मोदी सरकार के नेतृत्व में भारतीय रेलवे माल ढुलाई के क्षेत्र में अपनी खोई हुई भूमिका को फिर से हासिल करने के लिए प्रयासरत है। रेलवे की योजना माल ढुलाई में अपनी हिस्सेदारी के 28 प्रतिशत के मौजूदा स्तर से बढ़ाकर 2051 तक 44 प्रतिशत करने की है। नेशनल रेल प्लान के अनुसार 2026 तक 33 प्रतिशत, 2031 तक 39 प्रतिशत, 2041 तक 43 प्रतिशत और 2051 तक 44 प्रतिशत।
भारतीय खेती इसलिए बदहाल रही क्योंकि यहां उपज को देसी-विदेशी बाजारों में पहुंचाने का व्यवस्थित नेटवर्क नहीं बना। रही-सही कसर सड़क मार्ग की महंगी ढुलाई ने पूरी कर दी। लंबे अरसे की उपेक्षा के बाद अब मोदी सरकार कृषि उपजों की बिक्री के व्यवस्थित नेटवर्क बनाने के साथ-साथ ढुलाई लागत कम करने की दिशा में काम कर रही है। इसमें पहला काम है रेलवे से माल ढुलाई को बढ़ावा देना।
उल्लेखनीय है कि भारत की लॉजिस्टिक लागत सकल घरेलू उत्पाद का 13-15 प्रतिशत है जबकि वैश्विक औसत 8 प्रतिशत का है। एक किलोमीटर लंबाई की मालगाड़ी औसतन 72 ट्रकों जितना माल ढोती है। इससे न केवल ढुलाई लागत कम होगी बल्कि व्यस्त राजमार्गों पर ट्रकों की भीड़ (कंजेशन) कम होने से माल समय से पहुंचेगा और सड़कें भी सुरक्षित बनेगी।
अनाकोंडा, सुपर एनाकोंडा, शेषनाग, वासुकी जैसे नाम सुनकर यही लगता है कि ये हॉलीवुड-बॉलीवुड फिल्मों के नाम होंगे लेकिन ये सामान्य से तीन से चार गुनी लंबी मालगाड़ियों के नाम हैं जिन्हें रेलवे डेडिकेटेड फ्रेट कॉरिडोर (डीएफसी) पर चलाने के लिए तैयार कर रहा है।
इसमें डिस्ट्रीब्यूटेड पॉवर कंट्रोल सिस्टम (डीपीसीएस) की आधुनिक तकनीक का उपयोग किया गया है। इसी तरह पश्चिम रेलवे ने विद्युतीकृत क्षेत्र में ओवर हेड इक्विपमेंट क्षेत्र में पहली बार डबल स्टैक कंटेनर ट्रेन सफलतापूर्वक चलाकर विश्व में नया कीर्तिमान बनाया। डेढ़ किलोमीटर लंबी दुनिया की पहली डबल स्टैक इलेक्ट्रिक कंटेनर ट्रेन सड़कों पर 270 ट्रकों के दबाव को कम करती है।
दुनिया भर में जहां रेलवे से माल ढुलाई सड़क मार्ग की तुलना में सस्ती, पर्यावरण अनुकूल और शीघ्र डिलीवरी वाली होती है वहीं भारत में रेल से ढुलाई न केवल धीमी बल्कि अनिश्चित भी है। यही कारण है कि आजादी के बाद से ही माल ढुलाई में रेलवे की हिस्सेदारी घटती जा रही है। माल ढुलाई के अधिकांश हिस्से के सड़क मार्ग से होने के कारण परिवहन लागत बढ़ती जा रही है। इसे आलू के उदाहरण से समझा जा सकता है।
चिली से नीदरलैंड की दूरी 13000 किमी है जबकि भारत से नीदरलैंड के बीच की दूरी महज सात हजार किलोमीटर है। इसके बावजूद नीदरलैंड के बाजारों में चिली का आलू सस्ता पड़ता है जबकि ऊंची क्वालिटी के बावजूद महंगे परिवहन लागत के चलते भारतीय आलू पिछड़ जाता है। इसी तरह महंगी ढुलाई के कारण नीदरलैंड के फल-सब्जी आयात में भारत की हिस्सेदारी महज 3 प्रतिशत है जबकि सुदूर लैटिन अमेरिकी देश चिली की हिसेदारी 23 प्रतिशत है।
