने की साजिश बताकर प्रधानमंत्री की उस संजीदा अपील का उपहास तो किया ही साथ ही  लोगों को बड़े आयोजनों के लिए उकसाया भी।  एक मुख्यमंत्री के तौर पर यह बेहद गैर जिम्मेदाराना व्यवहार था।

विश्व में कोरोना से हो रही तबाही को देखते हुए प्रधानमंत्री मोदी ने 24 मार्च को पूरे देश में लॉकडाउन की घोषणा की,  वस्तुतः लॉक डाउन के माध्यम से सोशल डिस्टेंसिंग ही कोरोना संक्रमण की गति को थाम सकता है। इसके अतिरिक्त कोई उपाय देखने में नहीं आया है।

कानून व्यवस्था चूंकि राज्य का विषय है इसलिए लोकडाउन को लागू कराना तथा उसकी सही अनुपालना कराना यह राज्यों का दायित्व है। निजामुद्दीन मरकज में जमातियों ने जिस तरह लापरवाही बरती इससे देश को कोरोना के बड़े स्तर पर प्रसार के संकट से भी रूबरू होना पड़ा है।

पुनरापी ममता बनर्जी ने बंगाल में लॉकडाउन का सही अनुपालन कराने के अपने दायित्व में बेहद शिथिलता बरती। ममता बनर्जी ने इसे भी अपने मुस्लिम वोट बैंक समीकरण से जोड़कर देखा तथा मुस्लिमों को शबे बारात  मनाने के लिए मजहबी जलसे की अनुमति प्रदान कर पूरे बंगाल को संकट में धकेलने का काम किया। इतना ही नहीं कुछ बाजारों को भी खोलने की अनुमति दे दी, जिससे  कोलकाता में राजा बाजार, नारकेल डोगा, टॉप्सिया, मेतियाबुर्ज  जैसी जगहों पर सब्जी, मछली, मांस बाजारों एवं बड़ा फूल बाजार में खुलकर लोकडाउन का उल्लंघन हुआ।  बिना किसी दूरी का ध्यान रखते हुए  खूब भीड़ इकट्ठी हुई। परंतु ममता सरकार ने अपनी आंखें मूंदे रखीं जो कि खुद आपदा को न्योता देने जैसा है।

ममता सरकार ने इतनी भारी चूक लोकडाउन का पालन ना करा के की जिससे खिन्न होकर बंगाल के राज्यपाल जगदीप धनखड़ ने ट्वीट करके कहा कहा कि जो पुलिस और प्रशासन के अधिकारी लोकडाउन प्रोटोकॉल का पालन नहीं करा पा रहे उन्हें बाहर का रास्ता दिखाया जाए साथ ही उन्होंने  राज्य में अर्धसैनिक बलों को बड़े स्तर पर तैनात करने की मांग की। जिससे पता चलता है कि खतरा कितना बड़ा है।

साभार : Rediff.com

ममता सरकार की इस लापरवाही पर केंद्रीय गृह मंत्रालय भी नाराज नजर आया तथा तुरंत कदम उठाते हुए ममता सरकार को लॉकडाउन का पालन कराने की हिदायत दी एवं बरती हुई लापरवाही की रिपोर्ट तलब की। इस प्रसंग से यह बात  साफ हो जाती है कि ममता बनर्जी ने मोदी सरकार द्वारा लगाए गए लोकडाउन को राजनीतिक कारणों से गंभीरता से न लेकर बंगाल की जनता के जीवन से खिलवाड़ करने का निंदनीय काम किया है।

ममता सरकार पर पिछले दिनों कोरोना संक्रमित लोगो के आंकड़े छिपाने के भी आरोप लगे हैं जब मृतकों की संख्या 8 बताने के बाद उसे 3 में परिवर्तित कर गया। इसी प्रकार पर्याप्त मात्रा में टेस्ट न  करने के भी आरोप लग रहे हैं क्योंकि इतना बड़ा राज्य होने पर भी बंगाल में अभी तक चार हजार के करीब ही टेस्ट किए गए हैं।

जबकि देश के 23 राज्यों में जमातियों द्वारा संक्रमण की घटनाएं हुई हैं उन सभी राज्यों ने जमातियों को ढूंढ कर उन्हें क्वॉरेंटाइन करने एवं टेस्ट करने के कार्य को तीव्रता से किया है। बंगाल के पूर्व भाजपा अध्यक्ष राहुल सिन्हा ने ममता सरकार पर आरोप लगाया है कि बड़ी संख्या में जमाती भागकर राज्य में  आए हैं लेकिन ममता सरकार अपने वोट बैंक के नाराज होने के डर से ना उनकी टेस्टिंग करा रही है ना ही उन्हें क्वारन्टीन करने पर ध्यान दे रही है।

