प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बलूचिस्तान मामले में पाकिस्तान को जैसी पटखनी दी, उसकी कल्पना उसने सपने में भी नहीं की होगी। अब प्रधानमंत्री उसी प्रकार की पटखनी चीन को देने में जुट गए हैं। गौरतलब है कि लंबे अरसे से चीन भारत को चारों ओर से घेरने की रणनीति पर काम कर रहा है। इसके लिए वह भारत के पड़ोसी देशों को मोहरा बनाने से भी बाज नहीं आया। अब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों के साथ संबंध सुधारकर चीन को उसी की भाषा में जवाब दे रहे हैं। उनकी हालिया वियतनाम यात्रा सरकार की आक्रामक विदेश नीति की ही एक कड़ी है।
मोदी सरकार की एक्ट ईस्ट नीति से न केवल पूर्वोत्तर की बदहाली दूर होगी बल्कि भारतीय अर्थव्यवस्था दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों की अर्थव्यवस्था से एकाकार भी होगी। पूर्वोत्तर की सीमा का 98 फीसदी भाग चीन, म्यांमार, भूटान, बांग्लादेश और नेपाल के साथ लगती है। इसीलिए वैश्वीकरण के युग में पूर्वोत्तर में विकास की संभावनाएं अधिक हैं। इसी को देखते भारत सरकार इस स्थलाबद्ध इलाके के उत्पादों के लिए दक्षिण-पूर्व व पूर्वी एशियाई देशों में निकासी मार्ग बना रही है। सबसे बढ़कर विदेश नीति के मामले में यह मील का पत्थर साबित होगी क्योंकि चीन की वर्चस्ववादी नीति से बाहर निकलने के लिए दक्षिण-पूर्व एशियाई देश छटपटा रहे हैं। मोदी सरकार उन्हें एक प्लेटफार्म मुहैया करा रही है। जैसे-जैसे इस प्लेटफार्म को मजबूती मिल रही है, वैसे-वैसे चीन की परेशानी बढ़ती जा रही है।
गौरतलब है कि दक्षेस यानी दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संगठन की धीमी प्रगति से उबकर भारत ने 1990 के दशक में पूर्व की ओर देखो यानी लुक ईस्ट नीति अपनाया था। मोदी सरकार इस नीति को आगे बढ़ाकर “एक्ट ईस्ट” नीति में बदल रही है ताकि आसियान देशों के साथ कारोबारी व कूटनीतिक दोनों रिश्तें मजबूत बनें। उल्लेखनीय है कि दक्षिण पूर्व एशियाई देशों के आर्थिक संगठन आसियान ने 2025 तक एक आर्थिक समुदाय बनाने का लक्ष्य निर्धारित किया है। भले ही आसियान आर्थिक समुदाय की अर्थव्यवस्था का आकार यूरोपीय संघ जितना बड़ा नहीं है, लेकिन इस इलाके को हासिल जनसांख्यिकीय लाभ को देखें तो यह 21वीं सदी को एशिया की सदी बनाने में एक अहम पड़ाव साबित होगा। आसियान देशों के साथ कारोबार बढ़ाने के लिए भारत सरकार इन देशों के साथ वरीयता व्यापार, मुक्त व्यापार जैसे कई समझौते कर चुकी है और कई समझौते होने की प्रक्रिया में हैं। जहां अत्याधुनिक तकनीक के अलावा बड़े बाजार के चलते भारत के लिए आसियान देशों का विशेष महत्व है, वहीं आसियान देशों को भी अपने खाद्य तेल, समुद्री व तकनीकी उत्पादों के लिए भारत के विशाल बाजार की जरूरत है। सबसे बड़ी बात है कि दोनों पक्षों में सांस्कृतिक एकता की सुदीर्घ परंपरा है। अब मोदी सरकार इसी सांस्कृतिक रिश्तों को प्रगाढ़ बनाकर आर्थिक व कूटनीतिक दांव चल रही है।
