तीन तलाक पर राजनीतिक दलों की बात करें तो भाजपा को छोड़ अधिकांश राजनीतिक दल या तो इसपर खामोश हैं या फिर इसके खात्मे का विरोध कर रहे हैं। मगर, भाजपा ने न केवल सत्ता में आने के बाद से ही इस विषय को उठाया है, बल्कि सरकार मुस्लिम महिलाओं के साथ खुलकर खड़ी भी रही है। इस सम्बन्ध में सरकार तो अपना पक्ष काफी पहले ही न्यायालय में रख चुकी है; खुद प्रधानमंत्री मोदी ने भी अभी हाल ही में इसपर कहा कि तीन तलाक का मसला धार्मिक नही, बल्कि मुस्लिम महिलाओ के समानता और स्वतंत्रता के अधिकार का है, जो हमारे देश का संविधान हर नागरिक को प्रदान करता है।
गर्मियों की छुट्टियों में इस बार सर्वोच्च न्यायलय द्वारा स्थापित संवैधानिक पीठ तीन तलाक की वैधता पर लगातार सुनवाई करने जा रही है। पिछले साल गर्मियों की छुट्टियों में प्रधानमंत्री ने न्यायाधीशों से आग्रह किया था कि न्यायालय का समय बढ़ाने के विषय में सोचा जाए ताकि महत्वपूर्ण फैसलों पर सुनवाई कर उनके विषय में उचित फैसले लिए जा सकें और मामला लम्बे समय तक निलंबित न हो। इसको गंभीरता से लेते हुए इस बार सर्वोच्च न्यायलय ने गर्मियों की छुट्टियों में पञ्च-न्यायधीशों की संवैधानिक पीठ की स्थापना कर मुस्लिम महिलाओं से जुड़ी तीन तलाक, हलाला एवं बहु-विवाह जैसी समस्याओं की वैधता पर सुनवाई करने का फैसला किया है।
न्यायालय की इस सुनवाई को नज़दीक आता देख ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड जो तीन तलाक के खात्मे का लगातार विरोध करता रहा है, ने भी तीन तलाक पर कुछ घोषणाएं की जिसमें तीन तलाक के सम्बन्ध में नाममात्र की बंदिशें लागू कर बोर्ड ने इसे तीन तलाक का समाधान बता दिया। बोर्ड के अनुसार तीन तलाक इस्लाम के अनुसार वैध है और इसमें कोई हस्तक्षेप स्वीकार नहीं किया जाएगा। बोर्ड ने कहा कि जो बेवजह तीन तलाक देंगे उनका सामाजिक बहिष्कार किया जाएगा। तीन तलाक की शिकार महिलाओं की मदद आदि की बात भी बोर्ड ने कही।
लेकिन, मुस्लिम महिलाओ के साथ हो रहे जुल्म और अत्याचार पर बोर्ड ने अपना रुख स्पष्ट नही किया और न ही तलाक के बाद बच्चों व महिलाओ के पालन-पोषण के लिए वजीफे आदि का कोई प्रावधान घोषित किया। हलाला और बहुविवाह पर भी बोर्ड खामोश रहा। ऐसे में यह कहना गलत नही होगा कि अपने धर्म की ठेकेदारी कर रहे इन मौलानाओं को यह बात रास नही आ रही कि अब इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय सुनवाई करने जा रहा है।
वर्षों से इस्लाम के दायरे में जुल्म सहती आई मुस्लिम महिलाओ को उनका हक़ मिलने की संभावना पैदा होते देख इन तथाकथित और स्वघोषित सच्चे मुसलमानों को अब अपना मजहब संकट में नज़र आने लगा है। मगर, अपने ही मजहब की औरतों के प्रति तीन तलाक और हलाला जैसी अमानवीय एवं अन्यायपूर्ण व्यवस्थाएं उन्हें मंजूर हैं। दरअसल सर्वोच्च न्यायालय की तीन तलाक पर सुनवाई की पहल और मुस्लिम महिलाओं को उनका उचित अधिकार मिलने की संभावना से खौफ खाए ये मौलाना अब तरह-तरह की दलीलें दे कर कोर्ट को भ्रमित करने की नाकाम कोशिश करने में लगे हैं।
