रिज़र्व बैंक की स्वायत्तता को लेकर बेजा हंगामा

नोटबंदी के मुद्दे पर रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया की स्वायत्तता को लेकर इन दिनों खूब सवाल उठ रहे हैं । रिजर्व बैंक के कुछ पूर्व गवर्नर, नोबेल सम्मान से सम्मानित अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन आदि रिजर्व बैंक की स्वायत्तता और उसकी आजादी को लेकर सवाल खड़े कर रहे हैं । इनका कहना है कि विमुद्रीकरण के दौरान सरकार ने रिजर्व बैंक के कामकाज में दखल दिया और सरकार के कहने पर ही बैंक के बोर्ड ने छियासी फीसदी करेंसी को रद्द करने का फैसला लिया । इस तरह से केंद्र की मोदी सरकार ने केंद्रीय बैंक के कामकाज में या फैसलों में दखल दिया या उनको प्रभावित किया। नोटबंदी से लेकर अबतक इस फैसले के पक्ष और विपक्ष में तमाम तरह के आरोप लगते ही रहे हैं । तर्क, वितर्क और कुतर्क भी देखने को मिले । सरकार ने रिज़र्व बैंक ऑफ इंडिया के पूर्व गवर्नरों के आरोपों पर कोई सफाई नहीं दी । जब रिजर्व बैंक के चार कर्मचारी संघों ने अपनी आपत्ति दर्ज करवाई तो सरकार हरकत में आई । नोटबंदी के दौरान नए करेंसी के संयोजन के लिए वित्त मंत्रालय के संयुक्त सचिव स्तर के अधिकारी को रिजर्व बैंक में तैनाती पर आपत्ति जताते हुए बैंक के गवर्नर उर्जित पटेल को खत लिखकर कर्मचारी संघों ने स्वायत्तता से समझौता नहीं करने का अनुरोध किया तो सरकार ने फौरन अपनी प्रतिक्रिया दी । वित्त मंत्रालय ने एक बयान जारी कर कहा कि सरकार रिजर्व बैंक की आजादी और स्वायत्तता का सम्मान करती है । रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर वाई वी रेड्डी और विमल जालान को भी नोटबंदी के पहले रिजर्व बैंक के बोर्ड को सरकार की सलाह में स्वायत्तता का हनन नजर आया । दोनों ने इस मसले पर अपनी आपत्ति दर्ज करवाई । दरअसल अगर हम देखें तो रिजर्व बैंक की स्वायत्तता को लेकर यह बहस नयी नहीं है या इसके पहले की केंद्र सरकारो पर इस तरह के आरोप लगते रहे हैं । रिजर्व बैंक की स्वायत्तता की बहस बहुत पुरानी है और अमूमन हर गवर्नर के कार्यकाल में अलग-अलग मुद्दों पर इस तरह की बहस होती रहती है । कभी नियुक्ति को लेकर तो कभी क़र्ज़ की दरों को लेकर ।

कुछ अर्थशास्त्रियों का मानना है कि नोटबंदी का फैसला जनहित में नहीं था, लिहाजा रिजर्व बैंक को सरकार के इस कदम का विरोध करना चाहिए था । चूंकि रिजर्व बैंक ने सरकार के इस कदम का किसी तरह का प्रतिवाद नहीं किया इस वजह से उन कुछ लोगों द्वारा यह कहा जा रहा है कि रिजर्व बैंक ने अपनी स्वायत्तता के साथ समझौता कर लिया है । लेकिन, यह भी तो हो सकता है कि रिजर्व बैंक को सरकार के नोटबंदी के कदम में जनता का हित नजर आ रहा हो । वैसे भी, जनता तो नोटबंदी के समर्थन में ही खड़ी दिखी है ।

