भारत ने अपने उम्मीदवार जस्टिस दलवीर भण्डारी के पक्ष में जोरदार प्रचार आरंभ किया था। इसी का परिणाम था कि पहले 11 दौर के चुनाव में जस्टिस भंडारी को महासभा के करीब दो तिहाई सदस्यों का समर्थन मिला था, लेकिन सुरक्षा परिषद में वह ग्रीनवुड के मुकाबले 4 मतों से पीछे थे। अंतिम परिणाम में संयुक्त राष्ट्र के मुख्यालय में हुए चुनाव में भंडारी को महासभा में 193 में से 183 वोट मिले, जबकि सुरक्षा परिषद के सभी 15 सदस्यों का मत मिला।
20 नवम्बर, 2017 को अंतरराष्ट्रीय न्यायालय (आइसीजे) में भारत के जस्टिस दलवीर भण्डारी को न्यायाधीश के रूप में चुना गया। यह दूसरी बार है, जब भण्डारी आइसीजे के न्यायाधीश के रूप में चुने गए हैं। इससे पहले वे 2012 में आइसीजे के न्यायाधीश चुने गए थे, उनका कार्यकाल 18 फरवरी को पूरा हो रहा था। आइसीजे में दलवीर भण्डारी की जीत भारत की बड़ी कूटनीतिक सफलता है। दरअसल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने उनकी जीत के लिए योजनाबद्ध ढंग से अभियान चलाया था।
संयुक्त राष्ट्र में भारत के प्रतिनिधि सैयद अकबरुद्दीन ने अपने दूसरे भारतीय अधिकारी सहयोगियों के साथ, भारत सरकार के निर्देशन में, एक बेहतर तालमेल करते हुए सदस्य देशो के साथ लामबंदी की और नतीजा भारत के पक्ष में आया। यह जीत वाकई कठिन थी, क्योंकि नियुक्ति के लिए संयुक्त राष्ट्र के सुरक्षा परिषद और महासभा, दोनों में बहुमत की आवश्यकता होती है।
वीटो शक्ति-संपन्न पांच स्थायी सदस्यों (अमेरिका, ब्रिटेन, रूस, फ्रांस और चीन) और वीटो शक्तिरहित दस अस्थायी सदस्यों (बोलीविया, मिस्र, इथोपिया, इटली, जापान, कजाखस्तान, सेनेगल, स्वीडन, यूक्रेन और उरुग्वे) से बनी सुरक्षा परिषद में भारत को कुल पंद्रह में से महज पांच मतों का समर्थन था। लेकिन महासभा में, जिसमें सभी सदस्य-राष्ट्रों की भागीदारी रहती है, ब्रिटेन के मुकाबले भारत ने ग्यारह चरणों में हर बार दो-तिहाई से अधिक समर्थन हासिल किया।
यह प्रतिस्पर्धा ऊपरी तौर पर दलवीर भण्डारी और ब्रिटेन के क्रिस्टोफर ग्रीनवुड के बीच थी, पर हकीकत में यह प्रतिस्पर्धा सुरक्षा परिषद और महासभा की मंशाओं तथा संयुक्त राष्ट्र में सुधारों के खिलाफ और सुधारों के पक्षकारों के मध्य थी। लंबे समय से भारत, सुरक्षा परिषद में सुधारों की वकालत करता रहा है और जापान, जर्मनी व ब्राजील के साथ मिल कर इस हेतु प्रयासरत भी था। सुरक्षा परिषद के पांच स्थायी सदस्यों में जहां केवल फ्रांस वीटोयुक्त भारतीय दावेदारी को समर्थन देता है, वहीं चीन के मुताबिक सुधारों का यह उचित समय नहीं है और अमेरिका सहित बाकी देश सुरक्षा परिषद के विस्तार की जरूरत को वीटो-विहीन सदस्यता के तौर पर दबे स्वर में स्वीकार करते हैं।