बहरहाल, तीन तलाक पर राजनीतिक दलों की बात करें तो भाजपा को छोड़ अधिकांश राजनीतिक दल या तो इसपर खामोश हैं या फिर इसके खात्मे का विरोध कर रहे हैं। यहाँ तक कि भाजपा सरकार पर इसके खात्मे की कोशिशों के लिए ध्रुवीकरण की राजनीति का आरोप तक लगा रहे हैं। मगर, भाजपा ने न केवल सरकार में आने के बाद से ही इस विषय को उठाया है, बल्कि सरकार मुस्लिम महिलाओं के साथ खुलकर खड़ी भी रही है। इस सम्बन्ध में भाजपानीत केंद्र सरकार तो अपना पक्ष काफी पहले ही न्यायालय में रख चुकी है; खुद प्रधानमंत्री मोदी ने भी अब एकबार फिर इसपर अपना रुख स्पष्ट करते हुए अभी हाल ही में संपन्न राष्ट्रीय कार्यकारिणी में कहा कि तीन तलाक का मसला धार्मिक नही, बल्कि महिलाओ के समानता, स्वतंत्रता के अधिकार का है जो हमारे देश का संविधान हर नागरिक को प्रदान करता है।
इस बात को केंद्र में रखते हुए प्रधानमंत्री ने न केवल मुस्लिम महिलाओ की बल्कि देश की सभी महिलाओ के हित की बात की है। जो विपक्षी दल इसे ध्रुवीकरण की राजनीति बता रहे हैं, वे शायद यह भूल रहे हैं कि उनकी सरकार ने अपने कार्यकाल में यदि तथाकथित धर्मनिरपेक्षता के नाम पर इस सामाजिक बुराई को बढ़ावा देने का कार्य न किया होता, तो स्थिति इतनी गंभीर होती ही नही। यह बताने की आवश्यकता नहीं कि देश की सबसे पुरानी और सबसे लम्बे समय तक शासन करने वाली पार्टी कांग्रेस के प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने शाहबानों मामले में कैसे न्यायालय के फैसले को संसद में क़ानून लाकर पलटते हुए मुस्लिम तुष्टिकरण का एक नया कीर्तिमान स्थापित किया था। अगर राजीव गांधी तब ज़रा सा भी मुस्लिम महिलाओं के प्रति संवेदनशील होकर सोचे होते तो आज स्थिति इतनी बुरी नहीं होती।
बहरहाल, अब देश में नयी सरकार है और वो मुस्लिम महिलाओं की पीड़ा को न केवल समझ रही है, बल्कि उसे दूर करने का हर संभव प्रयत्न भी कर रही है। मुस्लिम महिलायें अब धर्म नहीं, बल्कि कानून का सहारा लेना ज्यादा पसंद करती हैं। साथ ही कई स्थानीय संगठनो की मदद से वे अपनी समस्याओं को सुलझाने का प्रयास करती है जैसा कि अभी एक ताज़ा मामला देखा गया जिसमें एक मुस्लिम महिला हिन्दू महासभा के पास न्याय की गुहार लिए गयीं; क्योंकि उनके अपने समुदाय में किसी ने उनकी गुहार नही सुनी।
तीन तलाक, हलाला और बहुविवाह जैसी इस्लामिक व्यवस्थाएं मुस्लिम महिलाओं के स्वतंत्रता और समानता के मौलिक अधिकारों का हनन करने वाली हैं, लेकिन विडंबना यह है कि विपक्षी दलों द्वारा इन गलत व्यवस्थाओं के खात्मे की सरकार की कोशिशों को धार्मिक रंग देने की खूब कोशिश की गयी। हालाँकि सरकार ने इसपर अपना रुख नहीं बदला और अब यह मसला सर्वोच्च न्यायालय की संवैधानिक पीठ के पास है, जिससे उम्मीद की जा रही है कि वो इसपर सुनवाई करते हुए एक निष्पक्ष फैसला लेकर मुस्लिम महिलाओ को उनके अधिकार प्रदान करेगा।
(लेखिका पत्रकारिता की छात्रा हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)