यह बात तय है कि रिजर्व बैंक बोर्ड सरकार की सलाह पर काम करता रहा है । सरकारें समय समय पर रिजर्व बैंक को निर्देशित करती रहती हैं क्योंकि एक्ट की दो धाराओं में इसका प्रावधान है । रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया एक्ट 1934 की धारा 7 के मुताबिक केंद्र सरकार समय समय पर रिजर्व बैंक के गवर्नर से सलाह मशविरे के बाद बैंक के बोर्ड को लोकहित में निर्देश या सलाह दे सकती है । लिहाजा विमुद्रीकरण के सरकार की सलाह में कुछ गलत प्रतीत नहीं होता है । इसके अलावा भी अगर देखें तो रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया एक्ट 1934 की धारा 26(2) के मुताबिक अगर रिजर्व बैंक बोर्ड सरकार को किसी भी करेंसी को रद्द करने का प्रस्ताव देती है तो सरकार इसके गजट नोटिफिकेशन के बाद लागू कर सकती है । लिहाजा पांच सौ और हजार रुपए की करंसी को बंद करने का फैसला कानून सम्मत था और लगता नहीं है कि इस मसले में रिजर्व बैंक की स्वायत्तता से किसी तरह का समझौता किया गया है । सरकार और रिजर्व बैंक के बीच तनातनी निजी बैंक आईसीआईसीआई में विदेशी निवेश को लेकर देखने को मिली थी । वित्त मंत्री चिदंबरम से लेकर प्रणब मुखर्जी तक के कार्यकाल में अलग अलग मुद्दों पर रिजर्व बैंक और वित्त मंत्रालय में मतभेद देखने को मिले हैं । तब भी स्वायत्तता  की ये बहस चली थी जो समय के साथ-साथ धीरे-धीरे खत्म हो गई ।

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दरअसल अगर हम इस पूरे मसले को देखें तो रिजर्व बैंक एक्ट के दो शब्द को लेकर विवाद है, वो शब्द हैं – पब्लिक इंटरेस्ट यानि जनहित। कुछ अर्थशास्त्रियों का मानना है कि नोटबंदी का फैसला जनहित में नहीं था, लिहाजा रिजर्व बैंक को सरकार के इस कदम का विरोध करना चाहिए था । चूंकि रिजर्व बैंक ने सरकार के इस कदम का किसी तरह का प्रतिवाद नहीं किया इस वजह से कुछ लोगों द्वारा यह कहा जा रहा है कि रिजर्व बैंक ने अपनी स्वायत्तता के साथ समझौता कर लिया है । लेकिन, यह भी तो हो सकता है कि रिजर्व बैंक को सरकार के नोटबंदी के कदम में जनता का हित नजर आ रहा हो । वैसे भी, नोटबंदी से जनता तो खुश और इसके समर्थन में ही खड़ी दिख रही हो । दरअसल इस पूरे मसले पर रिजर्व बैंक के गवर्नर उर्जित पटेल का नेपथ्य में रहकर काम करने को लेकर भी भ्रम की स्थिति बनी । फैसलों का एलान इस तरह से हो रहा था कि लग रहा था कि फैसले भी सरकार ले रही है और उसका एलान भी सरकार ही कर रही है । उर्जित पटेल का नेपथ्य में रहना और वित्त मंत्रालय में सचिव शक्तिकांत दास के फ्रंटफुट पर रहने की वजह से इस तरह का भ्रम फैला । रिजर्व बैंक पर लगातार नियमों में बदलाव को लेकर भी सरकार के दबाव में काम करने का आरोप लगा, लेकिन गौर करें तो रिजर्व बैंक एक्ट ही जनहित की बात करता है, तो जो भी फैसले बदले गए या उनमें संशोधन किया गया, वो इसी जनहित को ध्यान में रखकर किया गया ।

अब फिर से सवाल उठता है कि इतने विवाद के बावजूद नोटबंदी का हासिल आखिर क्या रहा ? एशिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था में जिस तरह से नोटबंदी का फैसला लिया गया क्या उससे आर्थिक सुधार में क्रांतिकारी परिवर्तन देखने को मिलेगा । इस बारे में किसी भी निष्कर्ष पर पहुंचना बहुत जल्दबाजी होगी । हालांकि सरकार की मानें तो इस फैसले अर्थव्यवस्था मज़बूत हुई है । बहरहाल, नोटबंदी का फैसला ऐसा है जिसके दूरगामी परिणाम होंगे और तुरत-फुरत किसी फैसले पर पहुंचने की जल्दबाजी से गलती संभव है ।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)