गौरतलब है कि ब्रिटेन के क्रिस्टोफर ग्रीनवुड ने आखिरी समय में अपनी दावेदारी वापस ले ली। ब्रिटेन ने यह कहते हुए अपनी दावेदारी वापस ले ली कि जबकि उनका देश यह चुनाव नहीं जीत सकता, उन्हें खुशी है कि उनके नजदीकी मित्र भारत ने यह दावेदारी जीत ली है और वे संयुक्त राष्ट्र व वैश्विक पटल पर भारत का सहयोग करते रहेंगे। हालांकि ब्रिटिश और अमेरिकी मीडिया ने ब्रिटेन की इस हार को शर्मनाक बताया है, क्योंकि संस्थापक-सदस्य ब्रिटेन पिछले इकहत्तर वर्षों में पहली बार इस पंद्रह सदस्यीय अंतर्राष्ट्रीय जजों के पैनल से बाहर होगा और चीन के बाद यह दूसरा मौका होगा जब कोई वीटो शक्ति-संपन्न देश इस पैनल में अपना स्थान बनाने से चूक गया है।
अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय ने 1946 में कार्य करना आरंभ किया था, तब से आज तक ऐसा कभी नहीं हुआ जब अंतरराष्ट्रीय न्यायालय में उसका कोई न्यायाधीश न रहा हो। यही नहीं, यह भी पहली बार है जब सुरक्षा परिषद के किसी एक स्थाई सदस्य का कोई न्यायाधीश वहां नहीं होगा। इससे इस घटना का महत्व समझा जा सकता है।
भारत ने अपने उम्मीदवार के पक्ष में जोरदार प्रचार आरंभ किया था। इसी का परिणाम था कि पहले 11 दौर के चुनाव में जस्टिस भण्डारी को महासभा के करीब दो तिहाई सदस्यों का समर्थन मिला था, लेकिन सुरक्षा परिषद में वह ग्रीनवुड के मुकाबले 4 मतों से पीछे थे। अंतिम परिणाम में संयुक्त राष्ट्र के मुख्यालय में हुए चुनाव में भण्डारी को महासभा में 193 में से 183 वोट मिले, जबकि सुरक्षा परिषद के सभी 15 सदस्यों का मत मिला।
अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय में लगातार दूसरी बार अपना प्रतिनिधि पहुंचाना भारतीय नेतृत्व के लिए आसान नहीं रहा। इसके लिए वह लंबे समय से प्रयासरत था। इस साल जुलाई में ब्रिक्स देशों के सम्मेलन से ही भारतीय प्रधानमंत्री इस अभियान में जुट गए थे । सुरक्षा परिषद के सदस्यों और महासभा के सौ से ज्यादा सदस्य देशों को चिट्ठी लिखकर भारत ने इसके लिए समर्थन मांगा था। भारत ने इस विषय पर अपनी राजनीतिक और कूटनीतिक ताकत को दाँव पर लगाया था। प्रधानमंत्री कार्यालय द्वारा विभिन्न देशों के प्रतिनिधियों को अपनी दावेदारी हेतु विश्वास में लिया खुद विदेश मंत्री सुषमा स्वराज जी ने लगभग 60 देशों के विदेश मंत्रियों से व्यक्तिगत रूप से संपर्क किया था।
आज इसी का नतीजा है कि भारत विश्वपटल पर एक राजनीतिक ताकत बन कर उभरा है। भारत की इस जीत से यह भी स्पष्ट हो चुका है कि सयुंक्त राष्ट्र महासभा में सुरक्षा परिषद् के प्रभुत्व को चुनौती देने की क्षमता है और अब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के एजेंडे पर सयुंक्त राष्ट्र में सुधार के साथ-साथ ही सुरक्षा परिषद् में भारत को स्थायी स्थान सुनिश्चित करना है।
(लेखक कॉरपोरेट लॉयर हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)