आसियान देशों के साथ आर्थिक संबंधों को मजबूत बनाने के उद्देश्य से सरकार स्थलीय संपर्क को प्राथमिकता दे रही है। इससे न सिर्फ कारोबारी लागत में कमी आएगी बल्कि पूर्वोत्तर की बदहाली भी दूर होगी। गौरतलब है कि 1947 में भारत विभाजन से पहले तक पूर्वोतर का समूचा आर्थिक तंत्र चटगांव बंदरगाह से जुड़ा हुआ था, लेकिन पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) के निर्माण ने इस क्षेत्र को वीराने में छोड़ दिया। अब पूर्वोत्तर को कोलकाता बंदरगाह का ही सहारा बचता है जो कि बहुत दूर है और व्यस्त भी। इसीलिए भारत सरकार सड़क मार्ग के जरिए पूर्वी भारत को दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों के साथ जोड़ने को प्राथमिकता दे रही है। इस दिशा में एक महत्वपूर्ण पड़ाव है भारत-म्यांमार-थाईलैंड सुपर हाईवे। 3200 किलोमीटर लंबा यह हाइवे मोरेह (मणिपुर) से शुरू होकर म्यांमार के मांडले व यंगून होते हुए मेसोट (थाइलैंड) को जोड़ेगा। हाल ही में इसके कुछ हिस्सों पर आवाजाही शुरू हुई है और इस साल के आखिर तक यह हाईवे पूरी तरह खुल जाएगा। ऐसा होने पर यह हाईवे पूर्वोत्तर राज्यों को दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों से जोड़ने के साथ-साथ व्यापार, निवेश, रोजगार जैसे कई फायदे देगा। इसके अलावा इस हाईवे से म्यांमार में थाईलैंड के सहयोग से विकसित ‘डायई स्पेशल इकोनामिक’ जोन तक भारत की सीधी पहुंच बनेगी। गौरतलब है कि डायई बंदरगाह बंगाल की खाड़ी की दूसरी ओर स्थित है और यह चेन्नई से 2000 किलोमीटर दूर है, तो बैंकाक से 340 किलोमीटर। अभी तक भारत और थाइलैंड के बीच व्यापार थाइलैंड की खाड़ी में स्थित लेम चाबांग बंदरगाह से होता है, जिसमें हफ्ते भर का समय लगता है, लेकिन डायई बंदरगाह से यह दूरी कुछ दिनों में सिमट जाएगी। आगे चलकर यह कॉरिडोर नार्थ-साउथ कोरिडोर से जुड़ जाएगा जो दक्षिण चीन को म्यांमार, थाइलैंड व मलेशिया होते हुए सिंगापुर से जोड़ता है। इस प्रकार भारत से चले कंटेनर के सिंगापुर तक पहुंचने की राह खुलने वाली है।
स्पष्ट है कि मोदी सरकार की एक्ट ईस्ट नीति से न केवल पूर्वोत्तर की बदहाली दूर होगी बल्कि भारतीय अर्थव्यवस्था दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों की अर्थव्यवस्था से एकाकार भी होगी। पूर्वोत्तर की सीमा का 98 फीसदी भाग चीन, म्यांमार, भूटान, बांग्लादेश और नेपाल के साथ लगती है। इसीलिए वैश्वीकरण के युग में पूर्वोत्तर में विकास की संभावनाएं अधिक हैं। इसी को देखते भारत सरकार इस स्थलाबद्ध इलाके के उत्पादों के लिए दक्षिण-पूर्व व पूर्वी एशियाई देशों में निकासी मार्ग बना रही है। सबसे बढ़कर विदेश नीति के मामले में यह मील का पत्थर साबित होगी क्योंकि चीन की वर्चस्ववादी नीति से बाहर निकलने के लिए दक्षिण-पूर्व एशियाई देश छटपटा रहे हैं। मोदी सरकार उन्हें एक प्लेटफार्म मुहैया करा रही है। जैसे-जैसे इस प्लेटफार्म को मजबूती मिल रही है, वैसे-वैसे चीन की तिलमिलाहट और परेशानी बढ़ती जा रही है। मोदी की विदेश नीति की कामयाबी का इससे बड़ा प्रमाण और क्या हो सकता है?
(लेखक केन्द्रीय सचिवालय में अधिकारी हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)