भारत के लिए व्यावहारिक और कारगर नहीं है न्यूनतम आय गारंटी योजना

भारतीय बैंकिंग क्षेत्र पहले से ही मानव संसाधन की कमी का सामना कर रहे हैं। इससे बैंकों के सर्वर पर भी दबाव बढ़ेगा, जिसे अद्यतन करने एवं नई तकनीक को खरीदने के लिये बैंकों को भारी-भरकम पूँजी की दरकार होगी। लाभार्थियों की पहचान करना सरकार के लिये मुश्किल भरा कार्य होगा। इस प्रक्रिया को अमलीजामा पहनाने में भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिलेगा। अपात्र व्यक्ति भी इस योजना का लाभ लेने में सफल हो सकता है। प्रस्तावित योजना के लिए धन कहाँ से आएगा, इसका खुलासा भी राहुल गांधी ने नहीं किया है।

चुनावी मौसम में सभी दल वोट पाने के लिये नये-नये जुगाड़ में लगे हैं। इसी क्रम में कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने हर गरीब परिवार को प्रति माह 6000 रूपये या सालाना 72 हजार रुपये देने की घोषणा 25 मार्च को करके चुनावी सरगर्मी को तेज कर दिया है। राहुल गाँधी के मुताबिक इससे देश के 5 करोड़ गरीब परिवारों या 25 करोड़ गरीब लोगों, यह संख्या एक परिवार में 5 सदस्य होंगे के अनुमान पर आधारित है, को आर्थिक रूप से राहत मिलेगी। इसे न्यूनतम आय गारंटी योजना का नाम दिया गया है, जिसकी लागत हर वर्ष 36 खरब रूपये होने का अनुमान है।

इस योजना का लाभ उन्हीं लाभार्थियों को दिया जायेगा, जिनकी सालाना आय 12,000 रुपये प्रति माह होगी। यह आर्थिक सहायता लाभार्थियों के खाते में सीधे जमा की जायेगी। राहुल गाँधी के अनुसार इस योजना को चरणबद्ध तरीके से लागू किया जायेगा। राहुल गांधी ने यह भी कहा कि योजना की व्यावहारिकता के संबंध में अर्थशास्त्रियों से विचार-विमर्श करके इसे लागू करने की रणनीति बना ली गई है। 

आजादी के 72 सालों के बाद भी देश से गरीबी को नहीं हटाया जा सका है। सुरेश तेंदुलकर समिति की रिपोर्ट के अनुसार वित्त वर्ष 2011-12 में कुल आबादी का 21.9 प्रतिशत या 27 करोड़ लोग गरीबी रेखा से नीचे जीवनयापन कर रहे थे। अभी भी स्थिति कमोबेश वैसी ही है। इसलिये, देश में गरीबी दूर करने की बात एक लंबे अरसे की कही जाती रही है। पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने भी “गरीबी हटाओ” का नारा दिया था, लेकिन उसके अपेक्षित परिणाम नहीं निकल सके थे। अब उनके वंशज राहुल गांधी भी उसी नारे को न्यूनतम आय गारंटी योजना के साथ दोहरा रहे हैं।  

दावा किया जा रहा कि इस योजना से आर्थिक एवं सामाजिक रूप से गरीबों का उन्नयन होगा, साथ ही साथ मौजूदा सब्सिडी या अन्य सरकारी योजनाओं को लागू करने के दौरान बिचौलिये, भ्रष्टाचार आदि पर लगाम लगेगा,जिससे सरकारी निधि के बंदरबाँट की संभावना कम होगी। कुछ अर्थशास्त्रियों के अनुसार मुफ्त पैसा लोगों को आलसी बनाता है और लाभार्थी काम करने से परहेज करने लगते हैं। मुफ्त में पैसा मिलने से जो श्रमिक कार्य कर रहे हैं, वे भी काम करने से परहेज करेंगे, जिससे श्रमिक आपूर्ति में कमी आयेगी।

मुफ्त का पैसा मिलने से लोगों के बीच फिजूलखर्ची की आदत विकसित होगी। घर के पुरुष सदस्यों में नशे और जुआ खेलने की प्रवृति पनप सकती है, क्योंकि हमारे देश में अभी भी ज्यादा संख्या में पुरुष ही बैंक से जुड़े हुए हैं। इस योजना को लागू करने से बैंकों पर काम का दबाव बढ़ेगा।

भारतीय बैंकिंग क्षेत्र पहले से ही मानव संसाधन की कमी का सामना कर रहे हैं। इससे बैंकों के सर्वर पर भी दबाव बढ़ेगा, जिसे अद्यतन करने एवं नई तकनीक को खरीदने के लिये बैंकों को भारी-भरकम पूँजी की दरकार होगी। लाभार्थियों की पहचान करना सरकार के लिये मुश्किल भरा कार्य होगा। इस प्रक्रिया को अमलीजामा पहनाने में भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिलेगा। अपात्र व्यक्ति भी इस योजना का लाभ लेने में सफल हो सकता है। प्रस्तावित योजना के लिए धन कहाँ से आएगा, इसका खुलासा भी राहुल गांधी ने नहीं किया है।

दुनिया में ऐसी योजना की सफलता की बात कुछ अर्थशास्त्री कर रहे हैं, लेकिन ऐसे प्रयोग कुछ सीमित लोगों या छोटे देशों पर किये गये हैं, जिसके आधार पर भारत जैसे बड़े और विविधता से परिपूर्ण एवं बड़ी आबादी वाले देश में इसे सफलता पूर्वक लागू नहीं कराया जा सकता है। भारत में न्यूनतम आय गारंटी योजना को लागू करने के लिये 36 खरब रूपये की दरकार होगी, जिसकी पूर्ति के लिये मौजूदा अनेक कल्याणकारी सरकारी योजनाओं को बंद करना या उनमें कटौती करना पड़ सकता है।

अगर ऐसा किया जायेगा तो लोगों के बीच अविश्वास का माहौल कायम होगा। दूसरी समस्या यह होगी कि पैसा सीधे लाभार्थी के खाते में जाने से उसके दुरुपयोग की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता है। समस्या लाभार्थियों की पहचान करने में भी होगी।

भारत में अशिक्षा और गरीबी का दायरा बहुत ही व्यापक है। देश में अनपढ़ लोगों की एक बड़ी फौज होने के कारण वे इस योजना से मिलने वाले लाभ को अपना अधिकार समझने लगेंगे, जिससे देश के कार्यबल पर नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा। सबसे बड़ा नुकसान श्रमिक बल में कमी आने से अर्थव्यवस्था पर पड़ेगा।

काम-धंधों की रफ्तार कम होने से उत्पादों के निर्माण की गति धीमी होगी, जिससे मांग और आपूर्ति के बीच असंतुलन पैदा होगा और विकास को धक्का लगेगा। कुल मिलाकर ये योजना वोट बैंक के लिए चुनावी प्रलोभन जैसी है, जिसको न केवल लागू करना कठिन है, बल्कि इसके परिणाम भी लाभकारी रहने की संभावना कम है।

(लेखक भारतीय स्टेट बैंक के कॉरपोरेट केंद्र मुंबई के आर्थिक अनुसन्धान विभाग में कार्यरत हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)