यह केवल विदेशी बाजारों में ही घटित नहीं होता बल्कि घरेलू बाजार में भी फल-सब्जी महंगे होने के चलते आयातित फल-सब्जी से प्रतिस्पर्धा में पिछड़ जाते हैं। उदाहरण के लिए देश के सेब उत्पादक क्षेत्र उत्तर भारत के पहाड़ी राज्यों में हैं लेकिन महंगी ढुलाई के कारण दक्षिण व पश्चिमी भारत के बाजारों में घरेलू सेब आयातित सेब से महंगा पड़ने लगता है। भारतीय किसानों की बदहाली की एक बड़ी वजह यह भी है।
मोदी सरकार के नेतृत्व में भारतीय रेलवे माल ढुलाई के क्षेत्र में अपनी खोई हुई भूमिका को फिर से हासिल करने के लिए प्रयासरत है। रेलवे की योजना माल ढुलाई में अपनी हिस्सेदारी के 28 प्रतिशत के मौजूदा स्तर से बढ़ाकर 2051 तक 44 प्रतिशत करने की है। नेशनल रेल प्लान के अनुसार 2026 तक 33 प्रतिशत, 2031 तक 39 प्रतिशत, 2041 तक 43 प्रतिशत और 2051 तक 44 प्रतिशत।
इसके लिए रेलवे लीक से हटकर प्रयास कर रहा है। अब तक मालगाड़ियों को बीच रास्ते में रोककर यात्री गाड़ियां पास कराई जाती थीं, लेकिन अब मालगाड़ियां टाइम टेबल से चल रही हैं। पहले जहां मालगाड़ियों की औसत रफ्तार 22 किलोमीटर प्रतिघंटा थी वहीं अब 50 किलोमीटर प्रतिघंटा की रफ्तार से मालगाड़ियों दौड़ रही हैं।
सड़कों पर बढ़ती भीड़, महंगे डीजल, लेट-लतीफी जैसे कारणों से दिग्गज कंपनियां रेलवे से ढुलाई को प्राथमिकता देने लगी हैं जो कि रेलवे के लिए शुभ संकेत हैं। 2014 से 2020 तक मारुति सुजुकी कंपनी ने 6,70,000 कारों की ढुलाई रेलवे के जरिए की। इससे न केवल 10 करोड़ लीटर डीजल की बचत हुई बल्कि वायुमंडल में 3000 टन कार्बन डाईऑक्साइड का उत्सर्जन भी नहीं हुआ।
इसी तरह टाटा मोटर्स, ह्युंडई, होंडा भी अपनी गाड़ियों को रेलवे से भेज रही हैं। 2014 में जहां 429 रैक कारों की ढुलाई में लगे थे वहीं 2020 में यह संख्या बढ़कर 1595 हो गई।
डेडिकेटेड फ्रेट कॉरिडोर (डीएफसी) बनने से मौजूदा रेलवे ट्रैकों पर दबाव कम होगा और व्यस्त मार्गों में माल ढुलाई में तेजी आएगी। डीएफसी पर जगह-जगह आधुनिक तकनीक आधारित लोडिंग-अनलोडिंग प्वाईंट बनाए जा रहे हैं ताकि देर न हो।
मेक इन इंडिया पहल के तहत शक्तिशाली लोको देश में ही बनने लगे हैं जो 6000 टन की मालगाड़ी को 75 से 100 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार से खींच सकते हैं। डीजल के बजाए बिजली से चलने के कारण पुरानी रेल लाइनों की जगह ऊर्जा दक्ष कॉरिडोर लेंगे। इससे पेट्रोलियम पदार्थों की खपत कम होगी और कार्बन उर्त्सन भी कम होगा।
समग्रत: ढुलाई लागत कम होने से भारतीय उत्पाद राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय बाजारों में प्रतिस्पर्धा में आ जाएंगे जिससे देश का निर्यात बढ़ेगा। फिर पेट्रोलियम आयात कम होने से दुर्लभ विदेशी मुद्रा भी बचेगी। इसमें सबसे ज्यादा नुकसान कमीशनखोरों-दलालों को होगा क्योंकि उनकी दुकान हमेशा के लिए बंद हो जाएगी।
(लेखक केन्द्रीय सचिवालय में अधिकारी हैं। वरिष्ठ टिप्पणीकार हैं। प्रस्तुत विचार उनके निजी हैं।)