ममता बनर्जी से जब जमातियों के संदर्भ में प्रश्न पूछा गया तो उन्होंने भी इसे सांप्रदायिक कहकर टाल दिया। राहुल सिन्हा के आरोपों में अगर एक प्रतिशत भी सच्चाई हुई तो यह आने वाले समय में बेहद खतरनाक हो सकता है।

तमाम अध्ययन इस बात की पुष्टि कर रहे हैं कि लॉकडाउन से  देश के गरीब मजदूर तबके को बड़ा झटका लगा है।  केंद्र सरकार ने गरीबों की जरूरतों को ध्यान में रखते हुए एक लाख 70 हजार करोड़ रुपए का बड़ा आर्थिक पैकेज भी प्रधानमंत्री गरीब कल्याण योजना के नाम से घोषित किया है, परंतु ममता अभी भी अपने राजनीतिक विरोध पर कायम रहते हुए बंगाल के गरीबों के हक पर कुंडली मारकर बैठी हैं।

प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि के तहत दी जाने वाली 6000 रुपये  की सम्मान राशि बंगाल के पंजीकृत पांच लाख से अधिक  किसानों तक नहीं पहुंचने नहीं दी जा रही है। जबकि देश के 8 करोड़ से अधिक किसानों को लॉकडाउन  होने के बाद ₹2000 की किस्त जारी कर दी गई है।  इसी तरह से आयुष्मान भारत जैसी गरीब कल्याणकारी योजना को भी ममता ने बंगाल में लागू न करके अपनी तुच्छ राजनीति का ही परिचय दिया है, जबकि पिछले दिनों दिल्ली सरकार ने भी तमाम राजनीतिक मतभेदों के बावजूद आयुष्मान भारत योजना को गरीबों के हित में लागू कर दिया है।

इसी प्रकार पिछले दिनों ममता बनर्जी ने पीपीई किट के रंग को लेकर भी बेहद संकीर्ण राजनीति का परिचय देते हुए इसे एक बड़ा मुद्दा बनाया था जबकि पीपीई किट  अंतरराष्ट्रीय मानकों पर तैयार की जा रही है, जिसमें गुणवत्ता महत्वपूर्ण है उसका रंग कोई मुद्दा नहीं है। लेकिन ना जाने क्यों ममता दीदी की आदत हर बात को मुस्लिम वोट बैंक की कसौटी पर कसने की हो गई है।

पिछले दिनों यह भी देखने में आया कि बंगाल बेहद बुरी तरह आर्थिक कुप्रबंधन का शिकार हो रहा है। ममता सरकार ने कई क्लबों को एक-एक हजार करोड़ रुपए आवंटित कर दिए हैं जबकि इस समय सभी राज्य सरकारें अपने फंड को कोरोना से लड़ने में इस्तेमाल कर रही हैं।

ममता सरकार पर ऐसे भी आरोप लगे हैं कि वह राहत कार्यों में में भी राजनीति कर रही है जहां प्रशासनिक अधिकारियों की जगह अपनी पार्टी के नेताओं को भेजकर राशन वितरण कराया जा रहा है वहीं विपक्षी पार्टी भाजपा के कार्यकर्ताओं को राहत कार्य करने की अनुमति नहीं दी जा रही। बंगाल के राज्यपाल ने राशन वितरण को लेकर भ्रष्टाचार की शिकायतों पर भी चिंता व्यक्त की है।

कोरोना ने मानवता के समक्ष एक असाधारण संकट खड़ा कर दिया है इससे निबटने के लिए प्रयास भी असाधारण ही करने होंगे। जहां एक तरफ तो यह कहा जा रहा है कि कोरोना से निबटने में केवल सरकार की नहीं अपितु जनता की भी उतनी ही महत्वपूर्ण भूमिका है वही एक चुनी चुनी हुई  मुख्यमंत्री अगर अपने राजनीतिक दुराग्रहों के चलते घोर लापरवाही बरत रही है,  तो यह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है।

ममता बनर्जी को यही सलाह है कि इस  संकट काल में सबका इतिहास लिखा जा रहा है इसलिए अपनी संकीर्ण राजनीति को परे रखकर बंगाल की संपूर्ण जनता के हित को दृष्टि में रखकर कार्य करें। राजनीतिक द्वेष और वोट बैंक की राजनीति करने का यह उपयुक्त समय नहीं, थोड़ी सी भी चूक बड़ा भारी संकट खड़ा कर सकती है, जो अक्षम्य होगा।

(लेखक महर्षि दयानंद विश्वविद्यालय,रोहतक में सहायक प्राध्यापक हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)