गौरी लंकेश की हत्या 5 सितम्बर को होती है; पुलिस किसी को गिरफ्तार करे, पुलिस किसी को आरोपी के रूप में पेश करे, उसके पहले ही मीडिया ने अपना फैसला सुना दिया। अगले दिन से ही मोमबत्तियां जलाई जाने लगीं। बड़े बड़े पत्रकार, विचारक इकठ्ठे हुए और कह दिया, “गौरी लंकेश की हत्या बीजेपी-आरएसएस का समर्थन करने वाले लोगों ने ही की होगी।” मीडिया में सालों तक रिपोर्टिंग के अनुभव के बाद कह सकता हूँ, यह रिपोर्टिंग कम और विचारधारा विशेष पर हमला करने का प्रयास ज्यादा रहा। गौरी लंकेश की हत्या के बाद मीडिया का एक जज के रूप में मैदान में उतर आना, हत्या को प्रधानमंत्री से जोड़ देना; यह एक ऑब्जेक्टिव रिपोर्टिंग का हिस्सा नहीं हो सकता है।
पत्रकार और एक्टिविस्ट गौरी लंकेश की हत्या ने सभी सोचने-समझने वालों के मनो-मस्तिष्क को झकझोर कर रख दिया, एक सभ्य समाज में इस तरह की हत्या स्वीकार्य नहीं है। इस मुद्दे पर विचार करने से पहले यह जान लेना ज़रूरी है कि गौरी लंकेश शुद्ध तरीके से एक लेफ्टिस्ट विचारधारा का समर्थन करने वाली पत्रकार और एक्टिविस्ट थीं। उनके निशाने पर पिछले कई सालों से बीजेपी और संघ परिवार रहा था, इस तथ्य को स्वीकार करने में किसी को कोई धर्मसंकट नहीं होना चाहिए।
अपने विवादित लेखन को लेकर गौरी को जेल भी जाना पड़ा था। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि उनकी हत्या को जायज़ ठहराया जाए। एक तरफ गौरी की विचारधारा का सम्मान ज़रूरी है, वहीं दूसरी तरफ उनकी हत्या का विरोध भी ज़रूरी है। लेकिन, गौरी की हत्या के बाद इस देश में जिस स्तर पर बहस हुई, उसको लेकर आपत्ति भी है। खासकर मीडिया की भूमिका और मीडिया में घटना के कवरेज को लेकर सवाल उठ रहे हैं।
मीडिया में सालों तक रिपोर्टिंग के अनुभव के बाद कह सकता हूँ, यह रिपोर्टिंग कम और किसी विचारधारा पर हमला करने का प्रयास ज्यादा रहा। गौरी लंकेश की हत्या के बाद मीडिया का एक जज के रूप में मैदान में उतर आना, हत्या को प्रधानमंत्री से जोड़ देना; यह एक ऑब्जेक्टिव रिपोर्टिंग का हिस्सा नहीं हो सकता है।
आज सोशल मीडिया के ज़माने में हर घटना का अलग-अलग पहलू जनता के सामने खुद-ब-खुद आ जाता है, जनता की निर्भरता पब्लिक ब्रॉडकास्टर और अख़बारों पर कम होती जा रही है। आज से 20-25 साल पहले कोई स्वनामधन्य संपादक अगर विचारधारा के स्तर पर कोई बड़ी बात लिख देता तो शायद उसे एक प्रमाणपत्र मान लिया जाता, लेकिन अब ऐसा नहीं है।
गौरी लंकेश की हत्या 5 सितम्बर को होती है; पुलिस किसी को गिरफ्तार करे, पुलिस किसी को आरोपी के रूप में पेश करे, उसके पहले ही मीडिया ने अपना फैसला सुना दिया। अगले दिन से ही मोमबत्तियां जलाई जाने लगीं। बड़े बड़े पत्रकार, विचारक इकठ्ठे हुए और कह दिया, “गौरी लंकेश की हत्या बीजेपी-आरएसएस का समर्थन करने वाले लोगों ने ही की होगी।”
पत्रकारिता के तमाम उसूलों को ताक पर रखकर फैसला सुना देने की यह परंपरा कम से कम लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ के लिए घातक है, ऐसा इसलिए भी लिखना पड़ रहा है, क्योंकि आज पत्रकारिता खुद विश्वसनीयता के संकट से जूझ रही है। पिछले दिनों हत्या के विरोध में दिल्ली प्रेस क्लब में पत्रकारों के साथ वामपंथी नेताओं का जमावड़ा हुआ, जहाँ इस हत्या को सीधे सीधे केंद्र सरकार से जोड़ा गया। हद तो तब हो गई जब कन्हैया कुमार जैसे वामपंथी छात्र नेताओं ने इस मौके को अपने सियासी फायदे के लिए इस्तेमाल किया।
सवाल यह है कि देश के बड़े-बड़े पत्रकारों को अपनी बात कहने के लिए कन्हैया कुमार जैसे लोगों का हाथ पकड़कर आगे बढ़ना पड़ेगा ? क्या पत्रकारों को खुद पर भरोसा नहीं रहा ? क्या उनको लगता है कि पत्रकारों की बातों को अब लोग सच नहीं मानते। यह स्थिति आखिर क्यों और कैसे पैदा हुई?
दिल्ली में भी ऐसे पत्रकारों की कोई कमी नहीं, जिन्होंने गौरी लंकेश की हत्या के बाद हो रही राजनीति का विरोध किया, यह ज़रूरी भी था। आप एक राजनीतिक दल के तौर पर चाहें अपने विरोधियों पर हमला करें, आपको कोई नहीं रोकता। लेकिन, पत्रकारों द्वारा वस्तुनिष्ठता को ताक पर रख राजनेताओं जैसा व्यवहार करने लग्न खुद पत्रकारिता की बुनियाद को कमजोर कर देगा।
पत्रकारों की भूमिका इस समाज में बहुत अहम है। लोग हमेशा उम्मीद करते हैं कि खोजी पत्रकार सच्चाई तक जाएगा और एक पूरी मुकम्मल जाँच और तफ्तीश के बाद तस्वीर जनता के सामने लाएगा। अभी कर्नाटक पुलिस खुद गौरी लंकेश की हत्या की तह तक नहीं पहुँच पाई है, ऐसे में पत्रकार जज की भूमिका निभाने से बचें तो समाज के लिए बेहतर होगा।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)